एल डोराडो. लॉस्ट सिटी ऑफ़ गोल्ड. पश्चिमी देशों का एक मिथक. इसी एल डोराडो से शुरू करते हुए एक लेखक कहानी सुनाना शुरू करता है. 1951 से शुरू हुई ये कहानी केजीएफ, यानी कोलार गोल्ड फील्ड्स की कहानी है. ये कहानी है रॉकी की, जिसकी मां ने मरने से पहले उससे वादा लिया है कि वो जिये जैसे भी, लेकिन मरेगा दुनिया का सबसे अमीर आदमी बनकर. कहानी को दो भागों में बांटा गया है और इसका पहला भाग है ये ‘केजीएफ़ – चैप्टर वन’ नाम की मूवी.
KGF मूवी रिव्यू
साउथ में अडवांस बुकिंग के सारे रिकॉर्ड तोड़े. क्या हिंदी वर्ज़न भी ज़ीरो जैसे कंपीटिशन के बावज़ूद धमाल मचा पाएगी?


# केजीएफ़. जो 'बाहुबली' की तरह मिथकीय और साउथ इंडियन है.इंटरवल से पहले कसी हुई स्क्रिप्ट वाली ये मूवी इंटरवल के बाद हॉलीवुड की किसी जेल ब्रेक मूवी और नाज़ी कैंप वाली मूवी का मिक्सचर हो जाती है. लेकिन इसका मतलब ये न लगाएं कि कमतर हो जाती है. बल्कि ये कहना मुफ़ीद होगा कि सेकेंड हाफ, फर्स्ट हाफ से कहीं बेहतर है.
# केजीएफ़. जिसका बैकड्रॉप 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' की तरह एक माइनिंग फ़ील्ड है.
# केजीएफ़. जिसके ‘बाहुबली’ और ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ की तरह ही पहले से ही सूचित किए गए दो पार्ट हैं. 'धूम' या 'गोलमाल' की तरह पहली फिल्म की सफलता को कैश करवाते हुए नहीं.
प्रशांत नील का डायरेक्शन लाउड और यूनिक हुए बगैर ही अच्छा है.
स्क्रिप्ट भी उनकी ही है. स्क्रिप्ट में सारे मूवी मसाले डाले हुए हैं. रॉकी के रूप में यश कमाल लग रहे हैं. बाकी ऐक्टर्स के लिए कुछ ज़्यादा काम नहीं है. इस वाले पार्ट में विलन 'गरुड़ा' का किरदार निभाने वाले ऐक्टर ने भी ठीक काम किया है.

बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म को और निखारता है. ऐसी नॉन-लीनियर (कभी फ़्लैशबैक की और कभी इस वक्त की बात करने वाली) मूवीज़ में बैकग्राउंड म्यूज़िक का बहुत बड़ा रोल होता है और ये फिल्म के टूटे हुए हिस्सों को आपस में जोड़ता है. जैसे इस फिल्म में मां-बेटे के रिश्ते वाले सीन्स में आप केवल बैकग्राउंड थीम भर से ही इनोशनल हो जाते हैं.
कई जगह भूवन की सिनेमाटोग्रफ़ी देखते ही बनती है. माइनिंग वाले और 50 से 80 के दशक वाले सेट्स भी विशालकाय और अच्छे हैं.
फिल्म के कई मजबूत पक्षों में से एक है इसके डायलॉग, जो कहीं-कहीं वन लाइनर बन जाते हैं.जैसे -
# सोने के गुल्लक को चिल्लर बटोरने के लिए नहीं रखा जाता.फिल्म में आनंद बख्शी के गीत का एक नया वर्ज़न डाला गया है– गली गली में फिरता है, तू क्यूं बनके बंजारा.
# हाथ में मछली लेकर मगरमच्छ को खिलाने जा रहे हो, लेकिन मगरमच्छ को मछली नहीं हाथ पसंद है.
# इतिहास जल्दबाज़ी में नहीं रचा जा सकता, लेकिन आप प्लानिंग करके ब्लूप्रिंट बनाकर भी इतिहास नहीं बना सकते.

फिल्म देखते हुए आपको हमेशा ही अस्सी के दशक के अमिताभ और अमिताभ की मूवीज़ याद आती है. कई बार ऐसे सीन्स आते हैं, जो बेशक जानबूझ कर कॉपी नहीं किए गए हैं लेकिन अस्सी के दशक की याद दिलाते हैं. जैसे 'अग्निपथ' वाला अमिताभ, जब बैकग्राउंड में कविता और फोरग्राउंड में गुंडों की कुटाई चल रही होती है. एक और बार गुंडों की दरवाज़ा बंद करके कुटाई 'दीवार' की याद दिलाती है, भगवान को नहीं बल्कि मां को मानने वाली बात 'नास्तिक' की याद करवाती है. दरअसल ये पूरी फिल्म ही अस्सी के दशक की मसाला फिल्म सरीखी है, लेकिन फिर भी पुरानी नहीं लगती. यानी नए और पुराने के बीच बैलेंस बना कर चलती है.
यूं फिल्म का एक और मज़बूत पक्ष है- बैलेंस.
फिल्म बंगलुरू और मुंबई में कलरफुल और केजीएफ की माइनिंग साइट में ब्लैक-ऐंड-वाइट हो जाती है.
जब किसी मूवी में कोई चीज़, कहानी या करेक्टर स्थापित किया जा रहा होता है, तो मूवी बोरिंग होती हुई लगती है. अगर स्थापित न करो, तो लगता है फिल्म काफी सतही है. लेकिन मूवी में यहां पर भी बैलेंस रखा गया है. रॉकी, क्लाइमेक्स आने से पहले 'सही समय' का इंतज़ार करता है, लेकिन ये इतंज़ार लंबा और बोरिंग होने से पहले ही ख़त्म हो जाता है.
फिल्म तब पूरी तरह कमर्शल और ‘फ़िल्मी’ लगती है, जब रॉकी सौ गुंडों की भीड़ को दौड़ा-दौड़ा कर अकेले मारता है. एक नहीं कई बार. लेकिन फिर, किसी यातना शिविर (जैसा कभी हिटलर ने यहूदियों के लिए बनवाया था) सरीखे माइनिंग साइट में लोगों के दर्द को देखकर आपको ‘दी शॉशंक रिडंप्शन’ की याद हो आती है. खासतौर पर एक अंधे को देखकर, जिसके अंधेपन का पता लग जाने पर सिक्यॉरिटी गार्ड उसे मार डालेंगे. क्योंकि वो किसी काम का नहीं, इसलिए वो अंधा न होने की ऐक्टिंग करता है.

जबकि इस मूवी का दूसरा पार्ट आना है, लेकिन बैलेंस का दामन क्लाइमेक्स में भी नहीं छोड़ा गया है. जहां ऐंड दर्शकों को संतुष्ट करता है, वहीं वो अगले पार्ट की भूमिका भी तैयार करता है.
फिल्म में मां वाला इमोशन भी है, रोमांस वाला भी, गरीबी वाला भी है और मज़बूरी वाला भी.
मूवी में रवि और तनिष्क बागची का म्यूज़िक तो अच्छा है, लेकिन लिरिक्स दोयम हैं. हम हिंदी वाले वर्ज़न की बात कर रहे हैं और इसलिए ऐसा शायद 'ट्रांसलेशन' की दिक्कतों के चलते हो.
कुल मिलाकर, एक समीक्षक को औसत लगने वाली ये फिल्म निश्चित तौर पर एक दर्शक को कमाल लगेगी. लेकिन- कि समीक्षक को भी बुरी नहीं, कम अच्छी या औसत लगेगी. यूं अडवांस बुकिंग के रेकॉर्ड तोड़ देने वाली ये फिल्म लंबी रेस का घोड़ा है. मैं ये बात बावज़ूद इसके कह रहा हूं कि इसके समानांतर में ही शाहरुख़ की 'ज़ीरो' भी बगल वाले ऑडी में लगी हुई है.
तो दोस्तों केजीएफ देख कर आइए, इंडियन फिल्म इंडस्ट्री को सेलिब्रेट कीजिए, उसके सभी मसालों के साथ.

वीडियो देखें:
फिल्म रिव्यू: ज़ीरो -