क्लास 8th तक स्कूल में आर्ट का भी सब्जेक्ट था. हम बहुत बर्बाद थे इस सब्जेक्ट में. तो करते ये थे कि एक पन्ने पे कुछ-कुछ बना देते थे. और दोस्तों को दिखा देते थे. किसी और को नहीं. टीचर को भी नहीं.
तेरे बिन लादेन एक पन्ने पे बना वही कुछ-कुछ है जो डाइरेक्टर अभिषेक शर्मा को सिर्फ़ अपने यार-दोस्तों को दिखा देना चाहिए था. लोगों को थियेटर तक बुलाने की ज़हमत क्यों उठाई? सवाल सीधा है.

फिल्म देखने के दो तरीके होते हैं. पिक्चर हॉल में जाओ, या लैपटॉप पे देखो. ये वाली लैपटॉप पे देखने वाली फ़िल्म है. सही में. फिल्म में दो चीज़ें देखने लायक हैं. पियूष मिश्रा और इमान क्रॉसन. इमान ने क्या किया है, ये नहीं बताएंगे. पियूष मिश्रा आतंकवादी बने हैं. बाकी ऐक्टर ऐसे हैं कि उनके बारे में बात भी करें तो क्या? टीवी से फिल्म में आये मनीष पॉल को तो जाने ही दीजिये. सिकंदर खेर को सिंकंदर खेर बनने में ही काफी टाइम लगता है. तब तक मैं एक नींद पूरी कर चुका था. प्रधुमन सिंह ज़रूर जंचते हैं फेक ओसामा के रोल में.

फिल्म अलग है लेकिन पकी नहीं है. हल्की है. इसे एक्सपेरिमेंट कहें तो अच्छा होगा. जो पॉलिटिकल ऐंगल खंगालते हैं उन्हें फ़िल्म लेफ्टिस्ट लगेगी.
एक अच्छी चीज़, वो ये कि डायरेक्टर अभिषेक शर्मा ने बॉलीवुड के लिए अपने अन्दर की भड़ास ज़रूर निकालने की हर मुमकिन कोशिश की है.

फिल्म में गानों जैसा कुछ भी नहीं है. हाँ अली जाफ़र को शर्टलेस ज़रूर नचाया है. ॐ शांति ॐ के शाहरुख़ की याद आ गयी थी. दर्द-ए-डिस्को वाला. पियूष मिश्रा की आवाज़ में एक छोटा सा टुकड़ा है. फनी है.

फ़िल्म की जो एक बात अच्छी है वो है टेक्निकल लोगों के लिए. उसकी एडिटिंग. लेकिन खाली एडिटिंग से होगा क्या? सब कुछ नट-शेल में रक्खें तो अच्छा होता कि ये कोई थियेटर का ऐक्ट होता या किसी स्टैंड-अप कॉमेडी का ऐक्ट होता, या कोई सेटायरिकल लेख होता. ऐसी चीज़ों को फिल्मों में कन्वर्ट करने के लिए जिस पागलपन की ज़रुरत है, उस पागलपन में काफ़ी ज़्यादा कमी रह गयी. और हां, हम सभी जानते हैं कि फिल्मों में पागलपन पर किस तरह से सेंसर बोर्ड की कैंची चलती है. फ़िल्म बहुत ही छोटे-छोटे हिस्से में फनी है. वो हिस्से इतने छोटे हैं कि कब निकल जाते हैं मालूम भी नहीं चलता.
खैर, पैसे बचाओ. फिल्म का टोरेंट पर आने का इंतज़ार करो. वो भी न देखो तो भी चलेगा. कोई सिलेबस में थोड़ी न है.