शेख अब्दुल्ला के बारे में क्या लिखें, इसका जवाब है ये फेसबुक पोस्ट
आज शेख अब्दुल्ला का जन्मदिन है.
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शेख अबदुल्ला ने नेहरू के कहने पर ही मुस्लिम कॉन्फ्रेस का नाम नेशनल कॉन्फ्रेंस कर दिया था
आज शेख अब्दुल्ला का जन्मदिन है. हम इस मौके पर आपको कुछ पढ़वाना चाहते हैं. लेकिन उस से पहले हमारी छोटी सी भूमिका पर गौर कीजिएःअब्दुल्ला खानदान से होना जम्मू-कश्मीर में वैसा ही है, जैसा बाकी हिंदुस्तान में नेहरू खानदान से होना. 'गुलामी' से लेकर 'आज़ादी' और फिर वहां से आगे तक के सफर में ये दो परिवार सत्ता के ठीक केंद्र में रहे हैं. हमारे समय पर इनके ऐसे दस्तखत हैं कि इनको खारिज नहीं किया जा सकता. इन्होंने ऐसे कदम उठाए जिससे आम लोगों की किस्मत तय हो गई, सदियों के लिए. इसी के साथ नेहरू-अब्दुल्ला में एक और समानता है. वो ये कि इन्हें लेकर आम लोगों की राय हद दर्जे तक ध्रुवीकृत है. ये 'हीरो' या 'विलेन' हैं. बस. इसके बीच में कुछ नहीं है.
हां, अब्दुल्ला होना थोड़ा अधिक जटिल है. क्योंकि इन्हें लेकर हर घटना तीन तरह से दर्ज है. एक उस तरह से जैसी वो दिल्ली से नज़र आई. एक उस तरह से, जैसी वो इस्लामाबाद से नज़र आई. और फिर एक उस तरह से, जैसी वो कश्मीर में देखी गई. ये तीनों नज़रिए पूर्वाग्रहों से बुरी तरह ग्रसित होते हैं. यही अब्दुल्ला होने की सबसे बड़ी त्रासदी है. उन्हें लेकर इतिहास कुछ ज़्यादा निर्मम रहा है शायद. इसीलिए शेख अबदुल्ला के जन्मदिन पर उनकी ज़िंदगी से कौनसा किस्सा सुनाया जाए, ये बड़ा सवाल है. इससे बड़ा सवाल ये, कि कैसे सुनाया जाए. उन्हें कश्मीर को हिंदुस्तान में मिलाने का श्रेय दिया जाए, या फिर कश्मीर कॉन्सपिरेसी रचने वाला गद्दार. उन्हें कश्मीरियों को उनकी गरिमा और जीने का हक लौटाने वाला समझा जाए, या फिर उनके मन में 'अलगाववाद' का बीज हमेशा के लिए बो देने वाला.

नेहरू, बादशाह खान और शेख अबदुल्ला श्रीनगर के निशात गार्डन में. नेहरू से अब्दुल्ला की गहरी दोस्ती थी. (फोटोःविकिपीडिया कॉमन्स)
इस कशमकश का जवाब हमें अशोक कुमार पांडे की फेसबुक पोस्ट में मिला. पढ़िए. आप खुद समझ जाएंगे हम ऐसा क्यों कह रहे हैंः
आज शेर-ए-कश्मीर शेख़ अब्दुल्ला का जन्मदिन है.
मां के गर्भ में पिता को खो देने वाले शेख़ ने उस ज़माने के बेहद मुश्किल हालात में पढ़ाई की. डॉक्टर बनना चाहते थे, लेकिन डोगरा शासन में वजीफा नहीं मिला. लाहौर से बीएससी की और फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एम एस सी. उसी दौरान भारत में चल रहे आज़ादी के आन्दोलन से परिचित हुए और गांधी के मुरीद होकर लौटे तो डोगरा शासन में उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली.
स्कूल में मुदर्रिस हुए. कश्मीर के उन हालात में प्रतिरोध संगठित करने के लिए 'रीडिंग रूम पार्टी' बनाई जिसमें पढ़े लिखे मुस्लिम नौजवान एक जगह इकट्ठे होते और कश्मीर तथा देश दुनिया के हालात पर बात करते. पहल 'मुस्लिम कॉन्फ्रेंस' तक पहुंची जो बाद में नेहरू के प्रभाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस बनी और कश्मीर के सभी वर्गों तथा समूहों की प्रतिनिधि बनी.
आगे का क़िस्सा लंबा है, हाल में नेहरू पर लिखे लेख में कुछ आया है कुछ किताब में. लेकिन एक बात जो निर्विवाद है वह यह कि शेख़ साहब कश्मीर के आमजन में हमेशा लोकप्रिय रहे. जब सड़कों पर उतरे, जनता का हुजूम उनके साथ आया. मज़हबी हिंसा पनपने तक न पाई उनके वक़्त में, अमीरों से ज़मीन छीन कर ग़रीबों को दी और कश्मीर जन को उनका सम्मान वापस दिलाना सदा उनके एजेंडे में सबसे ऊपर रहा.
उनकी जीवनी 'आतिश-ए-चिनार' उस दौर का जैसे इतिहास है कश्मीर का. खुशवंत सिंह ने इसका सम्पादन कर अंग्रेज़ी में पेंग्विन से छपवाया था लेकिन आश्चर्य कि हिंदी में किसी ने उसे लाने की कोशिश नहीं की. ग़ालिब और इकबाल के अशआर से भरी यह जीवनी उनकी संवेदनशीलता का भी एक आईना है.
ऐसा भी नहीं कि ग़लतियां उनसे नहीं हुईं. उन पर भी पर्याप्त लिखा पढ़ा गया है...लेकिन शेख़ का व्यक्तित्व उन सबके बावजूद दक्षिण एशिया के उस दौर के नेताओं में विशिष्ट है. उन्हें नज़रअंदाज़ करके कश्मीर तो क्या भारत का भी आधुनिक इतिहास नहीं लिखा जा सकता.
आज के दिन उन्हें श्रद्धांजलि और सलाम.

देवरिया के अशोक गोरखपुर यूनिवर्सिटी से पढ़े हैं. फिलहाल दिल्ली में आगाज़ ए यूथ मैगज़ीन में एडिटोरियल एडवाइज़र हैं. उनकी पोस्ट आप यहां क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.
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