The Lallantop
Advertisement

IFFI के मंच से ज्यूरी चीफ नदाव लैपिड ने 'कश्मीर फाइल्स' के लिए क्या कहा?

नदाव ने जो कहा, उसे कैसे लिया जाए?

Advertisement
nadav lapid
nadav lapid
font-size
Small
Medium
Large
29 नवंबर 2022 (Updated: 29 नवंबर 2022, 23:45 IST)
Updated: 29 नवंबर 2022 23:45 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

''a propaganda vulgur movie.'' 28 नवंबर को IFFI के मंच से ज्यूरी चीफ नदाव लैपिड ने जब 'कश्मीर फाइल्स' के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल किया, तभी तय हो गया था कि आज का दिन इस विषय पर मचने वाले बवाल के नाम रहेगा. नदाव ने जो कहा, उसे कैसे लिया जाए? उसे एक फिल्म के बारे में एक आलोचक की पेशेवर राय भर माना जाए या फिर ऐतिहासिक घटनाओं पर एक पॉलिटिकल कॉमेंट?

एक यहूदी हैं. माने उस कौम का हिस्सा, जिसने खुद इतिहास के सबसे वीभत्स नरसंहारों में से एक का दंश झेला. लैपिड इज़रायल के नागरिक भी हैं, जिसके साथ भारत का सहयोग हर बीतते साल के साथ बढ़ता जा रहा है. इसीलिए उनकी बात को इतनी तरह से मथा जा रहा है, जिन्हें एक बार में समेटना मुश्किल है. लेकिन ये विचार तो किया ही जा सकता है कि इस घटना के बाद आ रही प्रतिक्रियाओं को कैसे देखा और समझा जाए? कि ये प्रतिक्रियाएं एक देश के रूप में हमारे बारे में, और हमारे वक्त के बारे में क्या बताती हैं? और सबसे अहम सवाल ये, कि क्या कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन को एक ही फिल्म में बताए कथानक में समेटा जा सकता है और क्या वो फिल्म 'कश्मीर फाइल्स' ही है?

सवालों को उठाने और जवाबों को तलाशने से पहले ज़रूरी है कि क्या हुआ, कैसे हुआ, उसकी सही जानकारी हासिल की जाए. तो हुआ ये कि 28 नवंबर को गोवा में International Film Festival of India माने IFFI का एक कार्यक्रम था. मौका था 53वें International Film Festival of India के समापन समारोह का, जो कि 20 से 28 नवंबर तक चला. इस फेस्टिवल में एक सेक्शन होता है, ''इंडियन पैनोरमा'' नाम से. इसी सेक्शन में RRR, जय भीम, सिनेमाबंदी, खुदीराम बोस और मेजर जैसी फिल्मों के साथ 'द कश्मीर फाइल्स' को भी दिखाया गया था. तमाम फिल्म फेस्टिवल्स की ही तरह, IFFI में भी एक ज्यूरी बोर्ड होता है, जो प्रदर्शित की गई फिल्मों को अलग अलग पहलुओं पर आंकता है. इसी ज्यूरी बोर्ड के चेयरमैन थे नदाव लैपिड. चूंकि IFFI का आयोजन भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय करता है, इसीलिए समापन समारोह के दौरान केंद्र और गोवा सरकार से जुड़े मंत्री और अधिकारी समारोह में मौजूद थे. और इनमें सबसे बड़ा नाम था केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर का. उनके अलावा कार्यक्रम में भारत और दुनियाभर के फिल्म जगत से जुड़ी हस्तियां भी थीं. इन सबके सामने जब ज्यूरी बोर्ड के अध्यक्ष की हैसियत से नदाव लैपिड बोलने खड़े हुए, तो सभी सन्न रह गए.

ये पहली बार नहीं था कि किसी फिल्म को अश्लील कहा गया. और न ही पहली बार किसी फिल्म को प्रोपेगैंडा की संज्ञा ही दी गई थी. लेकिन द कश्मीर फाइल्स बनी ही ऐसे विषय पर है, जिसपर बात करते हुए भारत में अतिरिक्त सतर्कता बरती जाती है. कश्मीर में उग्रवाद से पनपा आतंकवाद और एक राजनैतिक मकसद के लिए संगठित रूप से हिंदुओं को निशाना बनाकर की गई हिंसा इतिहास में दर्ज है. ये तथ्य है कि हिंदुओं के समूह जगह जगह नरसंहार का शिकार हुए और एक पूरे समुदाय को उसका घर बार छोड़कर विस्थापित होने पर मजबूर किया गया. हज़ारों भारतीय नागरिक अपने ही देश में रिफ्यूजी हो गए. कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी पर कभी इसमें शामिल होने, तो कभी इसे मौन स्वीकृति प्रदान करने का आरोप लगा.

तमाम राजनैतिक दलों ने कश्मीरी हिंदुओं की पीड़ा का दोहन तो किया, लेकिन 32 साल बीतने के बाद भी कश्मीरी हिंदू वापस उन गली-मोहल्लों में नहीं बस पाए, जहां से वो बेदखल कर दिए गए थे. इलाज का दावा करने वाले बने रहे, लेकिन घाव भरा नहीं. इसीलिए विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं में एक टीस बनी रही, कि उनके अपने देश ने उनसे मुंह मोड़ लिया. इसीलिए कश्मीर फाइल्स को खालिस फिल्म के तौर पर नहीं देखा गया. उस फिल्म में जो दर्शाया गया, उसकी तथ्यात्मक सटीकता और राजनीति पर भी बात हुई. पूरी बहस ने जैसे लोगों को दो हिस्सों में बांट दिया था. एक पक्ष कहता था कि कश्मीर फाइल्स से ज़्यादा स्पष्टता के साथ कश्मीरी हिंदुओं की पीड़ा को कभी परदे पर उतारा नहीं गया. और दूसरा धड़ा ये कहता था कि कश्मीर फाइल्स एक बेईमान फिल्म है, जो कश्मीरी हिंदुओं की पीड़ा का इस्तेमाल कर कश्मीर और भारत के मुसलमानों बदनाम करने की कोशिश की है. ऐसे में लैपिड की टिप्पणी को एक कैंप के पक्ष में दिये बयान की तरह देखा गया. और इस बार बहस सिर्फ भारत में ही नहीं हुई. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई. क्योंकि पहली मुखर प्रतिक्रियाओं में से एक तो भारत में इज़रायल के राजदूत नाओर गिलन की ही थी. गिलन IFFI के कार्यक्रम में भी मौजूद थे. और उन्होंने ट्विटर पर बड़े भावुक और मुखर शब्दों में एक थ्रेड लिखा. उसमें उन्होंने कहा कि लैपिड को शर्म आनी चाहिए. क्योंकि भारत ने इज़रायल का IFFI में गर्मजोशी से स्वागत किया, लेकिन लैपिड ने इस सत्कार की लाज नहीं रखी. बाद में गिलन ने एक बयान भी जारी किया. 

विदेश में पदस्थ राजनयिक इतने तीखे शब्दों में प्रायः अपनी बात नहीं रखते. फिर नाओर गिलन की प्रतिक्रिया को कैसे समझा जाए. ये सवाल हमने किया, डॉ मुश्ताक हुसैन से. डॉ हुसैन, दिल्ली विश्वविद्यालय के SGTB खालसा कॉलेज में पढ़ाते हैं. और उन्होंने इज़रायल-फिलिस्तीन मामलों पर शोध किया है. वो नियमित रूप से इस विषय पर लिखते भी रहते हैं.

अगर 28 को लैपिड का बयान वायरल हुआ था, तो 29 नवंबर नाओर गिलन के थ्रेड के नाम रहा. लेकिन जैसा कि स्वाभाविक था, कश्मीर फाइल्स के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने भी अपना पक्ष रखा. अनुपम खेर फिल्म के प्रमुख पात्रों में से एक हैं. उन्होंने भी लैपिड के बयान पर कड़ी आपत्ति जताई और इसे शर्मनाक बताया.

विवेक अग्निहोत्री और अनुपम खेर कश्मीर फाइल्स से जुड़े कलाकार हैं. इसीलिए स्वाभाविक तौर पर उन्होंने अपनी फिल्म का बचाव किया. लेकिन जैसा कि हमने आपको पहले बताया था, कश्मीर फाइल्स के इर्द गिर्द गर्मा गरम राजनीति भी हुई थी. आज इस मोर्चे पर एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा आमने सामने हो गए. यहां तक आते आते हमने आपको सारी प्रतिक्रियाओं के बारे में बता दिया. अब लौटते हैं क्रिया पर. माने लैपिड के बयान पर. इस सवाल का बड़ा वज़न है कि लैपिड ने जो कहा, उसमें कश्मीर फाइल्स नाम की फिल्म की आलोचना थी, या उस इतिहास को चुनौती दी गई थी, जिसमें ये बात साफ साफ दर्ज है कि कश्मीरी हिंदुओं का कत्लेआम हुआ, उन्हें बेघर किया गया. अगर आप लैपिड के काम और विचार पर एक नज़र डालेंगे, तो आप उनकी बात को बेहतर संदर्भ में देख पाएंगे. एक बार फिर हम आपको डॉ मुश्ताक से हमारी बातचीत का एक हिस्सा सुनाते हैं, जिसमें वो बता रहे हैं कि लैपिड का काम और उनकी अभिव्यक्ति उनके बारे में क्या बताती है.

लैपिड एक कलाकार हैं. जाने माने फिल्मकार हैं. दुनियाभर में उनकी फिल्मों को सराहा गया है. और उन्होंने कान जैसे दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल्स में फिल्मों को जज किया है. कश्मीर फाइल्स पर उनकी टिप्पणी को इसी कड़ी का एक हिस्सा माना जाए, तो कोई बुराई नहीं. हां, ये ज़रूर है कि लैपिड या किसी भी और फिल्मकार अथवा आलोचक की टिप्पणी को अंतिम नहीं माना जा सकता. मिसाल के लिए दी लल्लनटॉप सिनेमा के संपादक गजेंद्र सिंह भाटी ने हमसे बातचीत में बताया कि वो कश्मीर फाइल्स को न प्रोपैगेंडा मानते हैं, और न ही अश्लील अथवा फूहड़. क्योंकि हर फिल्म अपने आप में एक प्रोपेगैंडा का हिस्सा होती है. आपको वो पसंद आता है या नहीं, वो इस बात पर निर्भर करता है कि आप उस प्रोपैगेंडा की विचार परंपरा से आते हैं या नहीं. गजेंद्र इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जिस अर्थ में हिटलर द्वारा बनावाई गई फिल्मों को प्रोपेगैंडा कहा जाता है, उसी अर्थ में कश्मीर फाइल्स को प्रोपैगेंडा कहना सही नहीं होगा. हां ये सवाल बना रहेगा कि प्रोपेगैंडा कुप्रचार की सीमा को लांघ गया या नहीं.

रही बात उसके चित्रण या क्राफ्ट के फूहड़ होने की, तो खालिस सिनेमाई दृष्टि से कश्मीर फाइल्स कोई नई लकीर नहीं खींचती है - न अपनी स्पष्टता और न ही अपने कथित बोल्ड चित्रण के मामले में. गजेंद्र कहते हैं कि हमने उधम सिंह में भी एक बेहद प्रोवोकेटिव क्लाइमैक्स देखा. लेकिन वो हमें फूहड़ नहीं लगा, क्योंकि उस घटना को लेकर हमारा नज़रिया यही है, कि उस पीड़ा को दर्ज किया जाना ज़रूरी था.

अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि कश्मीर फाइल्स एक फिल्म है, जो कुछ पक्ष दिखाती है, और कुछ को छिपा लेती है. ये कश्मीर पर बनी तमाम दूसरी फिल्मों से बहुत अलग नहीं है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं हो जाता कि कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन को उसी भाषा में बयान किया जा सकता है, जिसका इस्तेमाल कश्मीर फाइल्स ने किया. क्योंकि उस भाषा का इस्तेमाल किसी बेगुनाह को निशाने पर लेने के लिए भी किया जा सकता है. इसीलिए आलोचनाओं का स्वागत ज़रूरी है. सही गलत ऐतराज़ दर्ज कराना ज़रूरी है. ताकि हम देख सकें कि हम कहां चूके, और कहां हम बेहतर हो सकते हैं. और जैसा कि लैपिड ने कहा भी था, ये कला और जीवन के लिए अनिवार्य है.
 

दी लल्लनटॉप शो: कश्मीर फ़ाइल्स एक खराब प्रोपेगैंडा फिल्म या फिर कश्मीरी हिंदुओं की तकलीफ का सच्चा बयान?

thumbnail

Advertisement