किसानों की MSP की वैधानिक गारंटी की मांग को WTO से क्या बड़ा खतरा है?
भारत के गरीबों के राशन और मछुआरों की नाव के पीछे भी पड़ा है WTO.
WTO की डायरेक्टर जनरल एनगोजी ओकोंजो (बाएं) के साथ पीएम नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो- पीटीआई)
नेताओं की कथनी और करनी में बड़ा अंतर होता है. ये बात सिर्फ हमारे नेताओं पर नहीं, दुनिया के हर नेता पर लागू होती है. वो नेता भी, जो देखने और जानने में बड़े अच्छे लगते हैं, लेकिन काम दोहरी नीति वाला करते हैं. जैसे कनाडा के क्यूटी पाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो. पिछले साल दिसंबर में भारत आए थे. तब जस्टिन ट्रूडो ने दिल्ली में आंदोलन कर रहे किसानों को समर्थन दिया था. खुद को भारत के किसानों का हितैषी दिखाने की कोशिश की थी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि उन्हीं दिनों कनाडा ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) में भारत में किसानों को दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का जमकर विरोध किया था और उसका आधिकारिक विरोध अब तक कायम है?
अब आप सोच रहे होंगे कि हमारे MSP से उन्हें क्या दिक्कत? तो हम ये कहेंगे कि दिक्कत सिर्फ MSP से नहीं है, बल्कि बंपर सरकारी राशन, एफसीआई के भरे हुए गोदामों, खाद-पानी पर सब्सिडी से लेकर मछुआरों के अपने ही देश के समंदर में मछली मारने तक से है. इन्हीं दिक्कतों और गिले-शिकवों की ग्लोबल पंचायत का नाम है WTO. इसका बायोडेटा बाद में अटैच करेंगे, फिलहाल ये जानते चलिए कि स्विट्ज़रलैंड के जिनेवा में करीब चार साल बाद 30 नवंबर से 164 देशों की सदस्यता वाले WTO का मंत्रिस्तरीय सम्मेलन होने वाला है और इसे लेकर अमीर और गरीब देशों के बीच लामबंदी व रस्साकशी तेज हो गई है. भारत ने एक बार फिर कहा है कि अमीर देशों के निशाने पर रहीं सब्सिडीज जल्दी खत्म करने के लिए विकासशील देशों पर दबाव नहीं बनना चाहिए और पहले से मिली मोहलत और ढील जारी रहनी चाहिए.
अमीरों को क्यों खटक रही गरीबों की सब्सिडी?
WTO के सम्मेलन को लेकर कहा जा रहा है कि अगर इसमें संशोधित फिशरी सब्सिडी एग्रीमेंट (FSA) को मंजूरी मिल गई तो अकेले भारत में ही करीब 40 लाख समुद्री मछुआरों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ जाएगी. भारत पर दबाव रहा है कि वह गरीबों को सरकारी राशन देने के नाम पर एफसीआई के गोदामों में बंपर स्टॉक जमा करता है और ब्लैक में होने वाली बिक्री भी बाजार में पहुंचकर कीमतें प्रभावित करती है. इसी तरह बिजली, पानी, उपकरण और फिर MSP जैसी सरकारी मदद के दम पर भारतीय किसान और मछुआरे ज्यादा उत्पादन करते हैं. इससे ग्लोबल मार्केट में दूसरे उत्पादक देशों को कॉम्पिटिशन का सामना करना पड़ता है.
लाखों मछुआरों की रोजी-रोटी पर खतरा
FSA प्रस्ताव के मुताबिक कोई भी सरकार समुद्र तट से 12 नॉटिकल मील (22 किमी) के दायरे में मछली मारने वालों को ही सब्सिडी देगी, जो समझौता लागू होने के 2 साल तक ही मिलेगी. उसके आगे 200 नॉटिकल मील (370 किमी) वाले एक्सक्लूसिव इकनॉमिक जोन (EEZ) में अनधिकृत और अनियमित फिशिंग पर पूरी तरह रोक होगी. भारत को इस पर सख्त ऐतराज है. उसका कहना है कि इससे भारत के 10 तटीय राज्यों में लाखों मछुआरों की रोजी-रोटी तो जाएगी ही, खाद्य संकट भी बढ़ेगा.
भारत मछुआरों को सिर्फ नाव, जाल और ईंधन जैसी सब्सिडी देता है. ये सब्सिडी सालाना 800 करोड़ रुपये से ज्यादा की नहीं है, जबकि कई विकसित देश अरबों रुपये शिप और तकनीक पर खर्च कर फिशिंग करा रहे हैं. भारत चाहता है कि EEZ में भी मछुआरों को सब्सिडी देने की छूट मिले और यह व्यवस्था कम से कम 25 साल तक जारी रहे.
भारत जैसे देशों पर टेढ़ी नजर के चलते वजूद में आया WTO
दूसरे विश्व युद्ध के बाद कई खस्ताहाल मुल्क अमीर और विकसित देशों की गुलामी से निकलकर अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहे थे. ये वो समय था जब हर तरह के असंतुलन को दूर करने के लिए नए-नए संगठन (UNO, IMF, WB) बन रहे थे. इसी इरादे के साथ GATT का गठन किया गया. इसे आप 1995 में बने WTO का पापा कह सकते हैं. GATT ने कहा कि अविकसित और खेती जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर मुल्कों को भी अपने उत्पाद दुनिया के दूसरे देशो में बेचने और मुनाफा कमाने की छूट दी जाए.
इस पर तमाम अमीर मुल्कों ने भी दरियादिली दिखाई. सहमति बनी कि वे इन देशों का कच्चा माल खरीदेंगे और उस पर टैरिफ या कोई भारी शुल्क नहीं लगाएंगे. मसलन, अमेरिका और ब्रिटेन कपड़ा तो बनाएंगे, लेकिन कॉटन नहीं उगाएंगे या बहुत सीमित पैदा करेंगे ताकि इन देशों से आयात कर सकें. इन देशों में उत्पादकों को सब्सिडी और सहूलियतें भी देने-दिलाने पर सहमति बनी.
लेकिन कुछ दशक बाद ही जब भारत, इंडोनेशिया से लेकर बांग्लादेश जैसे छोटे-छोटे देश दुनिया के मानचित्र पर बड़े एक्सपोर्टर के रूप में उभरने लगे, तब बड़े देशों को यह उदारवादी विचार खटकने लगा. विकासशील देशों को कई मायनों में विकसित कहा जाने लगा. मसलन, हरितक्रांति से होकर निकले भारत पर तोहमत लगी कि वह कृषि सब्सिडी के दम पर ही गेहूं, चावल, गन्ना, चाय और न जाने कितनी फसलों के उत्पादन में शीर्ष पर जा पहुंचा है. ऐसे में विश्व व्यापार में उसे कोई तरजीह क्यों मिले? ऐसे ही टकरावों के नतीजतन GATT की जगह WTO वजूद में आया.
सब्सिडी के ग्रीन, ऐम्बर और ब्लू सिग्नल
WTO के सभी सदस्यों में वर्षों पहले ही इस बात पर सहमति बन गई थी कि एक न एक दिन उत्पादन से जुड़ी सभी सब्सिडी खत्म करनी होगी. लेकिन यह काम चरणबद्ध तरीके से ही संभव है. इसके लिए सब्सिडी को तीन बक्सों में बांट दिया गया. ग्रीन बॉक्स सब्सिडी, ऐम्बर बॉक्स सब्सिडी और ब्लू बॉक्स सब्सिडी.
ग्रीन बॉक्स सब्सिडी की खुली छूट है. मसलन आप पर्यारण की रक्षा या किसी इलाके विशेष के विकास के लिए किसानों, मजदूरों, व्यापारियों को जो भी सब्सिडी देना चाहें देते रहें, बशर्ते उससे अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रभावित न हो. भारत की ज्यादातर खाद्य और कृषि सब्सिडी को ऐम्बर कैटेगरी में रखा गया. इन पर शिकंजा कसने की बात होती रही है. साल 2019 में पहले ही अमेरिका के विरोध पर WTO ने भारतीय निर्यातकों को मिलने वाली कई सब्सिडी स्कीमों पर रोक लगा दी थी.
इसीलिए भी किसानों को नहीं मिलेगी MSP की गारंटी
विकसित देशों को यहां तक खटक रहा है कि भारत के जिस पंजाब राज्य में सबसे कम बारिश होती है, वहां के किसान सालाना 8000 करोड़ रुपये की बिजली सब्सिडी के दम पर चावल निर्यात में झंडे गाड़ रहे हैं. ये बड़ी वजह है कि तीनों कृषि कानून रद्द करने का फैसला कर चुकी केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार किसानों को MSP की वैधानिक गारंटी शायद नहीं देगी. इसकी वजह केवल वित्तीय नहीं है, सरकार ऐसा करने से इसलिए भी हिचक रही है क्योंकि यह WTO में पहले हो चुकी कई सहमतियों का खुला उल्लंघन होगा.
हालांकि इस मोर्चे पर भारत अकेला नहीं है. वह विकासशील देशों के G-33 समूह का अगुवा है, जिसके नाम पर न जाएं तो इसके सदस्य देशों की संख्या 47 हो चुकी है. इन देशों ने WTO में अब तक भारतीय हितों को काफी समर्थन दिया है.
तो क्या बंद हो जाएगा गरीबों का राशन ?
WTO के नियमों के मुताबिक कोई भी देश कुल उत्पादन के 10 फीसदी मूल्य से ज्यादा की कृषि सब्सिडी नहीं देगा. जबकि भारत का सालाना फूड सिक्योरिटी बिल ही 2 लाख करोड़ (28.7 अरब डॉलर) रुपये से ज्यादा का है. WTO में पहल चल रही है कि 10 अरब डॉलर से ज्यादा की फार्म सब्सिडी पर तुरंत रोक लगा दी जाए और खाद्य सुरक्षा स्टॉक की नकेल भी कसी जाए. लेकिन जानकारों की मानें तो भारत में गरीबों का राशन इसके दायरे में नहीं आएगा, बशर्ते सरकार पीडीएस सिस्टम में सुधार और पारदर्शिता जारी रखे.
इस मुद्दे पर इंटरनेशनल कंज्यूमर पॉलिसी एक्सपर्ट बेजॉन मिश्रा ने ‘दी लल्लन टॉप’ को बताया,
‘WTO को इस बात से गुरेज नहीं कि आप गरीबों को कितना अनाज देते हैं. उसका विरोध सिर्फ ट्रेड-डिस्टॉर्टिंग सब्सिडी यानी व्यापार को प्रभावित करने वाली आर्थिक मदद पर है. भारत ने आधार कार्ड जैसे आइडेंटिफिकेशन तकनीक के जरिए पीडीएस में काफी पारदर्शिता हासिल की है, जिससे यह ग्लोबल अंदेशा दूर हो गया है कि फूड सिक्योरिटी के नाम पर किसी स्टॉक का गलत इस्तेमाल होता होगा. हालिया कृषि कानूनों से भी ग्लोबल मोर्चे पर भारत को काफी राहत मिल सकती थी. लेकिन MSP जैसे प्रावधान तो उन्हें खटकते रहेंगे.’
WTO की पिछली मंत्रीस्तरीय बैठक में भी भारत को अपने खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर काफी खरी-खोटी सुननी पड़ी थी. यह भी कम दिलचस्प नहीं कि विरोधियों में वो देश भी हैं, जो मानते हैं कि भारत में एक बड़ी आबादी अब भी भुखमरी और कुपोषण का शिकार है.