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मनोज बाजपेयी की 'गुलमोहर', एक ट्रेजेडी पर हैप्पी एंडिंग का बोझ

एक तनावभरी शांति में डूबती-उतराती फ़िल्म तभी बनाई जा सकती है, जब फ़िल्मकार कुछ क्रिएट करने के लिए बज़िद हो, नोट छापने के लिए नहीं.

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शर्मिला टैगोर मनोज बाजपेयी के साथ

फ़रवरी-मार्च में दिल्ली की हवा तनिक नशीली हो उठती है. दिल्ली का वो हिस्सा और ख़ूबसूरत लगने लगता है जहाँ चौड़ी-चौड़ी सड़कों के दोनों ओर जामुन, नीम, अमलतास और गुलमोहर के पेड़ों की कतारें होती हैं. इस मौसम में पत्ते पीले पड़ने लगते हैं और पेड़ों से टूट-टूट कर दिन-रात झरते रहते हैं.

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मार्च के पत्तों वाली ये दिल्ली निर्मल वर्मा को बहुत पसंद थी. वो अपने गल्प के ज़रिए अक्सर पाठक की उंगली पकड़कर इसी दिल्ली की सुनसान सड़कों पर ले आते हैं. फ़िरोज़शाह रोड, मंडी हाउस, बाबर लेन, गॉल्फ़ लिंक्स, वसंत विहार जैसी पॉश जगहें, जहाँ बड़े-बड़े बंगलों के गेट अक्सर बंद मिलते हैं. उनके बाहर सिक्योरिटी गार्ड्स के लिए खोखे बने रहते हैं और चमचमाती कारें बाहर खड़ी मिलती हैं. क्या हमें पता होता है कि रईसों के इन बंगलों के भीतर कितना दु:ख, अवसाद, टूटन और अकेलापन पसरा रहता है?

निर्मल वर्मा को पढ़ने के बाद मैं कई बार बाबर लेन, मंडी हाउस, कर्ज़न रोड, मॉडर्न स्कूल के आसपास पैदल घूमते हुए 'एक चिथड़ा सुख' की बिट्टी को खोजता रहा हूं. यहीं कहीं किसी बरसाती में तो रहती होगी बिट्टी अपने कज़न के साथ. पर उसका कज़न तो उसे बिना बताए इलाहाबाद लौट चुका है. अब कितनी अकेली होगी वो. या डैरी के घर में शिफ़्ट तो नहीं हो गई? नित्ती भाई ने तो ख़ुदकुशी कर ली थी. निर्मल वर्मा के उपन्यासों के पात्र आपके आसपास भटकते रहते हैं. अपनी यातनाओं में साँस लेते हुए. अपने अकेलेपन से जूझते हुए.

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मनोज बाजपेयी और डायरेक्टर राहुल चित्तैला.

अब मैं मार्च के झरते पत्तों के बीच वसंत विहार के भीतरी, सुनसान इलाक़ों में भटकता हुआ 'गुलमोहर' के किरदारों को ढूँढना चाहता हूँ -- अरुण बत्रा, उनकी माँ कुसुम जी, सुधाकर, अमृता, दिव्या, इंदु, आदित्य, उनका छूटता हुआ बंगला और टूटता हुआ बत्रा परिवार. ये सभी राहुल चित्तैला की फ़िल्म 'गुलमोहर' के पात्र हैं. जिस तरह निर्मल वर्मा के किरदारों का अधूरापन ही उन्हें उनकी संपूर्णता में हमारे सामने रखता है, उसी तरह 'गुलमोहर' भी ऊपर से ख़ुशहाल दिखने वाले बत्रा परिवार के अधूरेपन की पूरी कहानी है.

बत्रा परिवार को मालूम है कि डैडी जी ने पूरे परिवार को एक साथ रखने के लिए बड़े अरमानों से जो बंगला बनाया था, अब वो छूटने वाला है. अगले दिन पैकर्स आएंगे, जो घर का पूरा सामान पैक करके ले जाएँगे. परिवार के लोग अलग-अलग जगहों पर फ़्लैटों में रहने चले जाएँगे. घर की मैट्रियार्क कुसुम जी दिल्ली और परिवार को पीछे छोड़कर किसी दूसरे शहर रहने चली जाएँगी. इसलिए उन्होंने आख़िरी मुलाक़ात के लिए एक शाम पूरे परिवार को बुलाया है.

साउथ दिल्ली के एक खाते-पीते पंजाबी परिवार की पार्टी के सीन से फ़िल्म शुरू होती है जिसमें शराबें पी जा रही हैं, ग़ज़लें गाई जा रही हैं, हंसी-ठिठोली हो रही है और आपसी नोंकझोंक चल रही है. और फिर आहिस्ता-आहिस्ता ख़ुशी की बाहरी परतें उतरती चली जाती हैं और उजागर होता है बत्रा परिवार के भीतर पसरा तनाव, नाराज़गी, कुंठाएं, जायदाद के झगड़े, विश्वासघात, निराशा और लैस्बियन रिश्तों का अनकहा स्वीकार.

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मनोज बाजपेयी ने अरुण बत्रा के किरदार में बहुत बारीक तरीक़े से अपना रंग भरा है. ये उन तमाम रंगों से अलग है जिसे आपने 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' के सरदार ख़ान में, 'सत्या' के भीखू म्हात्रे में या 'द फ़ैमिली मैन' के श्रीकांत तिवारी जैसे किरदारों में देखा था. 'गुलमोहर' में मनोज एक पंजाबी बिज़नेसमैन हैं जो अपने पूरे परिवार को एकजुट रखने की कोशिश करता है लेकिन उसे पता चलता है कि असल में वो बत्रा परिवार से कितना दूर है. दूसरी तरफ़ अरुण बत्रा का बेटा आदित्य है, जो घर छोड़कर अपनी बीवी के साथ अलग रहना चाहता है और अपने पिता से आज़ाद होकर अपने दम पर कुछ कर दिखाना चाहता है. घर की बुज़ुर्ग कुसुम जी के अपने निजी सीक्रेट्स हैं, जिन्हें वो एक मोड़ पर आकर अपनी पोती से शेयर करती हैं क्योंकि पोती की रिलेशनशिप से उन्हें अपना व्यतीत याद आ जाता है.

इस सबके बीच में उस बंगले की वसीयत है जो कहानी की तमाम परतों में एक और परत जोड़ देती है. इसके समानांतर घर के चौकीदार और नौकरानी के बीच एक प्रेम प्रसंग और उसके अपने द्वंद्व हैं. फिर सड़क पार एक चाय का ढाबा है जिसे एक अकेला बूढ़ा चलाता है. अरुण बत्रा के लिए सड़क पार करके इस चाय के ढाबे तक पहुंचना एक लंबी यात्रा की तरह है जो बार-बार अधूरी ही रह जाती है. लेकिन उसे इस दूरी को आख़िर में तय करना ही होता है. बूढ़े और कमज़ोर चाय वाले से अरुण बत्रा कुछ सवाल पूछता है. पर क्या उसे हर सवाल का जवाब मिलता है या फिर चाय वाले के कुछ और सवाल उसका पीछा करने लगते हैं?

फिल्म से एक तस्वीर 

लगभग 12 साल बाद फ़िल्मों में वापसी कर रही शर्मिला टैगोर का किरदार 'गुलमोहर' के बिखरते हुए बत्रा परिवार की धुरी है. लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, पता चलता है कि वो धुरी किसी ज़मीन पर टिकी ही नहीं है. शर्मिला टैगोर ने एक ऐसा किरदार निभाया है जिसका न उस घर से कोई लगाव है जिसमें वो रहती हैं और न ही उस परिवार से जिसे वो अपना कहती हैं. फ़िल्म में शर्मिला टैगोर और अमोल पालेकर की मौजूदगी पिछले ज़माने के सिनेमा का चार्म जैसे फिर लौटा लाई है. सत्तर और अस्सी के दशक के हिंदी सिनेमा के इन दो एक्टरों को एक नए ढब की एक्टिंग करते हुए देखना उसी पुराने चार्म को नए रूप में देखना है.    

आज की तेज़ रफ़्तार दिल्ली में घुमावदार फ़्लाइओवर्स हैं, ज़मीन के नीचे और सिर के ऊपर बनी पटरियों पर दौड़ती मेट्रो ट्रेन है, शॉपिंग मॉल्स और आर्केड्स हैं. 'गुलमोहर' भी इसी दिल्ली की ही कहानी है. फ़र्क़ ये है कि इसमें आपको आज के सिनेमा की भगदड़, शोर, चमचमाते सेट और सिर घुमा देने वाला प्लॉट नहीं मिलेगा. जो लोग सत्तर या अस्सी के दशक में बनी घर और घरौंदा जैसी पारिवारिक फ़िल्मों की ग्रामर से वाकिफ़ हैं वो 'गुलमोहर' में नैरेटिव के ठहराव को अच्छी तरह समझेंगे. यही डाइरेक्टर राहुल चित्तैला की सफलता है, हालाँकि ये उनकी डाइरेक्ट की हुई पहली फ़ीचर फ़िल्म है.

ये फ़िल्म उस दौर में बनी है जब हिंदी फ़िल्मों की ज़्यादातर कहानियां पाकिस्तानी जासूसों का पीछा करने, आतंकवादियों के अड्डे पर हैंड ग्रेनेड मारने, राइफ़लों से तड़ातड़ गोलियाँ चलाने में ही ख़र्च हो जाती हैं. ऐसे में दक्षिण दिल्ली के एक बंगले में सतही ख़ुशहाली में जी रहे परिवार की कहानी पर एक तनावभरी शांति में डूबती-उतराती फ़िल्म तभी बनाई जा सकती है, जब फ़िल्मकार कुछ क्रिएट करने के लिए बज़िद हो, नोट छापने के लिए नहीं.

जब कोई कहानी आपको अलग-अलग रंगत के इमोशंस से होकर गुज़ार रही हो, उसका अंत सुखांत ही क्यों होना चाहिए? 'गुलमोहर' फ़िल्म का अगर कोई कमज़ोर पहलू है, तो वो है उसकी हैप्पी एंडिंग. ये फ़िल्म आपकी अलमारी में रखी उस जानी-पहचानी किताब जैसी हो सकती थी, जिसे आप कभी-कभार निकालकर पढ़ते हैं – ख़ासकर तब जब आप अकेले होते हैं और नि:शब्द रोना चाहते हैं.

वीडियो: गली गुलियां के वक्त मनोज बाजपेयी की हालत इतनी बिगड़ गई कि शूटिंग रोकनी पड़ी

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