******************************************************* ईश्वर, यदि वो कहीं भी है तो, मुझे इस फ़िल्म के बारे में चार शब्द लिखने भर का सामर्थ्य प्रदान करे. *******************************************************
रेस 3 रिव्यू : इस फ़िल्म को बहुत-बहुत पहले बना दिया जाना चाहिए था
भाई रॉक्स!

फोटो - thelallantop
साल 1945 में हिटलर मर गया. उसने ख़ुदकुशी कर ली थी. वो अपने इरादों के लिए जाना जाता था. उसे यहूदियों से नफ़रत थी. वो जर्मनी से उनका नाम और निशान मिटा देना चाहता था. इसके लिए वो उन्हें बाहर नहीं भगाता था बल्कि कॉन्सेंट्रेशन कैम्प में ले जाकर उन्हें मार देता था. इस दुनिया को एक और हिटलर की ज़रूरत है. ये बात मज़ाक में नहीं, बल्कि पूरी गंभीरता के साथ कही जा रही है. हिटलर को दोबारा आना चाहिए. वो भले ही यहूदियों की रेस नहीं ख़त्म कर पाया, मगर उसे इस रेस को ख़त्म करने का प्रण ले लेना चाहिए. नहीं प्रण लेगा तो हम दिलवा देंगे. मानवता की रक्षा के लिए ये बेहद ज़रूरी है कि अब इस रेस को ख़तम हो जाना चाहिए. वो रेस जिसमें अभी कुछ ही घंटे पहले मैं सलमान खान, बॉबी देओल, अनिल कपूर, डेज़ी शाह, साक़िब सलीम और जैकलीन फर्नान्डीज़ को कुछ भी करते हुए देख कर आया हूं. फ़िल्म एक परिवार की कहानी है. ऐसा कहते ही बॉबी देओल की 'अपने', सलमान खान की 'हम साथ साथ हैं' और अनिल कपूर की 'बेटा' फ़िल्म याद आ जाती है. लेकिन ये फ़िल्म यानी रेस-3 बहुत अलग है. 'अपने' में बॉबी देओल के साथ सनी और धर्मेन्द्र यानी उनके अपने थे. रेस-3 में उनका अपना कोई नहीं है. 'हम साथ-साथ हैं' में सब साथ थे, यहां समझ में ही नहीं आता है कि कौन किसके साथ है. बेटा में अनिल कपूर अपनी मां की हर आज्ञा का पालन करने वाला बेटा बने थे, यहां समझ में ही नहीं आता है कि कौन किसका बेटा है. जब आप इस फ़िल्म को एक आम दर्शक की नज़र से देखेंगे तो पाएंगे कि ये फ़िल्म कहीं-कहीं बोरिंग है, कहीं महाबोरिंग है और बाकी जगहों पर कुछ भी आपके पल्ले नहीं पड़ रहा है. लेकिन फिर आपको अपने दिमाग की संकीर्णता को तजते हुए, शुद्ध मन के साथ इस पर दोबारा विमर्श करना चाहिए. ऐसा करने पर पाएंगे कि ये फ़िल्म एक बेजोड़ कलाकृति है. एक वक़्त था जब आइंस्टाइन को पागल कहा जाता था. एक वक़्त था जब फुन्सुख वांग्डू को सभी पागल कहते थे. गैलीलियो के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा. इस फ़िल्म से जुड़े लोगों को हम बड़ी आसानी से ख़ारिज कर देंगे. लेकिन कालांतर में ये फ़िल्म वो जगह पाएगी जहां कोई और फ़िल्म नहीं पहुंच सकी. रेस-3 को एक उदाहरण के तौर पर पेश किया जाएगा. सिर्फ़ देश में ही नहीं, बल्कि विदेश में भी. इस फ़िल्म को सभी को दिखाया जाएगा और उन्हें ये बताया जाएगा कि फ़िल्म बनाने के पैसे हो तो क्या-क्या न करें. कहानी कैसी न लिखें, ऐक्टिंग (अगर करें तो) कैसी न करें, गाने कौन न लिखे, गाने कैसे न बनें, इस फ़िल्म में सब कुछ है. ज्ञान का अनोखा भंडार. लोग कहते हैं कि गलतियों से सीखना चाहिए. लेकिन कितना अच्छा होगा कि आप खुद गलती कर उससे सीख लेने की बजाय किसी और की गलती से सीख लें. रेस -3 यहीं पूरे नंबर पाती है. ये फ़िल्म मानवता की मदद के लिए इंसानों का सबसे बड़ा कदम है. इसके लिए पूरी रेस टीम को बधाई. फ़िल्म में सलमान खान हैं, अनिल कपूर का चेहरा है, बॉबी देओल की नाकामयाबी है, साक़िब सलीम की फ़ेक कूलनेस और खराब टाइमिंग है, डेज़ी शाह की जांघें हैं और जैकलीन फर्नान्डीज़ की अंग्रेज़ी एक्सेंट में लिपटी बकवास हिंदी है. फ़िल्म में ऐक्टिंग एकदम वैसी ही है जैसी मेरी गर्लफ्रेंड है - फ़िलहाल दोनों का कोई अस्तित्व ही नहीं है. सभी के चेहरे वैसे हैं जैसी वो लड़की जो मुझे पसंद बहुत थी लेकिन ब्लॉक कर के चली गई - भावशून्य. म्यूज़िक मेरे फ्यूचर जैसा है - परेशान कर देने वाला. फ़िल्म की कहानी इसे देखने के बाद मेरी दिमागी हालत जैसी है - अस्थिर. अपनी सभी महानताओं के बावजूद, इस फ़िल्म के ख़िलाफ़ सरकार को एक कदम उठाना चाहिए. इस फ़िल्म को बैन तो नहीं किया जाना चाहिए क्यूंकि इसे फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन पर रोक लगाना समझा जाएगा. सरकार को एक डेटा तैयार करना चाहिए और जितने भी लोग - बच्चे, बूढ़े और जवान, इस फ़िल्म को देखने जाएं, उनके नाम सभी अस्पतालों को दे देने चाहिए जिससे ये सभी लोग भविष्य में कभी भी नेत्रदान न कर सकें. मैं नहीं चाहता कि वो आंखें जिन्होंने रेस-3 देख ली है, किसी और के पास भी जाएं.
फ़िल्म का संगीत बेजोड़ है. कुछ वक़्त पहले से ही इसे मधुर गीत इंटरनेट और रेडियो पर छाये हुए हैं. इसके गीतों में वो ताकत है जो मुर्दे को भी जिला के रख दे. और इसे भी मज़ाक न समझा जाए. हाल ही में (बीते बुधवार) लखनऊ के एक बड़े अस्पताल में कोमा में पड़ा मरीज़ पास रखे रेडियो पर रेस-3 का सलमान भाई का लिखा 'आय फाउंड लव' सुनकर अचानक आंखें खोल कर गीत सुनने लगा. वो उठा और उठकर रेडियो बंद कर आया. बिस्तर पर लेटा और फिर कोमा में चला गया. सुना गया है कि तानसेन जब राग छेड़ते थे तो हिरन उनके पास आकर बैठ जाते थे, बारिश होने लगती थी. लेकिन ऐसा कारनामा तो उनसे भी नहीं ही हुआ था. सलमान खान के कलमबद्ध दो गाने हैं - 'आय फाउंड लव' और 'सेल्फ़िश' पहले वाले की महानता के बारे में आगे कुछ भी कहना असंभव होगा. 'सेल्फ़िश' के बोल 'मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे..." जैसी बेसिर-पैर बातें लिखने वाले गुलज़ार को भी कॉम्प्लेक्स से भर दे. फ़िल्म के संगीत को ध्यान में रखते हुए ज़हन में एक ख्याल और आता है. इस फ़िल्म को बनाने में बहुत देर कर दी गई. बहुत-बहुत देर. ये फ़िल्म पहले बनती तो दुनिया और भी खूबसूरत होती. बहुत-बहुत पहले. 14 मार्च 1931 को रिलीज़ होने वाली पहली बोलने वाली फ़िल्म आलम-आरा से भी पहले. इस प्रकार हम सभी इसके गीतों से और महाभयानक डायलॉग्स से बच सकते थे. फ़िल्म हर उस चीज़ का एक बेजोड़ मिश्रण है जिससे किसी भी फ़िल्म को बेहद पकाऊ, उबाऊ, खिजाऊ और बकवास बनाया जा सकता है. एक परिवार जिसमें कोई सौतेला बेटा है, जुड़वां भाई-बहन हैं और एक रैंडम गाय (माता वाली गाय नहीं.) है. सबका बाप एक ही है. लेकिन कन्फ्यूज़न ऐसा है कि रेस-3 बन गई. रेस-4 की गुंजाइश बचा के रखी गई है. भगवान, अगर कहीं है तो, हमें रेस-4 से बचने की शक्ति दे. हे हिटलर, कहां हो तुम?

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