अज़हर की ताबीज़ दिखती है, अज़हर नहीं दिखता
फ़िल्म अज़हर. आज रिलीज़ हुई है. फ़िल्म रिव्यू.
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फोटो - thelallantop
इंडियन क्रिकेट प्लेयर. पहले तीन टेस्ट में तीन सेंचुरी. टीम का पूर्व कप्तान. अपने सौंवें टेस्ट के नंगीचे है. 99वें मैच में सेंचुरी मारता है और उसे टीम से निकाल दिया जाता है. उसपर मैच फ़िक्सिंग का इल्ज़ाम लगता है और वो कभी टीम के लिए नहीं खेल पाता. मिलती हैं लानतें. लगता है बेईमानी का इल्ज़ाम. दुनिया गालियां देती है. उसकी ज़िद है खुद को बेगुनाह साबित करने की. खुद को लोगों की नज़रों में फिर से उठाने का. सालों बाद इसपर एक फ़िल्म बनी. आज रिलीज़ हुई. फ़िल्म अज़हर. अज़हर जैसा कुछ भी नहीं. अच्छी बात ये है कि फ़िल्म की शुरुआत में बता दिया जाता है कि सब कुछ एक ड्रामा है. फ़िल्म बायोपिक नहीं है. एक जगह पर ऐसा ज़रूर लगता है कि सचमुच मनोज प्रभाकर मैदान में उतर गया है. बॉलीवुड में अचानक ही स्पोर्ट्स पर फिल्में बनाने का ट्रेंड शुरू हुआ है.कभी इसे एक बहुत बड़ा अपशकुन कहा जाता था. सभी फिल्मों को देशभक्ति के बेसन में लपेट के उनका पकोड़ा बनाया जा रहा है. इस फ़िल्म में भी कमोबेश यही देखने को मिलता है. क्रिकेट वाले अज़हर की बजाय क्रिकेट के बाहर के अज़हर को तरजीह दो गयी है. उन्हें इश्क़ फ़रमाते हुए और गाने गाते हुए दिखाया है. न जाने क्यूं, जंचता ही नहीं है. अफ़्रीदी को 'थोड़ा टाइम देके डाल न बड़े भाई.' बोलने वाला अज़हर पूरी फ़िल्म में सभी को बड़े भाई बोलता मिलता है. कॉलर खड़ा रहता है, बल्ले पे स्पॉन्सर भी वही पुराने ज़माने का, लेकिन वो लेग ग्लांस नहीं मिलती. बैकफ़ुट पंच और कवर ड्राइव्स नहीं दिखतीं. दिखता है तो एक प्रयास, अज़हर को हीरो न सही अपने खेल के प्रति वफ़ादार खिलाड़ी साबित करने का. प्रयास असफ़ल है. कहानी में लाया गया 'ट्विस्ट' असल में बहुत फ़िल्मी और अपाच्य मालूम देता है. वो 'ट्विस्ट' जो अज़हर को बाइज़्ज़त बरी कर देना चाहता है. फिल्म में अज़हर के रोल में इमरान कहीं भी फिट नहीं बैठते हैं. एक बड़ा मिस-मैच है. जिसकी फ़ील्डिंग और बैटिंग के कायल मेरे पापा हैं, उसको फ़िल्मी डायलाग बोलते देखना बहुत ही अजीब लगता है. क्रिकेटर ऐसे नहीं रहता. ये सब कुछ फिल्म को फिल्म बनाने के लिए किया गया है. ऐसे में अज़हर की आत्मा को पहले ही किनारे रख दिया गया. ये अज़हर फ़िल्मी है. क्रिकेट से उसका उतना ही वास्ता है जितना इमरान हाशमी का. फ़िल्म देखते वक़्त एक रिमोट दिया जाना चाहिए. अज़हर को गाते देखा नहीं जाता. बॉलीवुड की साढ़े-तीन मिनट के रोमांटिक गाने की परम्परा को बखूबी कायम रखा गया है. साथ ही फ़िल्म में क्रिकेट के साथ किसी भी तरह का जस्टिस नहीं हो सका है. एक फिल्म सीरीज़ है - गोल. डैनी कैनन की बनाई हुई. सैंटिएगो म्यूनेज़ के फुटबॉल कैरियर की कहानी बताती हुई. फिल्म में फुटबॉल के खेल, और उसके आस-पास की चीज़ों को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है. एकदम वैसा जैसा फुटबॉल मैच देखते वक़्त होता है. वहीं अज़हर में क्रिकेट, क्रिकेट का मैदान, प्लेयर्स, सब कुछ आउट ऑफ़ प्लेस मिलते हैं. हालांकि फिल्म हॉकी पर बेस थी लेकिन इन्हें फ़िल्म चक-दे से कुछ सीख लेनी चाहिए थीं. सफ़ेद हेलमेट, गले में लटकी, बाहर झांकती ताबीज़, इसके सिवा अज़हर फ़िल्म में अज़हर जैसा कुछ भी नहीं है. है तो अज़हरुद्दीन को दुनिया की आंखों में फिर से उठाने का एक बुरा प्रयास. न जाने क्यूं टोनी डिसूज़ा ने इतना कुछ कर डाला. https://www.youtube.com/watch?v=YGf8j9Fxn4w
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