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श्याम बेनेगल: भारत में आर्ट सिनेमा की इमारत खड़ी करने वाला बेमिसाल डायरेक्टर

अपने करियर में Ankur, Nishant, Manthan, Mandi और Bhumika जैसी फिल्में बनाने वाले Shyam Benegal का 90 साल की उम्र में देहांत.

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श्याम बेनेगल को भारत में आर्ट उर्फ पैरलेल सिनेमा का अगुवा माना जाता था.

नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल, ओम पुरी, अमरीश पुरी, मोहन अगाशे, ईला अरुण

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इन मंझे हुए कलाकारों में थिएटर से जुड़े होने के अलावा और क्या कॉमन है? वो ये कि ये सब श्याम बेनेगल की खोज हैं और इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत श्याम बेनेगल के साथ की. श्याम बेनेगल. एक बहुत बड़ा डायरेक्टर. 70 के दशक में न्यू वेव सिनेमा का अगुआ. इस सिनेमा को अलग-अलग नाम लेकर लोग पुकारते हैं. कोई पैरेलल सिनेमा कहता है, कोई आर्ट सिनेमा. श्याम बेनेगल इसे ऑल्टरनेटिव सिनेमा कहते हैं. मेनस्ट्रीम का ऑल्टरनेट. उन श्याम बेनेगल का 23 दिसंबर की शाम 06: 38 बजे  मुंबई के वॉकहार्ट हॉस्पिटल में उनका निधन हो गया. वो 90 साल के थे. वो अपनी पत्नी नीरा बेनेगल और बिटिया पिया बेनेगल के साथ रहते थे. उनकी बिटिया पिया ने मीडिया को बताया कि वो क्रोनिक किडनी डिजीज़ से जूझ रहे थे.

इस सिनेमा का दौर 70 और 80 के दशक में आया. वो दौर जब मेनस्ट्रीम परदे पर अमिताभ बच्चन एंग्री यंग मैन बन के उभरे. वो दौर जिसमें गरीबी, बेरोजगारी, शोषण नए विलेन थे. इन फिल्मों का हीरो इन्हीं सबसे होकर निकलता था. धांसू डायलॉग मारता था. गुंडों को पीटता था. पब्लिक के अहम को संतुष्टि मिलती थी. वो ताली मारती थी. सीटियां बजाती थी. सिंगल स्क्रीन थिएटर में लाठियां चटकती थीं. टिकट ब्लैक होते थे. पब्लिक को 'ये तो अपने बीच का आदमी है' वाली फीलिंग आती थी. कम्युनिज्म का प्रभाव तब ज्यादा था.

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तभी श्याम बेनेगल आए. कम बजट की यथार्थवादी फिल्मों के साथ. जिसमें कोई हीरो नहीं होता था. गरीबी, शोषण, वर्ग संघर्ष उनकी फिल्मों में विलेन तो थे पर कोई इनसे गुज़रकर परदे का नायक नहीं बनता था. अंकुर (1973) की लक्ष्मी (शबाना आज़मी) अंत तक नायिका बन कर उभर नहीं पाती. उसका विद्रोह अंत में सामन्ती व्यवस्था के खिलाफ गूंज रही चीखों तक ही सिमट जाता है. ये गूंजें ही श्याम बेनेगल की फिल्मों की पहचान हैं. बची रह गईं अनसुनी अनुगूंजें. 

ये सच्चाई सिर्फ उस दौर की नहीं हर दौर की व्यवस्था की है. 'आज भी प्रासंगिक' वाली बात बहुत घिस चुकी है, क्योंकि चीजें बहुत तेजी से ना बदल रही हों या अचानक ना बदल जाएं, तो सब कुछ हर वक्त प्रासंगिक रहता है.

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फिल्म ‘मंथन’ के सेट पर क्रू के अन्य सदस्यों के साथ श्याम बेनेगल (सबसे दाहिने)

1975 में आई श्याम बेनेगल की फिल्म निशांत की सुशीला (फिर से शबाना आज़मी) जमींदारों के चंगुल में फंसकर अंत में अपनी स्थिति को स्वीकार कर लेती है. नायिका नहीं बन पाती. 80 का दशक आते-आते उनकी कोई भी फिल्म उठाकर देखिए, ये फिल्में किसी व्यक्ति को हीरो या विलेन नहीं बनातीं. उनकी फिल्मों में सब कुछ समग्र में है. टूटा हुआ नहीं है. कुछ भी एक दूसरे से जुदा नहीं है इसलिए किसी एक के कंधे पर सब कुछ नहीं डाला जा सकता. उनकी फिल्मों में व्यवस्था जिम्मेदार है. व्यक्ति अक्सर उसका शिकार है. चाहे वो फिल्म इंडस्ट्री की चकाचौंध के पीछे के अंधेरे में कहीं गायब हो रही भूमिका (1977) की उषा (स्मिता पाटिल) हो, या मंडी (1983) की वो महिलाएं जिनको समाज ना तो स्वीकार करता है ना अस्वीकार.

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कुछ स्कॉलर श्याम बेनेगल को कई दफे सत्यजीत रे के बाद दूसरा सबसे बड़ा डायरेक्टर मानते हैं. तुलना कोई बहुत अच्छी चीज तो नहीं है लेकिन ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, गिरीश कासरवल्ली, अडूर गोपालकृष्णन, अपर्णा सेन के मुकाबले सत्यजीत रे के बाद उन्हे दूसरे नंबर पर रखा जाए, तो भी ये बहुत चौंकने वाली बात नहीं है. उनकी पहली फिल्म 'अंकुर' आने से पहले भुवन शोम, उसकी रोटी, सारा आकाश जैसी फिल्में आ चुकी थीं, लकिन पैरेलल सिनेमा की असली शुरुआत तो 'अंकुर' से ही मानी जाती है. तब ज्यादा बजट नहीं होता था पैरेलेल सिनेमा वालों के पास. उन्हें नेशनल फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन (NFFC) से फाइनेंस के लिए मदद लेनी पड़ती थी. इसमें सरकारी मदद होती थी इसलिए सरकारें फिल्मों में अपना दखल भी रखती थीं. इसकी वजह से श्याम बाबू ने अपने मन का सिनेमा बनाने के लिए ब्लेज़ नाम से अलग एडवरटाइजिंग एजेंसी के साथ अंकुर, निशांत और भूमिका जैसी फिल्में बनाईं. अलग-अलग को-ऑपरेटिव संस्थाओं की मदद ली. इनकी मदद से उन्होंने आरोहन, सुसमन, अंतर्नाद जैसी फिल्में बनाईं.

मंथन के लिए तो गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन के ग्रामीण सदस्यों ने दो-दो रूपए बेनेगल को दिए थे. दस लाख के बजट में ये फिल्म बनी थी. बाद में वर्गीज कुरियन ने ये फिल्म देखकर कहा कि इसे तुम यूनाइटेड नेशंस में क्यों नहीं ले जाते. ये फिल्म यूएन के हेडक्वार्टर में दिखाई गई. बाद में इस फिल्म को रूस, चीन ने खरीदा. ये एक बहुत बड़ी मिसाल थी कि अगर गांव के लोग साथ आ जाएं तो क्या कर सकते हैं. ‘आक्रोश’, ‘तमस’ और ‘पार्टी’ जैसी फिल्मों के डायरेक्टर गोविंद निहलानी तब उनके सिनेमेटोग्राफर हुआ करते थे.

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‘मंथन’ को श्याम बेनेगल की सबसे शानदार फिल्मों में गिना जाता है.

श्याम बेनेगल सत्यजीत रे से बहुत प्रभावित रहे हैं. उनकी पाथेर पांचाली देखकर ही उन्होंने सोचा कि अब तो यही मेरी लाइफ है. उन्हें ताज्जुब हुआ कि इतना रियल सिनेमा भी बनाया जा सकता है. पहले पेंटर बनना चाहते थे लेकिन फिल्म बनाने का कीड़ा उनके अंदर था. पापा के प्रोफेशनल कैमरे से एक छोटी से फिल्म बनाई थी. कहीं फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं ली. किताबें और मैगजीन पढ़-पढ़कर फिल्में बनाना सीखा.
अपने साथ काम कर रहे एक्टर्स को जिस तरह वो ट्रीट करते हैं, उसकी कहानियां खुद उनके साथ काम करने वाले एक्टर्स बताते हैं.
अंकुर की शूटिंग हैदराबाद के पास एक छोटे से गांव में हुई थी. शबाना आज़मी गांव में कभी नहीं रही थीं. श्याम बेनेगल ने उनसे कहा कि तुम बस गांव के कॉस्टयूम में गांव भर में घूमा करो. परफेक्शन के लिए श्याम बेनेगल ने कहा कि तुम डायनिंग टेबल पर खाना नहीं खाओगी. तुम ज़मीन पर उकडू बैठ कर खाना खाया करो. शबाना को इसकी आदत नहीं थी लेकिन फिल्म में उनके किरदार को ज्यादातर समय उकडू ही बैठना था.

एक बार ऐसे ही शबाना बैठ कर खाना खा रही थीं. इतने में गांव के कुछ लड़के शूटिंग देखने आए. उन्होंने शबाना से पूछा, ''ए फिल्म की 'हेरोइन' किधर है?'' शबाना ने कहा कि वो बीमार है. लड़कों ने पूछा, ''तुम इधर क्या कर रही?'' शबाना ने कहा मैं शूटिंग देखने आई हूं. लड़कों ने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और वहां से चले गए. श्याम बेनेगल दूर से ये सब देख रहे थे. उन्होंने शबाना को बुलाया और कहा, ''आज के बाद तुम हमारे साथ डायनिंग टेबल पर खाना खा सकती हो. तुम सफल रही. तुमने उन लड़कों को भरोसा दिला दिया कि तुम गांव की ही कोई औरत हो.''

शबाना फिल्म के एक सीन को याद करती हैं, जिसमें उनका पति लौटकर आता है. शबाना का किरदार लक्ष्मी प्रेग्नेंट होती है और उसे चीखते हुए रोना था. इस सीन से पहले शबाना पूरी तरह ब्लैंक हो गईं. उनके अन्दर से भाव नहीं आ रहे थे. श्याम बेनेगल ने लंच ब्रेक लेने को कहा. इसके बाद श्याम बेनेगल ने उनसे सीन के अलावा बात करनी शुरू कीं. उन्होंने बांग्लादेश में पड़े एक अकाल में एक औरत की कहानी सुनाई. इसके बाद शबाना ने वो सीन इस तरह किया कि सत्यजीत रे को कहना पड़ा कि शबाना आज़मी देश की सबसे कुशल अभिनेत्रियों में से एक हैं. शबाना कहती हैं कि श्याम बेनेगल जिस तरह एक्टर्स को ट्रीट करते हैं, वो अद्भुत है.

वो बताती हैं कि अंकुर के दौरान डिनर के लिए सिर्फ 15 रूपए मिलते थे. रात का खाना एक छोटे से द्वारका होटल में होता था. तब साढ़े तीन रूपए की थाली मिल जाती थी. हमारे पास उड़ाने के लिए बहुत पैसा होता था. हम श्याम बेनेगल से कहते थे कि वो हमें कहीं ढंग के होटल ले चलें. तब वो हमें एक चाइनीज होटल में ले जाते थे. उस दिन हमारे पूरे पंद्रह रूपए बच जाते थे.
उनके साथ अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले नसीरुद्दीन शाह ने एक बार कहा था,

“श्याम बेनेगल ने मुझे इसलिए 'निशांत' में मौका दिया, क्योंकि मैं देखने में अच्छा नहीं था. उनके दिमाग में ये बात एकदम साफ़ रहती है कि उन्हें किस किरदार के लिए कौन सा एक्टर चाहिए. उन्हें पता होता है कि आपसे क्या चाहते हैं और अपने एक्टर्स पर पूरा भरोसा दिखाते हैं. वो हर एक्टर की क्षमता के हिसाब से ही उसके साथ व्यवहार करते है. वो कभी नहीं कहते कि तुम्हें क्या आता है, पहले करके दिखाओ. बहुत से डायरेक्टर को पता ही नहीं होता कि वो हमसे क्या चाहते हैं. कट, कट, कट बोल तो देते हैं लेकिन बाद में बता नहीं पाते कि इसे कैसे करना है. वो बस यही कहते हैं कि ऐसे नहीं करना है.”

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‘निशांत’ फिल्म के एक सीन में नसीर और स्मिता.

'जुनून', ‘सूरज का सातवां घोड़ा’, ‘त्रिकाल’, ‘मम्मो’, ‘सरदारी बेगम’ के बाद ‘जुबैदा’ (2001) के साथ बेनेगल मेनस्ट्रीम फिल्मों में भी आए. मेनस्ट्रीम फिल्मों में उनकी फिल्में कुछ ख़ास कमाल तो नहीं दिखा सकीं, लेकिन उन्होंने अपने स्टाइल को हमेशा कायम रखा. 'भारत एक खोज' जैसी बेमिसाल टीवी सीरीज बनाने वाले बेनेगल ने राज्य सभा टीवी के लिए 'संविधान' सीरियल बनाया.  ‘मुजीब- द मेकिंग ऑफ अ नेशन’ बतौर डायरेक्टर उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई. जो कि बांग्लादेशी के पहले प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान की बायोपिक थी. अपने 90वें जन्मदिन पर मीडिया के साथ बातचीत में श्याम बेनेगल ने बताया था कि वो दो-तीन फिल्मों पर काम कर रहे हैं. मगर वो उन फिल्मों को पूरा नहीं सके. 

ये स्टोरी निशांत ने की है.

वीडियो: नीना गुप्ता ने 'बिकाऊ चेहरों' की बात कर डायरेक्टर श्याम बेनेगल पर आरोप लगा दिए

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