फिल्म: फास्टर फेणे | निर्देशक: आदित्य सरपोतदार | कलाकार: अमेय वाघ, गिरीश कुलकर्णी, दिलीप प्रभावळकर, सिद्धार्थ जाधव, पर्ण पेठे, शुभम मोरे | अवधि: 2 घंटे, 10 मिनट
जैसा कि हम अक्सर कहते आए हैं कि मराठी सिनेमा प्रयोगों के स्तर पर देशभर में अग्रणी है. जैसे कोई मशाल थामे आगे-आगे चल रहा हो. चाहे वो अछूते विषय चुनना हो या किसी साहित्यिक कृति को परदे पर उतारना हो. ऐसे में दशकों पहले बेहद पॉपुलर रही किसी जासूसी सीरीज़ पर जब फिल्म बनती है, तो उसे मिस करने का कोई सेंस नहीं होता. 'फास्टर फेणे' प्रयोगों के उपक्रम को थोड़ा आगे ही बढाती फिल्म है. बताते हैं आपको कि हमको कैसी लगी.
कहां से आया है फास्टर फेणे?

बनेश फेणे उर्फ़ फास्टर फेणे मशहूर-ओ-मारुफ़ मराठी साहित्यकार भास्कर रामचंद्र भागवत के कलम की उपज है. एक किशोर जासूस, जिसके अंदर ऐसा बिल्ट इन एंटेना है जो मुसीबत को अपनी ओर खींचता है. जिसे अनुत्तरित सवाल परेशान करते हैं. और जो किसी रहस्य से परदा उठाने का चांस मिलने की संभावना भर से उत्तेजित हो जाता है. सत्तर के दशक के महाराष्ट्र में फेणे सीरीज़ बेइंतहा मशहूर थी. इतनी ज़्यादा कि उसे इंडिया का टिनटिन कहा गया. जिस तरह शेरलॉक होम्स के दीवाने उसके काल्पनिक पते 221-बी, बेकर स्ट्रीट पर ख़त भेजते थे, उसी तरह फेणे के कद्रदान पुणे के पास फुरसुंगी नाम के कस्बे में फेणे का घर खोजते हुए जा पहुंचते थे.
फिल्म में क्या है?
बताते चलें कि सीरीज़ से महज़ किरदार लिया गया है. सेटअप थोड़ा चेंज है. बनेश फेणे अब निक्कर में जासूसी नहीं करता. डिज़ाइनर कपड़े पहनता है. टीन एज की ऊपरी सीमा को छू रहा है. मेडिकल के लिए एंट्रंस एग्ज़ाम देने पुणे आया है. एग्ज़ाम के दौरान ही एक लड़के धनेश से वक्ती दोस्ती हो जाती है. दूसरे दिन पुणे से घर लौटती बस में बैठे फेणे को उसी लड़के की तस्वीर अखबार से अपनी तरफ झांकती नज़र आती है. इस सुर्खी के साथ कि धनेश ने फेल होने के डर से आत्महत्या कर ली. तुरंत 3 विसंगतियां फेणे का तेज़ दिमाग पकड़ लेता है.1) धनेश जब मिला था तो बहुत ख़ुश था. तीन घंटे बाद ही आत्महत्या कैसे कर सकता था? 2) 200 में से 195 नंबर लाने का जिसका दावा हो, उसे फेल होने का डर कैसे सता सकता है? 3) लेफ्टी लड़का अपने बाएं हाथ की कलाई काट ले ये असंभव भले ही न हो, लॉजिकल नहीं है.फिर क्या! बस रुकवाकर फास्टर फेणे उर्फ़ FF चल पड़ते हैं मिस्ट्री का हल ढूंढने. मामले की तह तक जाते-जाते सामने आता है कि धनेश की आत्महत्या/मर्डर तो आइसबर्ग की नोक भर है. नीचे पूरा पहाड़ दफ़न है. सडांध मारता एजुकेशन सिस्टम परत दर परत एक्सपोज़ होता जाता है. पूरी कहानी बता देंगे तो आपका मज़ा मारा जाएगा.

फिल्म से एक एक्शन सीन.
अदाकारी का जलवा
अमेय वाघ फास्टर फेणे के किरदार में ऐसे फिट हैं जैसे हाथ में दस्ताना. एक तेज़ और लॉजिकल दिमाग खोपड़ी में रखनेवाले टीन एजर की भूमिका में वो मस्त जंचे हैं. फिल्म के ओपनिंग सीक्वेंस में ही जब अमेय का चेहरा पहली बार परदे पर आता है, उसकी आंखों की चमक आपको मोह लेती है. दर्शक और उसमें एक इंस्टेंट कनेक्शन स्थापित हो जाता है. उत्साह से भरे युवा को उन्होंने बेहतरीन तरीके से परदे पर उतारा है.
अमेय वाघ परफेक्ट चॉइस है इस रोल के लिए.
वेटरन एक्टर दिलीप प्रभावळकर तो पानी की तरह हैं. जिस बरतन में डालो उसी का आकार ले लेते हैं. कुछ भी फेंक दो उनकी तरफ वो उसे सोना कर देंगे. यहां भी वो फेणे के गाइड कम मुहाफ़िज़ कम आश्रयदाता की भूमिका में कतई फिट हैं. उनके छोटे-छोटे पंच भयानक तनावपूर्व माहौल में भी ठहाके लगवाते हैं.

दिलीप प्रभावळकर तो एक्टिंग की दुनिया के कोहिनूर रहे हैं हमेशा से.
सिद्धार्थ जाधव अब मराठी कॉमेडी में बड़ा नाम बन गए हैं. इस फिल्म में भी उनका निभाया 'अंबादास' मज़ेदार है. रिवर्स में ऑटो चलाने का शौक़ीन ऑटोवाला. जिसे हर काम उल्टी तरह करने की आदत है. इसीलिए जब सस्पेक्ट की शिनाख्त के लिए लैपटॉप पर तस्वीरें देखनी होती है, तो ये सिंपल काम वो ढंग से तभी कर पाता है जब कुर्सी उल्टी करके अपने कंधों पर से स्क्रीन देखता है.
तमाम कलाकार फिट हैं लेकिन शो तो 'अप्पा' ने चुरा लिया है. मैंने पहले भी लिखा है कि गिरीश कुलकर्णी मराठी सिनेमा में आई हुई क्रांति हैं. ये आदमी परदे पर कुछ भी कर सकता है. इसे किसी देहाती किसान का रोल दे दो, ये किसान के अलावा कुछ नहीं लगेगा. इसे विलेन बना दो, ये आपको भय से भर देगा. हिंदी सिनेमा के दर्शकों को अनुराग कश्यप की 'अग्ली' का इंस्पेक्टर जाधव तो याद ही होगा. 'फास्टर फेणे' में एक शिक्षा के दलाल को उन्होंने निभाया नहीं, जिया है. कभी शांत बहती नदी तो कभी रौद्र समंदर की तरह उनके एक्सप्रेशंस शिफ्ट होते रहते हैं. वो डराते भी हैं और हंसाते भी. उनके लिए इसी फिल्म से उन्हीं का बोला एक डायलॉग फिट है कि 'आपका परिचय आप नहीं, आपका काम दे तो बेहतर'. कहने को तो फिल्म के हीरो अमेय हैं लेकिन पूरी फिल्म पर गिरीश हावी हैं.

गिरीश कुलकर्णी अभिनय की चलती फिरती पाठशाला जैसे हैं.
कुछ कमियां भी देख लें!
फिल्म बहुत अच्छी है लेकिन कुछेक कमियां खटकती हैं. जैसे कि बनेश फेणे की साउथ के हीरो जैसी हरकतें. एक किशोर जासूस आधा दर्जन गुंडों से फाईट करता, पुलिस ऑफिसर को हड़काता या राउडी राठौड़ जैसे डायलॉग मारता अच्छा नहीं लगता. इससे बचा जाना चाहिए था. गुंडों की फ़ौज को ललकारता और तालियां बजवाने वाले संवाद बोलता फेणे स्क्रीन पर अच्छा तो लगता है लेकिन लॉजिकल नहीं लगता. ये अतिनाटकीयता जॉय को किल करने का काम करती है.
ऊपर से ये बात भी गले नहीं उतरती कि जिस स्कैम में बड़ी-बड़ी हस्तियां शामिल हैं, उसकी कब्र खोदने से फेणे को रोकने की कोई संजीदा कोशिश करता दिखाई नहीं देता. जिस राज़ का पर्दाफाश होने से प्रभावशाली लोगों की गर्दनें नप जानी हैं, उसकी तहकीकात करते फेणे को छुट्टा घूमने दिया जाता है. ये बात कुछ हज़म नहीं होती. फिल्म का सस्पेंस पक्ष भी कमज़ोर है. एक वक़्त के बाद दर्शक भांप लेता है कि क्या हुआ होगा! सही कहा जाए तो ये whodunit (who done it) से ज़्यादा Why did it वाली फिल्म है.
फिल्म का एक उजला पहलू है पुणे शहर की ख़ूबसूरती का ख़ूबसूरती से फिल्मांकन. पहली बार किसी फिल्म में पुणे का एरियल व्यू दिखाया गया है. इस शहर में रहते या रह चुके (मुझ जैसे) लोगों के लिए ये और भी लुभावना नज़ारा लगता है. एक जगह जब 'पुणेरी' दुकानदार अमेय की ग्राहक बनने की संभावना ख़त्म होनेपर बातचीत के बीच में ही फोन काट देता है तो अमेय कहता है, "अब जा के यकीन हुआ कि मैं पुणे में हूं." ये बात उस शहर का परिचयपत्र है. ऐसी छोटी-मोटी दर्जनों बातें हैं जो फिल्म को मज़ेदार बनाती है. फिल्म की एडिटिंग भी चुस्त है. गाने नहीं हैं ये राहत की बात है.

फिल्म में पुणे शहर को बेहद ख़ूबसूरती से फिल्माया गया है.
कमियों को व्यावसायिक मजबूरियां मानते हुए नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो फिल्म बहुत उम्दा है. थ्रिलर फिल्म के शौक़ीन लोगों को तो ज़रूर देखनी चाहिए. तेज़ रफ़्तार कथानक के साथ उम्दा एक्टिंग का कॉम्बिनेशन रेयर ही देखने को मिलता है. गैर-मराठी दर्शकों के लिए सबटाइटल्स का जुगाड़ है. किताबों से निकलकर सिल्वरस्क्रीन तक पहुंचा फास्टर फेणे यकीनन तवज्जो के लायक है.
फिल्म का ट्रेलर देखिए:
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