चुनावों के इर्द-गिर्द यहां ढेर सारे किस्से हैं. मथुरा का वोटर अच्छे-अच्छों को अचंभे में डाल देने वाला वोटर है. यहां से अटल बिहार वाजपेयी और नटवर सिंह लोकसभा चुनाव हार जाते हैं, लेकिन हेमा मालिनी जीत जाती हैं. विधानसभा चुनावों की बात करें तो मथुरा-वृंदावन विधानसभा से पास ही मांट विधानसभा सीट पड़ती है. यहां से श्याम सुंदर शर्मा 1989 से लगातार चुनाव जीत रहे हैं लेकिन अलग-अलग पार्टियों के टिकटों पर. 2012 में ये तृणमूल के टिकट पर चुनाव जीत गए थे! खैर, वापस मथुरा-वृंदावन पर आते हैं. इस चुनाव की बात करने से पहले पिछले चुनावों के नतीजों पर नज़र डाल लें.

आंकड़े अपनी कहानी खुद कहते हैं. कल्पना कीजिए कि जब इन वोटों की गिनती हो रही होगी, प्रत्याशियों का क्या हाल रहा होगा. 'कांटे की टक्कर' जुमला अगर किसी एक मुकाबले के लिए इस्तेमाल होना हो, तो निश्चित तौर पर ये वो मुकाबला था. जीतने वाले प्रदीप माथुर जीतकर भी अंदर तक हिल गए होंगे. दूसर नंबर पर रहे देवेंद्र शर्मा जिस अंतर से हारे वो शगुन में दिए पैसों जैसा लगता था - 501 वोट.कहते हैं कि कृष्ण 'यादव' थे. अब मज़े की बात ये है कि अपनी सारी कोशिशों के बावजूद यादवों की पार्टी मानी जाने वाली सपा आज तक कृष्ण की नगरी में खाता नहीं खोल पाई है. 2012 में पूरेे उत्तर प्रदेश में सपा का प्रदर्शन बढ़िया रहा लेकिन मथुरा में सपा के अशोक अग्रवाल तीसरे नंबर पर रह गए. वैसे पहले नंबर पर रहे प्रदीप माथुर से इनके सिर्फ 1449 वोट ही कम थे.
इस बार मथुरा फतह करने के लिए सपा ने कांग्रेस से हाथ मिलाया है. मथुरा उन 105 सीटों में से है जिन पर सपा-कांग्रेस की मांडवली है.
'दोस्ती' से पहले का माहौल

बसपा की प्रचार सामग्री में राहुल-प्रियंका भी हैं.
इस बार भले हाथ
पूरे ज़ोर से साइकिल
को खींच रहा हो, लेकिन पिछले पांच सालों में इनके बीच कम खींच-तान नहीं हुई है. बकौल अमर उजाला
, अखिलेश सरकार जिस किसी भी सड़क या पुल का उद्घाटन या शिलान्यास कराती थी, अपने लोकल नेता अशोक अग्रवाल से ही कराती थी. मथुरा के विधायक प्रदीप माथुर फिर अपने समर्थकों को लेकर दोबारा शिलान्यास करते थे. लेकिन अब सबको मिलकर काम करना पड़ रहा है. सपा कार्यकर्ताओं को खास दिक्कत हो रही होगी. अगर इन्होंने प्रदीप माथुर के लिए प्रचार किया, तो वो कुछ दिन पहले तक उनके नेता रहे अशोक अग्रवाल के खिलाफ भी होगा. अशोक अब इस सीट पर राष्ट्रीय लोक दल से चुनाव लड़ रहे हैं.
इस सब के बावजूद मथुरा-वृंदावन सीट पर लड़ रहे उम्मीदवारों में सबसे दिलचस्प किस्सा अगर है तो वो बसपा के योगेश द्विवेदी का है.

योगेश द्विवेदी. (फोटोः फेसबुक)
हिंदुस्तान की राजनीति में चाय लोगों को कहां से कहां ले जा सकती है, इसका उदाहरण अकेले प्रधानमंत्री मोदी नहीं हैं. मथुरा से बसपा के उम्मीदवार योगेश द्विवेदी के अच्छे दिन भी चाय के रास्ते ही आए हैं. आज एक होटल और एक फैक्ट्री के मालिक योगेश ने बचपन बड़ी गरीबी में बिताया. 300 रुपए में होटल में नौकरी की. किसी ने सलाह दी कि होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर लो तो दोस्तों से पैसे लेकर चंडीगढ़ गए. कोर्स कर के लौटे तब भी मैनेजरी की जगह एक होटल में वेटर का ही काम मिला. गरीबी ने इनकार नहीं करने दिया. लेकिन यहीं से उनकी किस्मत भी खुली.
1995 की बात है. मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं. मथुरा आईं तो कांशीराम भी साथ थे. दोनों ने एक बसपा समर्थक के होटल में आमद दी. ये वही होटल था जहां योगेश नौकरी कर रहे थे. होटल मैनेजमेंट का कोर्स किए हुए थे, तो चाय-नाश्ते का सारा इंतज़ाम उन्हीं के ज़िम्मे रहा. इसी के बाद योगेश की जान-पहचान बसपा नेताओं से हुई. कुछ साल बाद योगेश की मां बसपा में शामिल हो गईं और उनके ज़रिए योगेश बसपा से जुड़ गए. जब मायावती को योगेश का काम पसंद आया तो वे मथुरा में बसपा के कॉर्डिनेटर बना दिए गए. और फिर उनके दिन फिर गए. एक फैक्ट्री खड़ी हुई लेकिन अपने पहले पेशे से दूरी नहीं बनाई. एक होटल भी खोला. आज करोड़पति हैं. 2014 के आम चुनावों में वे मथुरा से बसपा के कैंडिडेट थे, लेकिन भाजपा की हेमा मालिनी से चुनाव हार गए. बावजूद इसके मायावती का भरोसा उन पर कम नहीं हुआ. इस बार विधानसभा चुनाव में बसपा फिर बसपा का टिकट मिला है.
कांग्रेस के प्रदीप माथुर

प्रदीप माथुर. (फोटोः फेसबुक)
ये लंबे समय से राजनीति में हैं. पहली बार 1985 में विधायक बने और 2002 से लगातार विधानसभा चुनाव जीत रहे हैं. प्रदीप माथुर कांग्रेस के लिए सेफ कैंडिडेट हैं. नाम कांग्रेस की पहली लिस्ट में ही था. 2002 से लेकर अब तक कांग्रेस भले कभी 25, कभी 22 और कभी 28 सीटों पर सिमटी, लेकिन माथुर बने रहे. शायद इसीलिए सपा-कांग्रेस के गठबंधन में मथुरा सीट कांग्रेस को मिली. लेकिन पिछला चुनाव बमुश्किल जीत पाए थे. सपा के अशोक अग्रवाल और भाजपा के कैंडिडेट देवेन्द्र कुमार शर्मा से बेहद करीबी मुकाबला हुआ. महज़ 501 वोटों की लीड से सीट बचा पाए.
राष्ट्रीय लोक दल के अशोक अग्रवाल

फोटोःपत्रिका
हर नेता को चुनाव लड़ने से पहले एक लड़ाई और लड़नी पड़ती है. अपनी पार्टी के अंदर टिकट की लड़ाई. अग्रवाल एक तरह से सेमिफ़ाइनल जीत गए थे जब उनका नाम अखिलेश यादव वाली लिस्ट में आया (ध्यान रहे एक लिस्ट मुलायम की भी थी और इस मामले में सपा के अंदर जमकर रस्साकशी हुई थी). लेकिन जब सपा-कांग्रेस गठबंधन हुआ, तो कोलेटरल डैमेज के तौर पर डॉ. अशोक अग्रवाल का सपा वाला टिकट कट गया. नाराज़ होकर राष्ट्रीय लोक दल में चले गए. अजीत सिंह ने टिकट भी दे दिया क्योंकि 2012 में तीसरे नंबर पर भले थे, लेकिन जीतने वाले प्रदीप माथुर से महज़ 1449 वोट पीछे थे.
भाजपा के श्रीकांत शर्मा

भाजपा में राष्ट्रीय महासचिव हैं और प्रवक्ता भी. बिना किसी चेहरे के लड़ रही भाजपा अगर जीत जाती है, तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हो सकते हैं. अपनी पैदाइश गोवर्धन गांव की बताते हैं लेकिन लोग उन्हें स्थानीय मानने को तैयार नहीं है. मथुरा से पिछली बार जीत के बिलकुल करीब पहुंच चुके देवेन्द्र शर्मा का टिकट काट कर आए हैं. ऐसे में देवेन्द्र के समर्थक श्रीकांत का पूरा साथ देंगे इसकी संभावना कम है. वैसे मथुरा वो अकेली सीट नहीं है जहां भाजपा को भितरघात का डर हो. भाजपा ने टिकट बांटने में कई और सीटों पर नाराज़गी मोल ली है.
मथुरा-वृंदावन विधानसभा सीट के जातीय आंकड़े ये हैंः
ब्राह्मणः 70 हज़ार
वैश्यः 65 हज़ार
जाटः 25 हज़ार
मुस्लिमः 35 हज़ार
मथुरा का एक मुद्दा ऐसा रहा है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा पा चुका है लेकिन जिसपर काम में अभी बहुत गुंजाइश है. यहां देश-भर से आईं विधवा महिलाएं रहती हैं. इनकी संख्या 3000 हज़ार से ज़्यादा है. इनके लिए यहां दस सरकारी आश्रम हैं, जहां इनमें से कई ने पनाह ली है. पेंशन ना मिलना, पैसे की कमी से इलाज न करवा पाना और इसी तरह की कई परेशानियां इन्हें घेरे हुए हैं. घोषणाएं खूब हुई हैं लेकिन इनके मुद्दे हर बार चुनावी वादों के शोर में दब जाते हैं. इस बार क्या होता है, देखना है.
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