कानपुर में मां-बेटी के जलने का जिम्मेदार क्या सिर्फ प्रशासन है?
सबसे बड़ा सवाल कि क्या किसी जमीन का टुकड़ा इतना कीमती हो सकता है, जिसके लिए दो जिंदगियों को दांव पर लगा दिया जाए?

क्या किसी कथित कब्जे को खाली करने का एक ही तरीका बुल्डोजर के तौर पर बचा है? क्या मुख्यमंत्री की बात का वजन लेना अधिकारियों ने छोड़ दिया है और इन सबसे बड़ा सवाल कि क्या किसी जमीन का टुकड़ा इतना कीमती हो सकता है, जिसके लिए दो जिंदगियों को दांव पर लगा दिया जाए? जलती आग के बीच बुल्डोजर चला दिया जाए? आज शो में सीधे सवालों के साथ बात, उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले में हुई घटना पर. जिसमें अतिक्रमण विरोधी अभियान में एक मां और उसकी बेटी की जलकर मौत हो गई. आज इस पर बात करना जरूरी इसलिए है क्योंकि ये खबर सिर्फ किसी की मौत से नहीं जुड़ी है, बल्कि कथित न्याय के बुल्डोजर कल्चर से जुड़ी है. उसके पीछे काम कर रहे तंत्र से जुड़ी हुई है.
उत्तर प्रदेश का कानपुर देहात जिला. जिसमें ना कानपुर जिले जैसी चमक है और ना ही बुंदेलखंड जैसा रूखापन. सब कुछ मिक्स सा है. कस्बाई इलाके में ठेठ कानपुरी भाषा, एक तरफ के ग्रामीण इलाकों जैसे इटावा,कन्नौज का प्रभाव और दूसरी तरफ बुलेंदखंड की बोली. वो साल 1977 का था जब कानपुर देहात को कानपुर से अलग कर नया जिला बनाया गया. 1979 में फिर से कानपुर में मिला दिया गया, 81 में फिर से अलग किया गया. 2010 के बरस मायावती सरकार में जिले का नाम रमाबाई नगर कर दिया गया. 2012 से फिर इसे कानपुर देहात के नाम से जाना जाने लगा. जिले के अलग होने, फिर एक होने और फिर अलग होने के पीछे का एक ही मकसद था कि जिले कि प्रशासन व्यवस्था को चाक चौबंद किया जा सके.
मगर ये जिला आज सुर्खियों में प्रशासन की ही नाकामी के साथ-साथ निदर्यी कार्रवाई की वजह से है. हो सकता है कि घटना आपको पता हो, हम बस रिमाइंडर के लिए बता देते हैं. एक फोटो वायरल हुई, जिसमें एक बुज़ुर्ग के चेहरे पर बेबसी का भाव, बेटी और पत्नी को न बचा पाने की टीस साफ़ झलक रही है. ये तस्वीर पिछले दो दिन से सोशल मीडिया पर चर्चा के केंद्र में है. तस्वीर में दिख रहे बुजुर्ग के चेहरे पर आग से झुलसने के निशान हैं. कानपुर देहात जिले के गढ़ा तहसील के मरौली गांव से. 13 फरवरी 2023 को ग्राम समाज यानी सरकारी कब्जे की एक जमीन से अतिक्रमण हटाने की प्रक्रिया के दौरान मां-बेटी की जलकर मौत हो गई. जिसके बाद से इलाके में तनाव है. SDM यानी एक PCS अधिकारी पर मुकदमा कायम हुआ है. SO समेत एक दर्जन से ज्यादा पुलिस वाले आरोपी बनाए गए हैं. सीधे-सीधे DM यानी IAS अधिकारी नेहा जैन की भूमिका पर सवाल हैं. और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एक बयान को केंद्र में रखकर सवाल किए जा रहे हैं.
सबसे पहले घटना की टाइम लाइन समझ लीजिए.
मरौली गांव में दीक्षित परिवार है. जो कई परिवारों में बंट चुका है. एक परिवार के मुखिया हैं कृष्ण गोपाल दीक्षित, एक के सिपाहीलाल दीक्षित, एक के गेदनलाल दीक्षित.जैसे कि देश के अधिकतर गांवों में होता है. विवाद की शुरुआत आपस में पट्टीदारी के झगड़े के साथ हुई. पट्टीदार गेदनलाल दीक्षित ने गोपाल दीक्षित के परिवार की शिकायत की. आरोप लगा कि गोपाल दीक्षित ने सरकारी जमीन पर कब्जा कर रखा है. सरकारी खाते में जमीन ग्राम समाज यानी GS के तौर दर्ज है. जिसका मालिकाना हक सरकार का होता है. गांव में गोपाल दीक्षित का एक छोटा घर है, परिवार बड़ा हुआ तो सालों पहले गांव से बाहर बगीचे में ग्राम समाज की उस जमीन पर एक झोपड़ी बना ली थी. जिसमें जिसमें वो अपने परिवार के अलावा मवेशियों को पाला करते थे.
>> शिकायत मिली तो प्रशासन ने 14 जनवरी 2023 को SDM मैथा ज्ञानेश्वर प्रसाद के आदेश पर गोपाल दीक्षित का घर तोड़ दिया. ताकि कब्जा खाली कराया जा सके.
>> परिवार ने आरोप लगाया कि बिना किसी पूर्व सूचना के उनका घर गिरा दिया गया.
>> घर गिराए जाने के बाद गाय-बकरी लेकर गोपाल दीक्षित कानपुर देहात की डीएम नेहा शर्मा के पास शिकायत के लिए पहुंचे.
>> पीड़ितगोपाल दीक्षित और उनके बेटे शिवम ने परिजनों के साथ डीएम मुख्यालय में धरना दिया. उन्होंने नया आवास मुहैया कराए जाने की मांग की.
>> DM ने उनकी बात तो सुन ली, मगर बदले में रूरा थाने में उनके खिलाफ अवैध कब्जे के लिए FIR दर्ज करवा दी.
>> इसके बाद जमीन पर गोपाल दीक्षित का परिवार छप्पर डालकर रहने लगा. साथ ही चबूतरे पर एक शिवलिंग भी स्थापित किया गया.
>> 13 फरवरी को अतिक्रमण हटाने के दस्ता फिर से मौके पर पहुंचा और उसके बाद सारा घटनाक्रम हुआ. झोपड़ी में आग लगी और दो महिलाओं की मौत हो गई. दो दिन के विवाद के बाद आज महिलाओं का अंतिम संस्कार किया गया. मौके पर लल्लनटॉप रिपोर्टर रणवीर पहुंचे.
ये तो हुई घटना की बात. अब आते हैं प्रशासन की कारगुजारियों पर. बहुत से लोग कह सकते हैं कि जब जमीन सरकारी थी, तो प्रशासन की तरफ से कब्जा खाली कराना गलत कैसे है? दरअसल गलत और सही के बीच खड़ा है सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का एक बयान. उन्होंने कहा,
“यह घटना दु:खद है. इसके लिए SIT काम कर रही है. हमें जांच रिपोर्ट का इंतजार करना चाहिए.यह एक संवेदनशील मामला है. मामले में दूध का दूध और पानी का पानी बहुत पारदर्शी तरीके से सबके सामने रखा जाएगा.”
सीएम योगी आदित्यनाथ ने साफ लहजे में कहा था कि अगर गांव की किसी जमीन पर, कोई गरीब व्यक्ति झोपड़ी बना या किसी तरह का कब्जा कर रहता है तो उसके घर पर बुल्डोजर नहीं चलाया जाएगा. उसे वहीं पर पट्टा दिया जाएगा और घर बनाने में मदद की जाएगी. यहां पर डीएम, SDM सबने मुख्यमंत्री की बात को अनसुना किया. पूरी ठसक के साथ एक बार नहीं, दो-दो बार एक गरीब व्यक्ति के घर को उजाड़ा. जिसकी भेंट दो मानवीय जिंदगियां भी चढ़ गईं. यहां आप SDM के लेटर की भाषा को पढ़िए, कार्रवाई की आक्रामकता भी समझ आ जाएगी. SDM इलाके के CO को चिट्ठी लिखी
कानपुर देहात की गाटा संख्या 1642 क्षेत्रफल 0.657 हेक्टेयर जमीन राजस्व अभिलेखों में ग्राम समाज की संपत्ति है. उक्त ग्राम समाज की संपत्ति पर लगभग 0.205 हेक्टेयर पर कृष्ण गोपाल ने पिलर और छप्पर डालकर अवैध कब्जा किया है. इसी लेटर में SDM मैथा ज्ञानेश्वर लिखते हैं, अतिक्रमणकर्ता बहुत ही दबंग और शातिर किस्म का व्यक्ति है. वो अस्थाई शिवलिंग और अतिक्रमण हटाते समय शांति भंग का प्रयास कर सकता है. इसी ग्राउंड अतिरिक्त पुलिस बल मांगा गया.
पूरे दल-बल के साथ SDM कार्रवाई करने पहुंचे थे. और ऐसा तो नहीं हो सकता है कि SDM झोपड़ी गिराने के लिए बुल्डोजर ले जाएं और जिले की DM को इस बात की जानकारी ना हो. अब वही डीएम घटना की जांच करा रही हैं.
मौतें हुईं तो बवाल हुआ,राजनीति इन्वॉल्व हुई. विपक्ष ने आरोप लगाए कि ब्राह्मणों पर अत्याचार किया जा रहा है. सरकार ने न्याय दिलाने का भरोसा दिया. डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक ने परिजनों से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर बात की. फिर होती है FIR जिसमें SDM, SO,कानूनगो, लेखपाल और जेसीबी ड्राइवर पर नामजद और 12 से 15 पुलिसवालों पर अज्ञात के तौर पर FIR दर्ज हुई. 302 के तहत दर्ज हुए मुकदमे में गोपाल दीक्षित के पटिदारों को नत्थी किया गया है. SDM और जेसीबी ड्राइवर को गिरफ्तार भी किया जा चुका है. DM ने भी मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दिए हैं. मगर सवाल है कि जिस डीएम पर खुद मामले में संलिप्त होने का आरोप है, क्या वो अपने खिलाफ जांच कराएंगी? क्या न्याय हो पाएगा? हमने भारत सरकार में पूर्व सचिव का पद संभाल चुके विजय शंकर पाण्डेय और यूपी के पूर्व DG विभूति नारायण राय से बात की. चूंकि मामला IAS अधिकारी से जुड़ा है.
जाहिर है न्याय की इस प्रक्रिया पर बाकायदा सवाल है. पुलिस अब इस मामले में घटनास्थल पर बनाए गए वीडियो फुटेज और फॉरेंसिक रिपोर्ट के आधार पर जांच में जुट गई है. इंडिया टुडे ग्रुप के संवाददाता संतोष कुमार शर्मा की रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस की तरफ से एक वीडियो बेहद महत्वपूर्ण सबूत के तौर पर लिया जा रहा है. कुल जमा ढाई मिनट का वीडियो है. क्या है उस वीडियो में?
वीडियो की शुरुआत में पीड़ित कृष्ण गोपाल दीक्षित की झोपड़ी के अंदर से होती है. जिसके अंदर उनका बेटा शिवम दीक्षित खड़ा नजर आ रहा है और वहीं झोपड़ी में एक तरफ जनरेटर रखा नजर आ रहा है. वीडियो में 9 सेकेंड से 12 सेकेंड के बीच में शिवम झोपड़ी से बाहर निकलते हैं और उनके पिता पीछे से हाथ में घास फूस लेकर बाहर जाते दिखाई देते हैं.
जैसे ही दोनों लोग झोपड़ी के बाहर निकलते हैं कि बाहर से मृतक प्रमिला दीक्षित कहती सुनाई देती हैं. आवै दे, आवै दे, और झोपड़ी के अंदर आ जाती हैं, पीछे से कृष्ण गोपाल भी वापस झोपड़ी में आ जाते हैं. फिर प्रमिला कहती हैं- हम जान दई देब. और दरवाजा बंद कर लेती है.
>>वीडियो के 28 सेकेंड पर प्रमिला झोपड़ी का दरवाजा बंद कर लेती हैं. इसके बाद वीडियो में बुलडोजर के आने की आवाज सुनाई पड़ती है.
>>वीडियो के 53वें सेकेंड पर महिला पुलिसकर्मी दरवाजे की तरफ बढ़ती नजर आती हैं और वहीं पीछे बुलडोजर भी नजर आता है.
>>58 सेकेंड पर महिला कांस्टेबल कुंडी खटखटाते हुए कहती हैं दरवाजा खोलो. ठीक 12 सेकेंड बाद दरवाजा खुलता है. तो अंदर से महिला की दरवाजा खुलते ही आवाज आती है,"आगी लगाई दई इन लोगन ने". यानी इन लोगों ने आग लगा दी.
>>वीडियो के 1 मिनट 15वें सेकेंड पर किसी आदमी की आवाज आती है कि इन लोगों ने आग लगा दी, पानी ले आओ.
>>1 मिनट 22 सेकंड पर मां बेटी झोपड़ी के अंदर खड़ी नजर आती हैं और प्रमिला चिल्लाती हैं, हाथ उठाकर कहती है इन लोगों ने आग लगा दी.
>>वीडियो के इसी हिस्से में झोपड़ी के ऊपरी हिस्से में आग नजर आती है, जिसमें से चिंगारियां नीचे गिर रही हैं और उस वक्त मृतक मां-बेटी झोपड़ी के अंदर खड़ी नजर आती हैं.
आग लगने की सूचना पर पुरुष कॉन्स्टेबल झोपड़ी तक पहुंचते हैं, पीले रंग की जैकेट और कंधे पर बंदूक टांगे एक सिपाही दरवाजे पर देखता है कि आग लगी है, पानी लाओ पानी लाओ कहते हुए वो भागता है. अब सबसे महत्वपूर्ण तस्वीर कैद होती है. वीडियो में 1 मिनट 52 सेकेंड पर जेसीबी झोपड़ी की तरफ बढ़ती नजर आती है. 10 सेकंड बाद यानी वीडियो में 2 मिनट 4 सेकंड पर जेसीबी झोपड़ी के घास पूस को लेकर बैक होती. मतलब ये कि आग लगने के बावजूद भी बुल्डोजर नहीं रुका, अलबत्ता चला दिया गया. फूस की झोपड़ी गिर पड़ती है. 5 सेकंड के बाद यानी 2 मिनट 11 सेकेंड पर झोपड़ी पूरी तरह जल उठती है और साथ में जलते हैं मां और बेटी.
परिवार का आरोप है कि आग प्रशासन के लोगों ने लगाई थी, प्रशासन का दावा है कि मृतक महिलाओं ने आग खुद से लगाई थी. किस पर क्या आरोप सच हैं, य तो अदालत में सिद्ध होंगे. मगर एक बात समझ से परे है कि जब झोपड़ी में आग लग गई थी तो उस वक्त बुल्डोजर चलाने का आदेश किसने दिया? क्या अधिकारी इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि उन्हें आग की चपेट में खड़ी दो जिंदगियों से ज्यादा जरूरी जमीन का एक टुकड़ा नजर आ रहा था. इस रवैये पर क्या सुनिए पूर्व ब्यूरोक्रेट क्या कह रहे हैं.
अब आ जाते हैं कि इस बुल्डोजर सिस्टम पर.
राज्य क्या है? राज्य एक क़रार है. राज्य, ज़िंदा लोगों का एक समूह है. लेकिन ये समूह और किसी और समूह से अलग है. मोटा-माटी चार पैमानों पर. पहला है मक़सद. राज्य की स्थापना होती है ताकि लोग व्यवस्थित और सुरक्षित रह सकें. दूसरा पैमाना है तरीक़ा. लोग जो एक साथ रहते हैं, एक राज्य के तहत रहते हैं उनपर कुछ क़ानून लागू होते हैं और क़ानून पालन करवाने के लिए नीतियां बनाई जाती हैं. तीसरा, अधिकारिक क्षेत्र और भौगोलिक सरहदें. और, चौथा मानदंड है संप्रभुता. इन्हीं चारों बिंदुओं की आत्मा में होता है न्याय. लेकिन बीते कुछ समय से एक अलग न्याय की चर्चा है. बुलडोज़र का न्याय; या जिसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर कहते हैं बुलडोज़र का अन्याय. जस्टिस मदन लोकुर लिखते हैं कि राज्य क़ानून पालन करवाने के और पालन न करने वालों को सज़ा देने में सेलेक्टिव हो गया है. गोली मारो के नारों को इग्नोर किया जाता है. लिंचिंग करने वालों को मालाएं पहनाई जाती हैं और नरसंहार के एलान को भी छोटा-मोटा उपद्रव बता दिया जाता है. लेकिन विरोध करने वालों पर, प्रदर्शन करने वालों पर बिना सोचे अगले ही दिन बुलडोज़र चल जाता है.
बीते साल 10 जून को प्रयागराज में हिंसा भड़क गई थी. हिंसा का मास्टरमाइंड बताया गया कारोबारी या ऐक्टिविस्ट जावेद मुहम्मद को. और, प्रशासन ने एक अलग कार्रवाई के तहत उनके घर पर बुलडोज़र चला दिया. आरोप लगे कि सरकार का विरोध करने की वजह से हुआ है. प्रशासन ने कहा, अनाधृकित निर्माण है. विरोध से कोई मतलब नहीं. लेकिन उस वक़्त बुलडोज़र की राजनीति पर चर्चा छिड़ी थी. बहुत सारे एडिटोरियल और आर्टिकल लिखे गए थे. प्रोफ़ेसर मकरंद परांजपे ने एक बहुत दिलचस्प टिप्पणी की थी. उन्होंने लिखा कि बुलडोज़र को बुलडोज़र कहना ही अपने आप में राजनीति है. आम प्रचलन में तो JCB कहा जाता है, जो उसके आविष्कारक जे सी बैम्फ़ोर्ड के नाम पर है. लेकिन JCB से वो पौरुष सुनाई नहीं देता, जो बुलडोज़र में देता है.
दिलचस्प ये भी कि उस वक्त जो लोग बुल्डोजर से हुए न्याय पर नारे लगा रहे थे, वो आज इसी बुल्डोजर को कोस रहे हैं. वजह आप समझ सकते हैं. उस वक्त जिसके घर पर बुल्डोजर चला, वो किसी और जाति और धर्म का था. अब किसी और.
अप्रैल 2022 में दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाक़े में जब बुलडोज़र चला था, तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सांसद कपिल सिब्बल ने एक आर्टिकल लिखा था. टाइटल: Bulldozing the diversity of our cultural identities. यानी हमारी सांस्कृतिक पहचान की विविधता पर बुलडोजर चलाना. दिल्ली के बुलडोज़र अभियान के संदर्भ में उन्होंने लिखा था, ‘हाल के दिनों में हुए अतिक्रमणों और अनधिकृत निर्माणों को लक्षित कर के उन पर बुलडोज़र चलाया गया. ये एक पैटर्न है. एक ख़ास क़िस्म की बहुसंख्यक मानसिकता का लक्षण है, जो दंडित करना चाहती है. अल्पसंख्यकों को चुप कराना चाहती है. उनके भीतर डर पैदा करना चाहती है. हमारी आबादी के लगभग 20% अल्पसंख्यकों को 80% की इच्छा के अनुरूप होना ही पड़ेगा. और, यही है 80-20 फ़ॉर्मूला. हम जो देख रहे हैं, वो केवल अनधिकृत ढांचों पर बुलडोजर चलाना नहीं है. असल में वो ज़िंदा ज़हनों पर बुलडोज़र चलाना भी है.’
पॉलिटिकल साइंस में राज्य और शासन को लेकर कई थियरीज़ हैं. कई मतभेद हैं, लाज़मी भी हैं, लेकिन कुछ-एक चीज़ों पर मान-मुनव्वल है. जैसे किसी भी सरकार की पैमाइश इस बात से तय नहीं होती कि वो कितनी एफ़िशियंट है, कितनी तेज़ी से काम करती है. बल्कि इस बात से तय होती है कि सरकार कितनी न्यायिक है. राज्य की अवधारणा में न्याय केवल ज़रूरी नहीं है, न्याय के बिना राज्य अकल्पनीय है. पर ये तो हुई किताबें बातें. किताबी थियरी तो ये भी है कि न्याय में देरी अन्याय है, जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं justice delayed is justice denied. और, सामने से तर्क ये आ सकता है कि राज्य केवल थियरीज़ पर तो नहीं चल सकता. कुछ प्रैकटिक्लैटी तो रहेगी ही. इतने सारे लोगों के सह-अस्तित्व की व्यवहारिकता तो होगी ही. तो देखते हैं कि सड़क पर क्या दिखता है? सड़क पर कितना न्याय दिखता है? हमारे-आपके जीवन की तरह ही राज्य के जीवन में भी जवाब ब्लैक या वाइट में नहीं हो सकता. ग्रे और ग्रे के शेड्स में होगा. मगर तर्क देने वालों से पूछा जाना चाहिए, कौन सा शेड किसी चार दिवार की दुनिया को ध्वस्त करने का अधिकार देता है? अगर बुलडोज़र या त्वरित इंकाउंटर न्याय है, तो भारत की गौरवशाली न्याय व्यवस्था क्या केवल फ़िल्म के सीनों तक महदूद है?
बीते गणतंत्र दिवस पर पॉलिटिकल साइंटिस्ट प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में एक एडिटोरियल में लिखा था: रिपब्लिक इन डार्क. खोज के पढ़िएगा. डॉ मेहता लिखते हैं, ‘संवैधानिक पतन की ओर इशारा करने वाली लगभग सभी प्रमुख प्रवृत्तियां हमारे सामने हैं. करिश्माई पॉपुलिज़्म, सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद, संस्थाओं में हस्तक्षेप और नागरिक समाज पर पूरा नियंत्रण. और तो और, संविधान पर हो रहे अतिक्रमण को अब इस तरह पेश किया जा रहा है, मानो वे सीधे लोगों की इच्छा से उभर रहे हों. चुनावी मैनडेट को कवर बनाकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संतुलन के सब विचारों को ख़त्म करने की कोशिश की जा रही है.’
मेहता आगे लिखते हैं,
‘एक फ़्रेज़ हुआ करता था - संवैधानिक नैतिकता. ये फ़्रेज़ सिद्धांतों, नियमों या संस्थानों के बारे में नहीं है. असल में संवैधानिक नैतिकता एक आह्वान है, कुछ विशेष तरह के गुणों का. जिसमें भिन्नता को पहचानना और उसके साथ सहज होना है. असहमति के साथ सहज होना है. आत्म-संयम रखना है और अपनी या उसकी पहचान के ऊपर विवेक को प्राथमिकता देना शामिल था. ये गुण अब कम दिखते हैं.’
सोशल मीडिया और अख़बारों में जो लिखा गया, उसे देख कर लगता है आइडिया ऑफ़ इंडिया और बुलडोज़र एक ही सड़क पर आ गए हैं. असमंजस बस इतनी है कि बुलडोज़र के सामने आइडिया ऑफ़ इंडिया है या आइडिया ऑफ़ इंडिया के सामने बुलडोज़र? और ये बुलडोजर कब किसके घर के सामने आ जाए. कह नहीं सकते.
वीडियो: दी लल्लनटॉप शो: क्या योगी आदित्यनाथ की नहीं सुनते अफसर? क्यों जलती रहीं मां-बेटी और चलता रहा बुलडोजर?