झर-झर बरस रहे हैं बादल
एक कविता रोज़ में आज पढ़िए रवींद्रनाथ टैगोर की कविता. आज उनकी बरसी है.
Advertisement

फोटो - thelallantop

रवींद्रनाथ टैगोर की कविता
झरो-झरो बरसे बारिधारा हाय पथोबासी, हाय गतिहीन हाय गृहहारा... फिरे वायु... स्वरे डाके कोरे जनहीन असीम प्रांतरे रजनी आंधार.... अधीरा यमुना तरंगो आकुला आकुला रे तिमिरो दुकूला रे निविड़ो नीरदो गगने घरो घरो गरजे सघने चंचलो चपोला चमके नाहिं शोशि तारा
हिंदी अनुवाद
झर-झर बरस रहे हैं बादल गृहविहीन पथ-आश्रित तरु-तल बहती पवन सन न सन सन सन जनविहीन प्रांतर को घेरे छाते मेघ अनंत अंध-तम यमुना की हो विकल तरंगें दोनों तट पर आकुल आतीं अंधकार में घिर-घिर जातीं ऊपर गगन सघन फिर होता चपला प्रतिपल है चमकाता चांद तारों से ओझल होता अंधकार में मिलता जाता
कुछ और कविताएं यहां पढ़िए:
‘पूछो, मां-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं’
‘ठोकर दे कह युग – चलता चल, युग के सर चढ़ तू चलता चल’
‘जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख'
‘दबा रहूंगा किसी रजिस्टर में, अपने स्थायी पते के अक्षरों के नीचे’
वीडियो देखें-