पहला नाम एक व्यक्ति का नाम है. दूसरा नाम, उस किताब का नाम है जिसमें इस व्यक्ति के बारे में पढ़ा था. गांव के स्कूल में छठी क्लास में. तब मालूम चला था कि ये बहुत बड़े गणितज्ञ हैं. गणित के सूरमा. आगे चलते-चलते मालूम चला कि महाशय बड़े खिलाड़ी थे. पाई-वाई की सबसे बड़ी और सबसे सही वैल्यू यही निकाले थे. इन्हें ओईलर (Euler) और जैकोबी (Jacobi) की क्लास में रक्खा गया.
इनपर एक फिल्म बनी है. The Man Who Knew Infinity. ब्रिटिश प्रोजेक्ट है. मैट ब्राउन का डायरेक्शन. रामानुजन के कैरेक्टर में हैं देव पटेल. वही स्लमडॉग मिलिनियर वाला लड़का. ऐसे लोगों के बारे में इशारे करने पड़ते हैं क्यूंकि ये लोग एक ही पत्थर वाला ब्रेसलेट नहीं पहनते हैं. फ़िल्म वाजिब तौर पर पीरियड ड्रामा है. बायोग्राफी है रामानुजन की. प्रोफ़ेसर हार्डी, जिनके साथ रामानुजन ने खूब काम किया, की भूमिका में थे ब्रिटिश थियेटर और फिल्म आर्टिस्ट जेरेमी आईरन्स. रामानुजन जहां कमज़ोर, कुछ ढीले दिखते थे वहीँ हार्डी कॉन्फिडेंट, अक्खड़ और खड़ूस. इन दोनों को स्क्रीन पर एक साथ देखना काफ़ी मज़ेदार था.

Still from the film
कहानी तो रामानुजन की ही होनी थी. उनकी ज़िन्दगी की कहानी. लेकिन फिर कई जगहों पर थोड़ी सी बोझिल हो जाती है. ये उन फिल्मों में से है जिसमें आपके फ़ोन की बैट्री उतनी ही खर्च होती है जितना टिकट में आपका रुपिया. आप अपने नोटिफिकेशन्स चेक करते-करते पूरी फिल्म देख सकते हैं. कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा. गहरे में जाके साइंस और मैथ्स पढ़ने वालों को थोड़ा एक्स्ट्रा समझ में आएगा. 2-3 फ़ॉर्मूले देखकर मेरे जैसे इंजीनियरों को दूसरा सेमेस्टर और उसकी मैथ्स की क्लास याद आ सकती है. ओईलर और जैकोबी का नाम सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं. दिल तेज धड़कने लगता है. और माथे पर पसीने की बूँदें उभर आती हैं. न चाहते हुए भी फिल्म कुछ देर के लिए हॉरर फ़िल्म बन जाती है. खैर, ये सब ज़्यादा देर नहीं चलता.
ऐक्टिंग में देव पटेल ने कोई कसर नहीं छोड़ी है सिवाय दो चीज़ों के. ये दोनों ही चीज़ें उनके जिम्में नहीं आती हैं.
पहली चीज़ - रामानुजन की कद काठी. मानव इतिहास में रामानुजन ने शायद एक ही फ़ोटो खिंचवाई है. वही जो हमने हर बार हर जगह देखी है. उस फ़ोटो वाले रामाजुनन और पिच्चर वाले रामानुजन में वही अंतर लगता है जो द ग्रेट खली और रे मिस्टीरियो में. कुछ मैच नहीं करता. दूसरी चीज - रामानुजन साउथ इंडियन थे. लेकिन फ़िल्म वाला रामानुजन नॉर्थ इन्डियन एक्सेंट में बोलता है. पूरी फ़िल्म भर खटकता रहता है. ऐसा लगता है जैसे रामानुजन नहीं राम या अनुज हो.

फिल्म में बाकी हॉलीवुड की फ़िल्मों के मुकाबले ज़्यादा असल इंडिया दिखाया गया है. कोई ओवर-द-टॉप बकैती नहीं. फर्जी की गरीबी नहीं. बेकार की नौटंकी नहीं.
फ़िल्म भले ही बोरिंग है, लेकिन बेहद ज़रूरी है. होता क्या है कि हम ऐसे लोगों की बड़ी-बड़ी बातें और उनके द्वारा हासिल की गयी चीज़ों के बारे में इतना कुछ कहा-सुना जाता है कि उनके स्ट्रगल को दरकिनार कर दिया जाता है. ऐसा प्रोजेक्ट किया जाता है जैसे वो पैदा हुए, देखने समझने लगे और सोना खोदने लगे.
उनके सोचने-समझने और सोना खोदने के बीच में जो उनका स्ट्रगल है, जनमानस को उससे रूबरू करवाना बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी है.