दिए जा सकने वाले सारे पुरस्कार दिए जा चुके हैं, हो सकने वाले सारे आयोजन हो चुके हैं, की जा सकने वालीं सारी बहसें की जा चुकी हैं, उठ सकने वाले सारे सवाल उठ चुके हैं और उनके सारे संभव जवाब पाए जा चुके हैं. सारी उपलब्धियां और सारी नाकामियां बताई जा चुकी हैं. सारी सूचियां सामने आ चुकी हैं. सारे स्मृति-शेष लिखे जा चुके हैं. इस सदी का सोलहवां साल बीतने को है. अब अगले बरस का इंतजार है. जलेबियों और समोसों की तरह किताबें छानकर रख ली गई हैं. अगले बरस की सात तारीख को शुरू हो रहे विश्व पुस्तक मेले को ध्यान या कहें बयान में रखकर नया माल भी तैयार हो रहा है, क्योंकि अगले बरस भी होंगे करोड़ों पर अन्याय. अत्चाचार होंगे लाखों पर. अगले बरस भी असंख्य सोएंगे भूखे या आधे पेट. हजारों हजार रहेंगे बेआसरा बेसहारा. औरतें गुजरेंगी हर संभव असंभव अपमान से. बच्चे होंगे अनाथ या बेच दिए जाएंगे. बेशुमार हाथ फैले होंगे दूसरों के आगे. अगले बरस भी वही होगा जो पांच हजार वर्षों से होता आया है. लोग जारी रखेंगे जन्म या कर्म के कारण गुलामी. स्वाभाविक कारणों से मरी लाशें मिलेंगी जिनकी शिनाख्त करने कोई नहीं आएगा. विष्णु खरे की एक कविता ‘आज भी’ से मुतासिर ऊपर के पैराग्राफ के बाद यह बताना जरूरी है कि किताबें वृक्ष से बनती है और यह रचनाकारों की नहीं वृक्षों की अवमानना है कि साल भर की चुनिंदा किताबों का नाम गिनाते हुए कई ‘सूचीकार’ कुछ महत्वपूर्ण किताबों को जिक्र में नहीं लाते. वे कभी-कभी तो बगैर प्रकाशन-वर्ष देखे हुए भी किताबों को यश बांटते चले जाते हैं. इस दृश्य में यहां हम साल’16 की ऐसी ही दस किताबों की बात करेंगे जो सूचीकारों के संपर्क से मलिन होने से रह गईं :
1. शब्दवेध

‘अनाड़ी का खेलना, खेल का सत्यानाश’ वाली शैली का निर्वाह करती हुईं हिंदी में तमाम आत्मकथाएं और जीवनियां प्रतिवर्ष प्रकाशित होती हैं, लेकिन एक हारी हुई बाजी की तरह उन्हें कोई याद नहीं रखना चाहता. इस सीन में ‘शब्दवेध’ को पढ़ने वाले उसे एक जीती हुई बाजी की तरह याद रखेंगे. ‘शब्दवेध’ हिंदी के एकमात्र समांतर कोश के कोशकार और ‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार की आत्मकथा है. इसे उन्होंने अपने 86वें जन्मदिवस पर प्रकाशित किया है. सत्तर सालों के अपने हिंदी शब्द संसार के अनुभवों को उन्होंने यहां ज्ञान बांटने वाले नहीं पढ़वा ले जाने वाले दिलचस्प अंदाज में संजोया है. बकौल अरविंद कुमार : ‘‘मेरे जीवन में जो कुछ भी उल्लेखनीय है, वह मेरा काम ही है. मेरा निजी जीवन सीधा-सादा, सपाट और नीरस है. कोई प्रवाद मेरे बारे में कभी नहीं हुआ. इसलिए मैं ‘शब्दवेध’ को शब्दों के संसार में सत्तर साल : एक कृतित्व कथा’ कह रहा हूं.’’
2. तुमि चिर सारिथी 
इन पंक्तियों के लेखक ने कुछ वर्ष पूर्व कहीं पढ़ा था कि संस्मरण में ‘मैं’ की अति संस्मरण की गति को कमजोर कर देती है. इस पढ़त के सहारे कहें तो ‘तुमि चिर सारिथी’ प्रगतिशील नागार्जुन पर केंद्रित संस्मरणों की एक गतिशील किताब है. यह ‘पहल’ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित होकर पहले ही बेहद चर्चा में रह चुकी है. इसके लेखक तारानंद वियोगी नागार्जुन की संगत में रहे हैं. यह पुस्तक इस संगत का ही आख्यान है. अशोक वाजपेयी के शब्दों में : ‘‘हिंदी में ऐसा कम ही हुआ है कि किसी युवा लेखक ने विस्तार से किसी वरिष्ठ लेखक के साथ बिताए अपने समय का विस्तृत संस्मरण लिखा हो. ऐसा तो और भी कम है जिसमें कुछ आत्मालोचन भी हो— अपने चरितनायक के महिमामंडन के अलावा.’’
3. जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन 
विमर्श का शोर हिंदी में बहुधा नकली दाढ़ी-मूंछ लगाकर अपने ही घर में घुसकर चोरी करने वाले चोर के शोर जैसा है. इस शोर में ‘जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन’ मशहूर जनवादी चिंतक आनंद तेलतुंबड़े के निबंधों की किताब है. यह किताब मूलत: हिंदी में संभव नहीं हुई है. लेकिन इसमें शामिल निबंध हिंदी के लिए इस मायने में महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये जाति के उन्मूलन को एक केंद्रीय कार्यभार के रूप में देखते हुए एक सच्चे जनवादी समाज के निर्माण की चुनौतियों, संघर्षों, वैचारिकी और जरूरत को रेखांकित करते हैं. अंग्रेजी से हिंदी में इनका तर्जुमा रेयाज उल हक ने किया है और इस किताब को संपादित किया रूबीना सैफी ने. आनंद तेलतुंबड़े इसकी भूमिका में कहते हैं : ‘‘निबंध मैंने अलग-अलग वक्त में अलग-अलग विषयों पर लिखे हैं, लेकिन वे किसी न किसी तरीके से जाति के सवाल के साथ जुड़े हुए हैं.’’
4. फुटपाथ पर कामसूत्र 
‘मरहम की जगह मरहम गए...’ वाले असर में ‘फुटपाथ पर कामसूत्र’ देह-विमर्श की राजनीति में स्त्री-प्रश्नों से टकराने वाली किताब है. सेक्सुअलिटी के फंदे में जकड़े हुए समाज में इस टकराहट के लिए यहां वरिष्ठ कवयित्री अनामिका के उपन्यास ‘दस द्वारे का पिंजरा’ और ‘तिनका तिनके पास’ को टेक्स्ट की तरह बरता गया है. अभय कुमार दुबे एक जगह इस किताब में लिखते हैं : ‘‘देह और दैहिक आनंद की केंद्रीयता के कारण प्रेम, मित्रता, भाईचारे और रक्त-संबंधों की शक्ल कुछ से कुछ हो जाती है.’’ स्त्री की चेतना और उसके शरीर दोनों के ही वस्तुकरण के संदर्भ समझने के लिए यह एक अनिवार्य पुस्तक है.
5. मीडिया की भाषा-लीला 
‘मीडिया की भाषा-लीला’ में सिने-भाषा का मूल्यांकन करने वाले कुछ कारगर लेख हैं. रविकांत मूलतः इतिहासकार हैं और हिंदी सिनेमा के इतिहास के ऊपर उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से पीएचडी की है. लेकिन यह किताब उनका शोध-प्रबंध नहीं है. इस किताब की भूमिका बहुत संदर्भसंपन्न और चित्रात्मक है. लगभग 36 पेज की इस भूमिका को शुरू करते हुए रविकांत स्पष्ट करते हैं : ‘‘इस संकलन में अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं-पुस्तकों के लिए मुख्तलिफ पेशेवर जरूरतों और फरमाइशी आग्रहों पर लिखे-छपे मीडिया विषयक आलेख हैं, जिन्हें गूंथने का काम भाषा के तार ने किया है. ज्यादातर चीजें अपने मूल कलेवर में बदस्तूर इंटरनेट पर भी मुफ्त में मौजूद हैं, लेकिन पाठक पाएंगे कि मौजूदा पाठ में मामूली इजाफत करने के अलावा हमने थोड़ी-सी साज-सज्जा भी कर दी है, ताकि किताब खरीदने का उनका लोभ बना रहे.’’
6. जल थल मल 
‘जल थल मल’ जल, थल और मल से हमारे रिश्तों की कहानी है, लेकिन यह कोई कहानी-संग्रह नहीं है. यह किताब पर्यावरण से संबंधित है और मानती है : ‘‘हमारा शरीर मिट्टी की उर्वरता से सीधा जुड़ा हुआ है और पानी की निर्मलता से भी. मल-मूत्र की यह कहानी स्वास्थ्य और पर्यावरण से तो जुड़ी है ही, इसमें विज्ञान भी है और धार्मिक आचरण भी, इतिहास है और भविष्य भी.’’ इसे पढ़ने वाले भाषा की रवानगी के लिए भी इसे याद रख सकते हैं और इसकी सचित्रता के लिए भी. सोपान जोशी की यह किताब अनुपम मिश्र की परंपरा की किताब लगती है. ‘‘पानी कभी अपनी स्मृति नहीं खोता, आप उसे लाख पीछे धकेलें, वह लौटता है.’’ यह कहने वाले अनुपम मिश्र यह साल गुजरते-गुजरते हमारे बीच से गुजर गए.
7. अभिनव सिनेमा 
‘अभिनव सिनेमा’ कथा-कहानी के लिए चर्चित प्रचंड प्रवीर की सिनेमा पर पहली किताब है. यह किताब रस-सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय देती है. हिंदी फिल्मों का सौंदर्यशास्त्र, भारतीय दृष्टिकोण से विश्व सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र और सिनेमा में सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र को व्याख्याएं देते हुए यह किताब नौ रसों के सहारे संसार की कुछ महान फिल्मों का विश्लेषण करती है. इसकी प्रस्तावना में विष्णु खरे का यह आग्रह भी गौरतलब है : ‘‘यह ऐसी अद्वितीय पुस्तक है कि मैं सख्त सिफारिश करता हूं कि इसे व्यक्तिगत और सार्वजनिक रूप से खरीदा जाए और सिनेमा तथा हिंदी के पाठ्यक्रम में अनिवार्यत: सम्मानजनक जगह दी जाए.’’
8. एक अनाम कवि की कविताएं 
इस साल भी हिंदी में कविता की कई किताबें मानो यह कहते हुए आईं : ‘‘या रब ई आरजू ए मन चे/ खुशस्त तू बदी आरजू मरा बे रसां.’’ अर्थात : ‘‘या खुदा मेरी यह आरजू कितनी अच्छी है कि तू मेरी आरजू पूरी कर दे.’’ इस प्रकार की आरजुएं अक्सर काव्येतर होती हैं, इसलिए यकीनन खुदा इन्हें पूरी भी करता है. लेकिन यहां इस प्रकार आरजुएं रखने वाली कविता की किताबों की बात करना फिजूल होगा, क्योंकि ‘एक अनाम कवि की कविताएं’ एक ऐसे कवि की कविताएं हैं जिसने यह तक नहीं चाहा कि पढ़ने वाले उसका नाम तक जानें. वह कविताएं और कुछ यादगार लोरियां लिखकर न जाने किस करवट सो गया. प्रख्यात साहित्यकार दूधनाथ सिंह ने इन कविताओं की भूमिका लिखी है और इन्हें पुस्तकाकार संपादित किया है. इन कविताओं को सबसे पहले दूधनाथ सिंह ने विश्व कविता की पत्रिका ‘सदानीरा’ के संपादक आग्नेय को भेजा था. उन्होंने ही सबसे पहले इस अनाम कवि की 23 कविताएं और नौ लोरियां छापीं और कहा कि जो भी कवि बाकी कविताओं और लोरियों के साथ होगा मान लिया जाएगा कि इन कविताओं का रचयिता-विधाता वही है. लेकिन यों न हुआ और मान लिया गया कि इन कविताओं का कवि अब इस संसार में नहीं है. इस प्रसंग से इस वर्ष ही घटे छद्म स्त्री-नामों से फेसबुक पर कविताएं लिखने वाले एक कवि की याद हो आई. उसने पूरे मजे लिए और अंत में अनाम नहीं रहा. वह एक युवा कवयित्री शुभम श्री को भारत भूषण अग्रवाल युवा कविता पुरस्कार दिए जाने के बाद हुई वाहवाही और थू-थू से इतना खिन्न हुआ कि उसने कविता में अपना जेंडर ही चेंज कर लिया. ये बातें अंबर रंजना पांडेय से संबंधित हैं जिन्होंने दोपदी सिंघार और तोता बाला ठाकुर के नाम से फेसबुक पर आदिवासी और स्त्री-संवेदना की कविता लिखकर बहुत कुछ साफ कर दिया. इन दिनों अंबर मिठाई पर कविताएं लिख रहे हैं और अब तक वह लगभग पहले की तरह ही यह साफ कर चुके हैं कि कूड़े पर कविता लिखने के लिए कूड़ा होना जरूरी नहीं है.
9. चॉकलेट फ्रेंड्स 
‘बेखुदी में तू खुदी का दरिया मेरे यारा...’ वाले अंदाज में इस वर्ष कहने को तो हिंदी में भतेरे कहानी-संग्रह आए, लेकिन पढ़ने लायक सिर्फ एक-दो ही थे, दुर्भाग्य देखिए कि वे भी ठीक से नहीं पढ़े गए. इन एक-दो में ही एक था : नई नस्ल के कहानीकार शिवेंद्र का कहानी-संग्रह ‘चॉकलेट फ्रेंड्स’. शिवेंद्र औपन्यासिक विस्तार वाली लंबी-लंबी कहानियां लिखते हैं. लेकिन ये कहानियां वैसी लंबी कहानियां नहीं हैं जिनसे ऊबकर एक दफा एक सीनियर कहानीकार ने इनकी तुलना उस रास्ते से की थी जो बिमल रॉय की फिल्म ‘देवदास’ के बिल्कुल आखिर में दिलीप कुमार (देवदास) और सुचित्रा सेन (पारो) के बीच में पड़ता है. इस रास्ते से ऊबकर बीमार देवदास अंतत: गाड़ीवान से कहता है कि क्या यह रास्ता कभी खत्म नहीं होगा. बहरहाल, शिवेंद्र की कहानियां एक ऐसे वक्त में नुमायां हुई हैं, जब कहानियां हमें फरेब दे रही हैं और संसार में कहानियों का वक्त गुजर चुका है. बावजूद इसके कि कुछ वर्ष पूर्व ही एलिस मुनरो को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया. इस तथ्य के उजाले में ‘चॉकलेट फ्रेंड्स’ की कहानियां इस यकीन को शक्ति देती हैं कि सच्चाइयां सबसे लंबे दिनों तक सिर्फ कहानियों में ही जीवित रह सकती हैं.
10. मोरीला 
लाओत्से के शब्दों में कहें तो अपयश को स्वेच्छा से स्वीकार करते हुए और दुर्भाग्य को मानवीय परिस्थिति के रूप में मान्यता देते हुए इस बरस हिंदी में उपन्यास भी अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हुए खूब आए. मियां मिट्ठू बनने का मतलब यहां अपने उपन्यास का फेसबुक पेज बना लेना या उसे महत्वहीन लिटरेचर फेस्टिवल्स में लिए-लिए फिरना है. इन दोनों अक्षम्य बुराइयों से बहुत दूर एक अन्यतम प्रेम-उपन्यास है ‘मोरीला’. इसके लेखक की उम्र की चर्चा भी बेहद जरूरी है क्योंकि अब ‘हिंदी-बाजार’ में उम्र बताकर उपन्यास बेचने का दौर शुरू होने वाला है. जैसे नौनिहालों की हर जिद पूरी की जाती है, वैसे ही अब उनके उपन्यास भी खरीदे जाएंगे. खैर, ‘मोरीला’ के लेखक बलराम कांवट की उम्र है महज 29 साल और उनका यह उपन्यास उस लड़की के लिए है जिसने अपने शब्द कहे. पढ़ने वाले को यह कृति अपने प्रयोगों में फंसाती है और न पढ़ने वाले को अपने आवरण में. यह कृति प्रेम के पुनर्वास का अभिनव उपक्रम है. चलते-चलते आखिर में यह भी बताते चलें कि अगर ये किताबें पढ़नी हैं तो इनके नाम यहां से कॉपी करके google करें, जानकारी जुटाएं और प्राप्त करें. नई दिल्ली के प्रगति मैदान में 7 जनवरी से शुरू हो रहे विश्व पुस्तक मेले में भी ये किताबें पाई जा सकती हैं.