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उस भारतीय की टेस्ट अौसत सचिन से ज़्यादा थी, लेकिन भारत के लिए कभी नहीं खेला

दुनिया का सबसे खूबसूरत लेट कट उसकी कलाइयों में बसता था. ब्रैडमैन के खिलाफ़ सैंकड़ा जड़ एशेज़ की शुरुआत. लेकिन 27 के बाद कभी टेस्ट नहीं खेला, क्यों?

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मियां मिहिर
13 जून 2016 (Updated: 13 जून 2016, 08:17 PM IST) कॉमेंट्स
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सदी भर पुराना किस्सा है. काठियावाड़ में पैदा हुआ हिन्दुस्तानी. दाएं हाथ का खूबसूरत बल्लेबाज़. टेस्ट एवरेज 58.52. सचिन तेंदुल्कर की टेस्ट एवरेज से भी चार अंगुल ऊपर. जब वो स्कूली क्रिकेट में खेल रहा था, विश्व की सबसे प्रतिष्ठित क्रिकेट संस्था एमसीसी के भावी प्रेसिडेंट ने उसका खेल देखकर क्रिकेट की बाइबल मानी जाने वाली पत्रिका 'विज़डन' में लिखा, 'आंख, कलाई अौर फुटवर्क के गज़ब के तालमेल के साथ वो शर्तिया बहुत खास खिलाड़ी है. उनका लेट कट खूबसूरत है अौर उनकी बल्लेबाज़ी में ख़ास किस्म की सहजता अौर परिपक्वता है, जो उसे बाकी स्कूली बल्लेबाज़ों से आगे दूसरी ही क्लास में ले जाती है.' इस बल्लेबाज़ ने पहला टेस्ट खेला 1929 में. उम्र सिर्फ़ चौबीस.


साल 1930 की गर्मियों में सबसे तगड़े प्रतिद्वंद्वी अॉस्ट्रेलिया के खिलाफ़ पहला टेस्ट खेलते हुए उसने 173 रन मार दिए. उम्र थी सिर्फ़ पच्चीस की. ये पारी महानतम डॉन ब्रैडमैन की टीम के खिलाफ़ थी. 1928 से लेकर 1931 तक हर प्रथम श्रेणी सीज़न में पिछले सीज़न से ज़्यादा रन बनाए. अंतिम तीन में 2,500 से ज़्यादा. अौर फिर इस बल्लेबाज़ ने सिर्फ़ 27 साल की उम्र में, करियर के सबसे बुलन्दी के दौर में, क्रिकेट खेलना हमेशा के लिए छोड़ दिया. इसी बल्लेबाज़ के नाम पर भारत आज अपना सबसे प्रतिष्ठित प्रथम श्रेणी क्रिकेट का ज़ोनल क्रिकेट टूर्नामेंट खेलता है. नाम - दिलीप ट्रॉफी. लेकिन भारतीय टेस्ट टीम के रिकॉर्ड में इस बल्लेबाज़ का कहीं नाम भी नहीं मिलता. वजह ,

क्योंकि कुमार श्री दिलीप सिंहजी, महाराजा अॉफ जामनगर कभी भारत के लिए टेस्ट नहीं खेले.

दिलीप सिंह को इंग्लैंड में प्यार से वही नाम मिला, जो उनके चाचा को कहा जाता था - 'मिस्टर स्मिथ', अौर महाराजा दिलीप सिंह अपने चाचा की तरह ही हमेशा 'ब्रिटिश क्रिकेटर' बनकर रहे. दिलीप के चाचा नवानगर के तत्कालीन महाराजा अौर भारतीय बल्लेबाज़ रणजीत सिंह थे, जिन्हें क्रिकेट की दुनिया 'रणजी' के नाम से जानती है. अपने समय में उन्हें इंग्लैंड की ज़मीन पर खेलने वाला सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज़ गिना गया. बी सी फ्राई के साथ उनकी काउंटी टीम ससेक्स में जोड़ी अमर थी.

बीमारियों के चलते दिलीप सिंह क्रिकेट करियर छोटा रहा, लेकिन 12 टेस्ट में उनका एवरेज पचास से ज़्यादा रहा. उस वक्त के भारतीय राजघरानों की परम्परा के अनुसार दिलीप सिंह को बचपन में ही पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया था. सबसे पहले दिलीप ने स्कूली क्रिकेट में अपनी बॉलिंग से नाम कमाया. साल 1922 में वे इंग्लैंड की स्कूली क्रिकेट में 13.66 की एवरेज के साथ 50 विकेट लेकर टॉप पर थे. लेकिन स्कूल के फाइनल इयर तक आते आते उन्होंने गेंदबाज़ी छोड़ दी थी अौर उनकी शानदार बल्लेबाज़ी के चर्चे थे. वैसे भी क्रिकेट में गेंदबाज़ी मेहनतकशों का काम माना जाता था. यह 'महाराजाअों के खेल' का हिस्सा नहीं समझा जाता था अौर शुद्ध बल्लेबाज़ होना ही राजाअों की इमेज से मैच करता माना जाता था.


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Duleep Singh ji with Don Bradman. Source : Twitter

साल 1926 में उन्होंने चाचा की सिफारिश पर इंग्लैंड की सबसे पुराने क्रिकेट काउंटी ससेक्स के लिए खेलना शुरु किया अौर अपने क्रिकेट करियर के आखिरी सीज़न में उसके कप्तान भी बने. प्रथम श्रेणी क्रिकेट में भी उनकी बल्लेबाज़ी की अौसत 50 के करीब थी. 35 सेंचुरी भी उनके नाम थी. एक समय था जब इंग्लैंड टीम के कप्तान ने कहा था कि गीली विकेट पर धीमी गेंदबाज़ी के सामने दिलीप सिंह विश्व के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज़ थे. गुंडप्पा विश्वनाथ से लेकर मोहम्मद अज़हरुद्दीन अौर वीवीएस लक्ष्मण के नाज़ुक लेटकट शौकीन दर्शकों को आज भी कलाइयों के सहारे गेंद को मर्जी की दिशा में मोड़नेवाली दिलीप सिंह की बल्लेबाज़ी स्टाइल की याद दिलाते हैं. वही इसके असली जन्मदाता थे. लेकिन उनकी बल्लेबाज़ी की प्रतिभा पर हमेशा ही बीमारी हावी रही, जिसने उनका क्रिकेट करियर असमय खत्म कर दिया.


1932 में जब भारत ने इंग्लैंड की ज़मीन पर पहला टेस्ट खेला, दिलीप सिंह की उम्र 27 साल की थी. वे बीमार रहने लगे थे, लेकिन क्रिकेट खेल रहे थे. वे इंग्लैंड की टेस्ट टीम का हिस्सा थे. शायद तत्कालीन भारतीय टीम के हर बल्लेबाज़ से ज़्यादा योग्य खिलाड़ी. अौर शर्तिया ज़्यादा अनुभवी. फिर क्यों उनका नाम भारतीय टेस्ट क्रिकेटर्स की लिस्ट में नहीं है?

इसकी वजह भी उनके चाचा से जुड़ती है, जिनके आवरण से दिलीप सिंह रणजी के जीते-जी तो कभी नहीं निकल पाए. उनके करियर के बारे में पढ़नेवाले उनके समर्थन में तर्क देते हैं कि 1932 में भारत ने टेस्ट खेलना शुरु किया, उस समय तक दिलीप सिंह क्रिकेट से रिटायरमेंट ले चुके थे. लेकिन इस बात में पूरी सच्चाई नहीं. सच बात ये है कि दिलीप सिंह के चाचा रणजीत सिंह हमेशा से ही दिलीप के भारत के लिए खेलने के खिलाफ़ रहे. रणजी का ये कथन मशहूर है, "मैं अौर दिलीप इंग्लिश क्रिकेटर हैं". 

1932 में भी दिलीप सिंह को भारतीय टीम में शामिल करने की, अौर टीम का कप्तान बनाने की कोशिशें हुईं. लेकिन उन्होंने इंग्लैंड छोड़ना मुनासिब नहीं समझा. दिलीप खुद शायद भारतीय क्रिकेट की तरक्की के प्रति इतने उदासीन नहीं थे, लेकिन उनके मन में रणजी के प्रति बहुत सम्मान था. वे रणजी की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करने की नहीं सोच सकते थे. ये भारत की गुलामी का अौर समाज में स्वतंत्रता आन्दोलन के उबाल का दौर था, अौर रणजी अपने कॉग्रेस विरोधी रुख के लिए जाने जाते थे.


जब गांधीजी की अपील पर भारत में विदेशी कपड़ों की होली जलाई जा रही थी अौर बॉम्बे, कलकत्ता के बड़े पोर्ट इस अान्दोलन के असर में ब्रिटिश माल को उतारने से मना कर रहे थे, रणजी ने नवानगर में अपने प्राइवेट पोर्ट को ब्रिटिश माल की ढुलाई के लिए खोल दिया था. रणजी के खुद के समय में तो भारत टेस्ट क्रिकेट खेलने का दावेदार नहीं था, लेकिन दिलीप सिंह को भी अपने क्रिकेटीय जीवन के आखिरी सालों में भारत के लिए टेस्ट खेलने से रोकने का काफ़ी श्रेय खुद रणजी को ही जाता है.

इसके अलावा एक अौर बात थी. दिलीप सिंह उस समय अॉस्ट्रेलिया में खेली जानेवाली एशेज के आगामी दौरे के लिए इंग्लैंड की टीम का हिस्सा होना चाहते थे. अगर वो उस समय भारत की अोर से इंग्लैंड के खिलाफ़ खेलना चुनते, तो उन्हें एशेज़ के लिए इंग्लिश टीम में अपनी जगह को खोना पड़ता. दिलीप सिंह इसके लिए तैयार नहीं थे. ऐसा मामला सिर्फ़ उनके साथ ही नहीं, युवा नवाब अॉफ़ पटौदी सीनियर के साथ भी था, जो उसी दौरे में इंग्लैंड के लिए अपना टेस्ट करियर शुरु करने की उम्मीद लगाए थे.

ये वो दौर था जब इंग्लैंड की टेस्ट टीम दुनिया में बेस्ट होती थी अौर उसमें सेलेक्शन क्रिकेट का सर्वोच्च सम्मान पाने सरीख़ा था. भारत की टीम इंग्लैंड के दौरे पर थी, अपना पहला टेस्ट खेलने वाली थी, लेकिन दिलीप सिंह इंग्लैंड में काउंटी टीम ससेक्स के लिए खेलते रहे. यहां तक कि उन्होंने भारतीय टीम के खिलाफ़ खेले गए काउंटी मैच में अपनी काउंटी टीम ससेक्स की कप्तानी भी की. एकमात्र पारी में उन्होंने 7 रन बनाए अौर उन्हें तेज़ गेंदबाज़ नज़ीर अली ने पगबाधा आउट कर दिया था.


लेकिन दिलीप सिंह की किस्मत में ना भारत के लिए खेलना लिखा था, ना एशेज़ के दौरे पर इंग्लैंड टीम के साथ अॉस्ट्रेलिया दौरे पर जाना. 1932 की यह इंग्लैंड अौर अॉस्ट्रेलिया के बीच खेली गई एशेज़ शायद इतिहास की सबसे कुख्यात सीरीज़ थी. इसे लोककथाअों में नाम मिला 'बॉडीलाइन' सीरीज़ का. नवाब अॉफ पटौदी फाइनली इसी दौरे पर इंग्लैंड टीम का हिस्सा बने, अौर सिडनी के डेब्यू टेस्ट में शतक बनाकर इतिहास की किताबों में अपना नाम दर्ज करवा लिया.

बाद में पटौदी सीनियर भारत के लिए भी टेस्ट खेले. लेकिन दिलीप सिंह को दौरे से हटना पड़ा. सीरीज़ के लिए रवानगी से पहले ही उनकी फेफड़ों से जुड़ी तकलीफ़ इतनी बढ़ गई कि डॉक्टरों ने उन्हें फौरन क्रिकेट खेलना हमेशा के लिए छोड़ देने की सलाह दी. उनकी उम्र उस वक्त सिर्फ़ 27 साल थी.  दिलीप सिंह का चमचमाता क्रिकेट करियर वहीं खत्म हो गया. रणजी की मृत्यु के बाद दिलीप सिंह भारत के साथ ज़्यादा खुले. वे अॉस्ट्रेलिया अौर न्यूजीलैंड में भारत के हाई कमिश्नर भी रहे. लेकिन 1959 में सिर्फ़ 54 साल की उम्र में बॉम्बे में उनका निधन हो गया. इसके बाद ही 1961-62 सीज़न से भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने उनके सम्मान में ज़ोनल क्रिकेट टूर्नामेंट शुरु किया, नाम रखा दिलीप ट्रॉफ़ी. यह टूर्नामेंट आज भी भारतीय डोमेस्टिक क्रिकेट कैलेंडर का अहम हिस्सा है.

वैसे ये मज़ेदार बात है कि भारतीय घरेलू क्रिकेट के दो सबसे ख़ास टूर्नामेंट, रणजी ट्रॉफ़ी अौर दिलीप ट्रॉफ़ी, ऐसे दो क्रिकेटर्स के नाम पर खेले जाते हैं जो कभी भारत के लिए टेस्ट खेले ही नहीं.

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