मैं सच बताऊं, नेशनल टीम तक पहुंचने से ठीक पहले, हर कोई अपने-अपने लिए खेल रहा होता है. वहां तक हर किसी का बस एक ही ध्येय होता है - सेलेक्शन और आगे अगले स्टेप पर पहुंचना. और ये तब तक चलता है जब तक जर्सी पर टीम इंडिया न लिख जाए. खैर, इसे जाने देते हैं. बेटों से वंचित एक बाप अपनी लड़कियों को कुश्ती में झोंक देता है. उसे अचानक ये अहसास होता है कि कुश्ती सिर्फ लड़कों का नहीं लड़कियों का भी खेल है और वो उन्हें रोज़ सुबह 5 बजे दौड़ाने लगता है. उनसे कसरत करवाता है. और न जाने क्या क्या. फ़ातिमा सना शेख़ यानी गीता फोगट. और सान्या मल्होत्रा यानी बबीता कुमारी.

लड़कियां असल में ये करना नहीं चाहतीं. मगर उन्हें ये करना होता है. मजबूरी है. बापू गुस्सैल जो है. इतना तक तो सब कुछ ट्रेलर में दिख गया है. इसलिए अभी तक कुछ भी स्पॉइलर की श्रेणी में नहीं आया है. चूंकि कहानी बाप के बारे में है, बाप की बात करते हैं.
आमिर खान. कुछ मिनटों के लिए टाइट बॉडी में दिखते हैं. बाकी टाइम मोटी देह में. एक आम हरयाणवी बाप जिसने कभी पहलवानी की थी. महाबीर एक बेहद आम बाप है. उसे सारा ग्राम जानता है मगर वो फिर भी आम है. उसमें पहलवानों वाला अहंकार नहीं है. मगर हां, चैलेन्ज पर पीछे नहीं हटता. वो एक छोटे गांव का आम सा बाप है. यही उसकी ताकत है. और कमजोरी भी.
ताकत यूं कि एक आम बाप बड़ी ही जल्दी अपने बच्चों से अलग हो जाता है. बात अजीब ज़रूर लगती है, मगर यूं ही होता है. उस बाप पर प्रेशर होता है. घर चलाने का. उसकी नौकरी बचाने का. बच्चे को भूखे पेट न सोने देने का. आस पास की बातों को सुनने का और जितना हो सके उन्हें इग्नोर करते रहने का. कमजोरी ऐसे कि उनकी मजबूरी होती है बच्चों से प्यार करते रहना. उनसे दूर रहकर.
छोटे शहरों के मां-बाप सदियां गुज़र जाती हैं और अपने बच्चों को गले नहीं लगाते. उनमें वो फीलिंग ही नहीं होती. एक झिझक होती है. संकोच होता है. बहुत खुश हुए तो कुछ अच्छा खिला दिया. या बाज़ार से कुछ ले आये. वहां बाज़ार से कुछ ला दिया जाना इस बात का सूचक होता है कि देखो तुमने इतना अच्छा काम किया जो ये लाना पड़ा. बस. हो गया. पीठ पर एक थपकी, मुंह से निकला हुआ 'शाबाश!' वगैरह कुछ नहीं. और इसी के साथ अगले मौके पर अपने बच्चों के साथ एकदम निर्मम व्यवहार. मुझे याद है कि मैंने कई बार अपने पापा से इस कदर मार खाई है कि सोचता था, ये मुझे कहीं से उठा के तो नहीं लाये हैं. उस वक़्त मेरे मैथ्स में लाये नंबर उन्हें इस कदर कम लगते थे कि वो शायद मेरी जान से ज़्यादा कीमती लगने लगते थे. पढ़ाते हुए डांट-मार ऐसी जगहों पर एक बहुत ही आम बात है. और यही महाबीर फोगट के साथ भी है. बस वो पढ़ने के लिए नहीं खेलने के लिए डांटता था. अपनी बेटियों को दौड़ाता था.
ऐसे बापों में एक खुद्दारी होती है. एक मालिकाना हक़ वाली फीलिंग होती है. वो खुद को अपने बच्चों के मालिक समझ बैठते हैं. मैं कहता हूं कि अच्छा था जो गीता और बबीता लड़कियां थीं. कम से कम जब तक उन्होंने दो लड़कों को पीटा नहीं था तब तक महाबीर को उन्हें पहलवान बनाने का ख्वाब न आया. महाबीर को पहले ही लड़का होता तो शायद उसे चलने के बजाय सीधे दंड पेलना सिखाया जाता. फिर एक बात की गारंटी रहती, लड़का पहलवान के सिवा कुछ और न बन पाता. पहलवान बन पाता या नहीं, कहा नहीं जा सकता. गीता और बबीता का भी यही हाल रहा. उन्हें चूड़ियां पहनना, लम्बे बाल रखना, बिंदी लगाना पसंद था. मगर उनके बाप को मेडल लाना था. 'देश के लिए'. सो बाल कटवा दिए. चूड़ियां पहनने की नौबत ही न आने दी. हर आम बाप का यही होता है. बच्चों को वाहन चालक बना देते हैं. वो वाहन जो खुद वो ताउम्र ढोते रहे. गीता और बबीता ने खूब ढोया. इसके लिए महाबीर को बधाई. उन्होंने ही कम मेहनत न की. लेकिन हज़ारों गीतायें अब भी किसी फ़ील्ड में मेडल के चक्कर में वो खो रही हैं जहां वो नंबर वन हो सकती हैं. या होना चाहती हैं.
ये बाप क्रूर होते हैं. एकदम निष्ठुर. जो अपने बच्चे को सोते हुए देख उसके पैर दबाने चले आयेंगे. मगर उसके सामने पत्थर के बने रहेंगे. हंसी मज़ाक तो बहुत ही ज़्यादा दूर की बात रहती है. एकदम आर्मी वाला माहौल जहां तेज़ आवाज़ में बात करना मतलब कोर्ट मार्शल. बहस और जिरह की कोई जगह नहीं. पर्सनल ओपिनियन इमरजेंसी के दिनों की याद दिलाती है. और इसी माहौल से उठकर आईं गीता फोगट और बबीता फोगट. ऐसे बाप जब दिल्ली-मुंबई अपने बेटे के पास आते हैं तो बेटा उनके साथ बाहर घूमने में झिझकता है. उसे आस पास हाथ पकड़े लोग दिखते हैं. उसे दिखते हैं वो लोग जो दिखते ही गले मिलते हैं. जो एक दूसरे को बताते हैं कि वो उन्हें कितना पसंद करते हैं. और ऐसे में साथ में बाप हो तो एक बेहद ऑकवर्ड सिचुएशन हो जाती है. क्यूंकि उसे उनकी हथेली की गर्माहट हमेशा गालों पर महसूस हुई थी. पीठ या सर पर नहीं.
आगे जो है वो घणा स्पॉइलर है. अपने हिसाब से पढ़ें.
फिल्म में एक सीक्वेंस है जहां सब कुछ बहुत ही इंटेंस हो जाता है. गीता अभी अभी नेशनल स्पोर्ट्स एकेडमी से नयी तरकीबें सीख कर आई है और अपने गांव के अखाड़े में बाप के सामने लोगों को समझा रही है कि कैसे उन्हें पुराने दांव छोड़ नए पेंच सीखने चाहिए. महाबीर नाराज़ हो जाता है. उसे ये अखरता है क्यूंकि गीता उसी के सिखाये दांव-पेंचों के साथ नेशनल चैंपियन बनी थी. और तभी वो नेशनल स्पोर्ट्स एकेडमी जा पायी थी. आज वही गीता उसकी ही टेक्नीक को ग़लत सिद्ध करना चाह रही थी. और यही होता है मल्ल युद्ध. बाप-बेटी के बीच.
यहां एक पल को बाप का अहंकार दिखता है. उसकी खुद्दारी और उसकी क्रूरता एक कॉकटेल बनाते हैं. वो कॉकटेल जो अभी-अभी घर से बाहर की दुनिया देखने वाली गीता को सुहाता नहीं है. वो अपने बाप को उठा के पटक देती है. महाबीर को मालूम चलता है कि उसकी बच्ची कितनी धाकड़ थी. दोनों के बीच खटास शुरू हो जाती है जो एक शाम फ़ोन कॉल पर मिटती है. बाप और बेटी का फ़ोन पर रोना शायद फिल्म का सबसे इमोशनल हिस्सा था.
झगड़ों पर छोटे शहर के लोग आपस में बात नहीं करते. उनके रिश्ते नाते हाईबरनेशन पर चले जाते हैं.
बाप अपनी गद्दी चाहता है. वापस. वो जो उस दिन अखाड़े में छिन गयी थी. और उसके लिए वो अपने बेहद लिमिटेड प्यार से गीता को वंचित रखता है. सो गीता रिऐक्ट करती है. वो रोती है. पापा को सॉरी कहती है. पापा मान जाते हैं. वो तैयार बैठे थे. छोटे शहरों से आने वाला एक आम पापा दुकान में लगे रिबन जैसा होता है. कोई स्पेशल हाथ उसे काटता है और फिर खरीदारी शुरू हो जाती है. वैसे ही महाबीर बस फ़ोन के इंतज़ार में बैठे थे.
दोनों फिर एक होते हैं. और फ़िल्म एक हैप्पी एंडिंग की ओर चलती है.
फिल्म इंस्पायरिंग है. एक अच्छी कहानी है. लोगों को काफी कुछ सीखने को मिलेगा. ऐसी जगह से जहां बेटियों को चूल्हे चौके के लिए ही बचा के रखते हैं, एक कहानी का निकलना जिसमें दो लड़कियां दुनिया जीतती दिख रही हों, काफी पॉज़िटिव वाइब्स देता है. आप आशा से भर जाते हैं. और ये सोचने लगते हैं कि और भी बच्चियां इससे इंस्पायर होकर कुछ करेंगी. करती भी हैं. बिना शक. बस चूक वहां निकल जाती है जहां एक बाप अपने सपनों का बोझ अपने बच्चों पर डाल देता है. मगर ठीक है. ये एक कहानी है. जो सच्ची है. इसलिए जैसा हुआ, दिखाया गया.
अंत में कुछ हिस्से हैं जो अपचनीय है. जन गण मन का बजना और उसके ख़त्म होते ही एक छोटी बच्ची का 'भारत माता की जय' चीखना बनावटी लगता है. मालूम नहीं कि ये बनावट आज कल के माहौल की वजह से ऐसा है या सच-मुच लोग ऐसे ही हैं. फिल्म में जिस चीज की वाकई तारीफ़ करनी होगी, वो है लड़कियों की खेली फाइट्स. ये उन कम अवसरों में से है जब कोई खेल वैसा का वैसा ही स्क्रीन पर दिखा है जैसा वो असल में होता है. इसके लिए फ़ातिमा सना शेख के नाम का एक पत्थर गीता फोगट के गांव में गाड़ देना चाहिए. कुश्ती के सभी सीक्वेन्स के दौरान आप कुर्सी पर उछलते रहेंगे. ताली पीटने से खुद को रोक न पाएंगे. और कठिन सिचुएशंस में अपने पैर की अंगुलियां मोड़ रहे होंगे. रेस्लिंग सीक्वेनसेज़ वाकई बहुत कमाल के हैं. उसके लिए जो भी ज़िम्मेदार है, उसे बधाई. आमिर खान ने अपने शरीर के साथ जो भी किया है, वो भी कमाल है.
कुल मिलाके, दंगल फिल्म देखी जाए. कैश नहीं हो तो पेटीएम से बुक करवाइए. मगर जाइए. अच्छी फिल्म है. लोगों तक पहुंचे तो उनके लिए ही बेहतर. बहुत कुछ सिखाएगी. बहुत कुछ सुनाएगी.
https://www.youtube.com/watch?v=wSCfB4ZlE9E
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