2018 में अनुभव सिन्हा की एक फिल्म आई थी, ‘मुल्क’. फिल्म बात करती थी फर्क की, हम और वो वाले फर्क की. उसके अगले साल उनकी फिल्म ‘आर्टिकल 15’ आई. जहां आयुष्मान का किरदार फर्क मिटाने की बात करता है. अब उनकी नई फिल्म आई है, ‘अनेक’. जो फर्क को हाइलाइट करने की कोशिश करती है. फर्क नॉर्थ ईस्ट और बाकी इंडिया में. साथ ही विविधता ओढ़े भारत की परिभाषा ढूंढने की कोशिश करती है. ये कोशिश कितनी कामयाब होती है, आज के रिव्यू में उसी पर बात करेंगे.
मूवी रिव्यू: अनेक
‘अनेक’ चाहती है कि आप माइनॉरिटी को भी हम कहकर संबोधित करें, वो कर के नहीं. उनकी तकलीफों और स्ट्रगल के प्रति संवेदना रखें. माइनॉरिटी चाहे कश्मीर की हो या नॉर्थ ईस्ट की, फिल्म उनके स्ट्रगल्स को एक सांचे से दिखाना चाहती है.

फिल्म में आयुष्मान खुराना ने अमन नाम के एक अंडरकवर कॉप का रोल निभाया है. जिसे इंडिया के नॉर्थ ईस्ट रीजन में भेजा गया है. उसकी वजह है टाइगर सांगा, एक अलगाववादी ग्रुप का लीडर. भारतीय सरकार किसी भी तरह टाइगर सांगा के साथ शांति स्थापित करना चाहती है. ऐसे में अमन हालात कंट्रोल कर पाता है या नहीं, यहां से वहां जाकर क्या-कुछ देखता है, महसूस करता है, फिल्म हमें उसकी इसी जर्नी में हिस्सेदार बनाने की कोशिश करती है. जब ‘अनेक’ के पोस्टर आए थे, तब बोल्ड और बड़े फॉन्ट से NE को हाइलाइट किया गया था. तब ये कहा गया कि चूंकि कहानी नॉर्थ ईस्ट में घटती है, इसलिए NE को बड़ा रखा गया है.
फिल्म देखते वक्त ही इस NE के मायने समझ में आते हैं. फिल्म एक नॉर्थ इंडियन के चश्मे से हमें नॉर्थ ईस्ट की दुनिया दिखाती है. यही वजह है कि किरदारों की लोकेशन को कोई नाम नहीं दिया गया, किस राज्य में कहानी घट रही है, वो हमें पता नहीं चलता. बस हमारे कानों तक नॉर्थ ईस्ट शब्द आता रहता है. फिल्म के अलग-अलग सीन्स में गाड़ियां दिखती हैं, जिनकी नंबर प्लेट्स किसी राज्य को डिनोट नहीं करती. बस हर गाड़ी के नंबर प्लेट वाले हिस्से पर NE लिखा गया है. यहां दर्शाने की कोशिश की गई कि हम में अधिकतर लोग कैसे नॉर्थ ईस्ट रीजन को लेकर अवेयर नहीं, हमारे लिए सब एक जैसा है. इस बात को पुख्ता करने के लिए फिल्म में एक डायलॉग भी है. जहां एक किरदार कहता है,
अगर इंडिया के मैप पर स्टेट्स के नाम छुपा दो, तो कितने इंडियन हर स्टेट के नाम पर उंगली रख सकते हैं.
फिल्म कोशिश करती है कि हमें पूर्वाग्रहों से दूर नॉर्थ ईस्ट को अप, क्लोज़ एंड पर्सनल लेवल पर परिचय करवा पाए. उस प्रदेश की भाषा, प्राकृतिक सौंदर्य, वहां का कल्चर, सब से हम रूबरू हो पाएं. साथ ही रूबरू हो पाएं वहां के लोगों से, उनकी ज़िंदगियों से, और उस भेदभाव से जिसे हमने उनके लिए नॉर्मलाइज़ कर दिया है, उनके लिए ‘जस्ट अनदर डे’ बना दिया है. फिल्म अपनी इस कोशिश में कामयाब भी होती है और फेल भी. फिल्म में हर समय हिंदी डायलॉग इस्तेमाल नहीं किए गए हैं. नॉर्थ ईस्ट के एक्टर्स आपस में रीजनल भाषा में बात करते हैं. फिल्म में लोकल कल्चर से उपजे गाने सुनाई देते हैं, जो उस कल्चर के करीब ले जाने का काम करते हैं. ऊपर से इवान मुलीगन का कैमरा. ये वही शख्स हैं जो ‘आर्टिकल 15’ पर भी सिनेमैटोग्राफर थे. उनके कैमरा से शूट किया गया नॉर्थ ईस्ट देखकर लगता है कि हर फ्रेम बस ठहर जाए. खासतौर पर वाइड शॉट्स, जो पहाड़ों और वादियों को कैप्चर करने का काम करते हैं. इवान के सिग्नेचर स्टेडीकैम शॉट्स भी फिल्म में लगातार बने रहते हैं.
‘अनेक’ चाहती है कि आप माइनॉरिटी को भी हम कहकर संबोधित करें, वो कर के नहीं. उनकी तकलीफों और स्ट्रगल के प्रति संवेदना रखें. माइनॉरिटी चाहे कश्मीर की हो या नॉर्थ ईस्ट की, फिल्म उनके स्ट्रगल्स को एक सांचे से दिखाना चाहती है. फिल्म देखते वक्त आप कश्मीर और नॉर्थ ईस्ट में काफी सारे पैरलल ड्रॉ कर पाएंगे. जैसे एक सरकारी अफसर जब पहली बार नॉर्थ ईस्ट पहुंचता है, तो वही कहता है जो जहांगीर ने कश्मीर पहुंचकर कहा था,
गर फ़िरदौस बर रूए ज़मी अस्त, हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त.
आगे पता चलता है कि ये ऑफिसर कश्मीर का ही रहने वाला है. मैंने अपने रिव्यू में बार-बार फिल्म के साथ कोशिश शब्द इस्तेमाल किया है. ये फिल्म कोशिश करती है ये करने की, वो करने की. ये शब्द कोशिश से कामयाब होती में ट्रांस्लेट नहीं हो पाते. पॉलिटिकल नेचर की फिल्मों के साथ एक खतरा बना रहता है, कि मेकर्स लाइन ड्रॉ करना भूल जाते हैं. वो फिल्म की पॉलिटिक्स के साथ अपनी पॉलिटिक्स कितनी मिलने दे रहे हैं. हम सब हर चीज़ में पॉलिटिकल हैं, और इसमें कोई बुराई भी नहीं. एक हेल्दी डेमॉक्रेसी के लिए ओपीनियन का फर्क होना ज़रूरी है. लेकिन ‘अनेक’ के साथ समस्या ये है कि वो अपना मैसेज डिलीवर करने के चक्कर में अपना ओपीनियन थोपने लगती है. चाहे ये भले ही मेकर्स की मंशा न रही हो. पर स्क्रीन पर जब हर सीन सिर्फ फर्क और भेदभाव की बात करेगा, लंबे-लंबे नैरेशन आएंगे, तब मैसेज और रिसीवर के बीच खलल पड़ने लगता है.
‘अनेक’ आपको बहुत कुछ बताने और दिखाने की कोशिश करती है, लेकिन उसका कोई भी हिस्सा आपको छू नहीं पाता. यही फिल्म की सबसे बड़ी प्रॉब्लम है, कि आप उसकी कहानी, उसके किरदारों के साथ वो जुड़ाव महसूस नहीं कर पाते. फिल्म में आयुष्मान के किरदार अमन को सिर्फ अपने मिशन से मतलब था. उसकी चाल, उसके मैनरिज़म से लगेगा कि वो बस अपना काम कर के निकलना चाहता है. वहां की ग्राउंड रियलिटी जानने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं. लेकिन कुछ सीन्स बाद ही वो पूरी तरह बदल जाता है. अब वो देख पा रहा है कि लोगों के साथ क्या अन्याय हो रहा है, और कैसे शांति जैसे शब्द छल जैसे लगते हैं. उसका ये ट्रांज़िशन कभी समझ नहीं आता, कि इतना जल्दी हृदय परिवर्तन हुआ कैसे. जिन कुछ सीन्स के बाद ये बदलाव आया, वो भी ऐसे हार्ड हिटिंग नहीं थे कि अंदर कुछ बदलाव महसूस हो.
आयुष्मान, कुमुद मिश्रा, मनोज पाहवा और जेडी चक्रवर्ती के अलावा फिल्म की ज्यादातर कास्ट उसी हिस्से से थी, जहां की ये कहानी बताना चाह रही थी. नागालैंड की मॉडल एंड्रिया केवीचुसा ने ‘अनेक’ से अपना एक्टिंग डेब्यू किया है. उन्होंने ऐसा किरदार निभाया जिसने भेदभाव महसूस किया, गुस्सा अंदर रखा. लेकिन उस गुस्से को अलग तरह से चैनलाइज़ किया. डेब्यू के हिसाब से उनकी परफॉरमेंस अच्छी थी, हालांकि उनके हिस्से ऐसा कोई मेमोरेबल सीन नहीं आया.
फिल्म के कई मोमेंट्स करेंट पॉलिटिकल सिस्टम पर कमेंट्री करते हैं, जैसे ‘लोग इतिहास भूल जाते हैं, मूर्ति याद रखते हैं’. या एक कैरेक्टर कहता है कि हमला कर दो, फिर उस पर फिल्म बना देंगे. ‘अनेक’ पूरी तरह से खारिज करने वाली फिल्म नहीं मगर ये आज के वक्त की एक ज़रूरी फिल्म बन सकती थी, जो ये नहीं बन पाई.
वीडियो: फिल्म रिव्यू - कार्गो