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वॉट्सएप्प पर शाहरुख खान के बारे में फैलता सबसे बड़ा झूठ

सिनेमा प्रेमियों के लिए बुरी खबर है.

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Source- Youtube screengrab
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ऋषभ
14 दिसंबर 2016 (Updated: 14 दिसंबर 2016, 01:59 PM IST)
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वॉट्सएप्प यूनिवर्सिटी पर एक मैसेज दनादन फैलाया जा रहा है. सच्चे देशभक्त के नाम से. शाहरुख की फिल्म रईस के बारे में. पढ़िए क्या कह रहे हैं लोग. हमने उसमें कोई बदलाव नहीं किया है. अक्षर-अक्षर वैसे ही लिखा गया है, जैसा मैसेज में है. सच हम आगे बताएंगे. पहले इसे पढ़ लीजिए- Quote 4शाहरुख़ खान की फिल्म रईस एक रियल लाइफ आतंकवादी अब्दुल लतीफ़ की कहानी है।इस से पहले की आप इस फिल्म को देखने का मन बनाये ये अब्दुल लतीफ़ कौन था ये जान लीजिए ।अब्दुल लतीफ़ का जन्म अहमदाबाद के कालूपुर नाम के मुस्लिम बाहुल इलाके में हुआ। अब्दुल लतीफ़ के 6 भाई बहन थे।इतने सारे भाई बहन होने की वजह से परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ खास नही थी। इसी कारन अब्दुल लतीफ़ पेसो की लालच में दारु बेचने वाले अल्ला रखा से रिश्ता जोड़ लिया। अब दोनों मिल कर दारु की स्मगलिंग किया करते थे । जिससे अब्दुल लतीफ़ ने खूब पैसे बनाये । इतने पेसो से अब्दुल लतीफ़ का मन नही भरा ।1990 के दशक में अब्दुल लतीफ़ ने पाकिस्तान में जाकर दाऊद इब्राहिम से एक मुलाकात की। जिसमे दोनों के बीच साथ में मिलकर धंधा करने और भारत में आतंक फैलाने का फैसला हुआ।अब दाऊद इब्राहिम का साथ मिलने पर अब्दुल लतीफ़ गुजरात में आतंक का पर्याय बन चूका था ।अब्दुल लतीफ़ की गैंग पुरे गुजरात में चारो और मर्डर हफ्तावसूली किडनैपिंग ड्रग्स चरस के लिए जानी जाने लगी।इसी बीच अब्दुल लतीफ़ को कांग्रेस पार्टी का साथ मिला और मुस्लिम बहुल इलाके कालूपुर में कारपोरेशन के चुनावो में 5 सीट जीत गया ।इसके बाद लतीफ़ ने 1993 बॉम्बे ब्लास्ट के लिए पेसो की फंडिंग की जिसमे 293 लोग मारे गए । और बाद में भी कई ऐसे आतंकी काम किये।लेकिन 1995 में गुजरात में लतीफ़ + कांग्रेस के गठबंधन से त्रस्त जनता ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता पे बिठाया। जिसके बाद आतंकवादी लतीफ़ को 1997 में एनकाउंटर करके भाजपा ने गुजरात को आतंक से मुक्त करवाया ।अब मित्रो आप ही सोचिये ये शाहरुख़ खान पाकिस्तान और दाऊद के दोस्त आतंकवादी लतीफ़ को हीरो की तरह क्यों पेश करके जनता को भ्रमित करने में लगा हुआ है ।शाहरुख़ खान का पाकिस्तान प्रेम किसी से छुपा हुआ नही है । इस लिए वो फिल्म में एक आतंकवादी को इस तरीके से पेश करेगा जैसे की ये आतंकी कोई रॉबिनहुड हो।अब फैसला आप का हे मित्रो की आप एक आतंकवादी जिसने हजारो की हत्याएं करवाई उसको हीरो के रूप में देखकर आतंकवादियो को हीरो बनाने वालो की हिम्मत बढ़ाना चाहते हो की इस फिल्म का संपूर्ण बहिस्कार करके आतंकवादियो को हीरो के रूप में पेश करने वालो को सबक सिखाना चाहते हो । फिल्म का संपूर्ण बहिस्कार करेये सन्देश 25 जनवरी को फिल्म रिलीज होने से पहले हर भारतीय तक पहुचाये । जय हिंद

 अब पढ़िए अब्दुल लतीफ की असली कहानी

1992 की बात है. अहमदाबाद के एक क्लब के सामने 4 लड़के कार से उतरते हैं. उनके हाथ में स्टेनगन है और एके-47 भी. अंदर घुसकर वो गोलियां चलाना शुरू करते हैं. 5 मिनट गोलियां चलतीं हैं, कुल 9 लोग मारे जाते हैं. वो वापस मारुति में चढ़ते हैं, गायब हो जाते हैं.
हमला करने वाला ये अब्दुल लतीफ शेख का गिरोह था. वही आदमी जिस पर कहा जाता है कि शाहरुख खान की अगली फिल्म बन रही है. रईस. मरने वाला आदमी था हंसराज त्रिवेदी. ये लतीफ के खिलाफ मजबूत होने लगा था. इसलिए उसको मार डाला गया. लेकिन उस रोज हंसराज और उसके लोगों के अलावा 6 बेगुनाह भी मारे गए थे.
अब्दुल लतीफ अहमदाबाद के दरियापुर इलाके में रहा करता था. उसके घर की हालत ठीक नहीं थी. परिवार बड़ा था इसलिए घर के सब लोग काम करते. इसी चक्कर में उसकी पढ़ाई भी नहीं हो पाई. कालूपुर ओवरब्रिज के पास देशी दारु बेचने से लतीफ ने क्राइम की दुनिया में प्रवेश किया. 70 के दशक तक वो छुटभैय्या ही था. फिर वो शराब के धंधे में उतर गया. वो विदेशी शराब की स्मगलिंग और सप्लाई करता. धीरे-धीरे अहमदाबाद के साथ उसका दबदबा पूरे गुजरात में फैल गया. लतीफ का ऐसा भौकाल था कि कोई भी बूटलेगर बिना उसकी मर्जी के शराब नहीं बेच सकता था. उसे शराब लतीफ से ही खरीदनी पड़ती थी. raees4_042916024704_042916061354बाद के दिनों में लतीफ ने हथियार स्मगल करने वाले शरीफ खान से जा मिला. अब वो शराब के साथ-साथ हथियारों की भी तस्करी करने लगा. फिरौती के लिए अपहरण, बंदूक की स्मगलिंग, सुपारी लेकर मर्डर करना यही उसके काम थे. इसकी कमाई से शहर कोट इलाके में रहने वाले बदमाशों को इकठ्ठा किया. अपनी गैंग बना ली. 1992 आते-आते उसके गैंग में 50 बदमाश थे. 500 छोटे-मोटे गुंडे उसकी मदद करते. उसके गिरोह के पास 4 एके-47 थी. 8 स्टेनगन थी. अर 100 के लगभग ऑटोमेटिक- नॉन ऑटोमेटिक हथियार थे. तब गुजरात के पुलिस उपायुक्त कहा करते थे. अगर इसको जल्द ही नहीं रोका गया तो ये अगला दाऊद इब्राहिम बन जाएगा.raees5_042916024755_042916061354 1985 में उसने निकाय चुनाव में चुनाव लड़ा. पांच सीटों पर. वो भी जेल में रहते हुए. ताज्जुब ये कि सारी सीटों पर चुनाव जीत गया. ये अपने में ही बड़ी अजीब सी बात थी.  1992 में लतीफ को तड़ीपार कर दिया गया. उसके सिर पर तब तक 8 मर्डर और 24 दूसरे अपराध लग चुके थे. लेकिन अहमदाबाद में उसका आना-जाना बेखटके चलता. वो किसी से नहीं डरता था क्योंकि उसके पीछे मुसलमानों का हाथ था. वो भी बेवजह नहीं.
उसने अपनी मसीहाई इमेज बना ली थी. बड़े सलीके से मुसलमानों को बरगलाए रखा. उनकी कमजोरी का फायदा उठाया. दंगों में उनकी मदद की. इसीलिए वो उसको संरक्षण देते. 'रईस' अगर लतीफ खान की जिंदगी पर ही बने और आप उसका महिमामंडन होते देखें तो यकीन जानिए कि ऐसा कुछ नहीं था. वो सिर्फ एक हत्यारा था जिस पर 40 से ज्यादा हत्याओं के केस थे.
खुद गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री अमर सिंह चौधरी ने उसके लिए कहा था कि बड़ी चतुराई से उसने मुसलमानों की कमजोरी को भुनाया है और उनका मसीहा बन बैठा है.raees2_042916024649_042916061354
लतीफ़ अपने तौर-तरीकों के लिए भी फेमस था. लोग उसे मसीहा तो मानते ही, कुछ उसको 'गुजरात का किंग' कहते. बताते हैं कि वो गुजरात की सड़कों पर 50 की स्पीड से कार दौड़ाता था. रिवर्स गियर में. उसके बारे में ये किस्सा भी चलता है कि उसके और दाऊद के बीच गैंगवार चलता था. एक बार लतीफ के आदमियों ने दाऊद को घेर लिया और उस रोज़ दाऊद को गुजरात छोड़कर भागना पड़ा.
हालांकि बाद में साल 1995 में वो दिल्ली में धरा गया. साबरमती जेल अहमदाबाद में बंद था. वहां से भागने की कोशिश की और एनकाउंटर में मारा गया.

तो क्या लतीफ मसीहा था?

जी नहीं. बिल्कुल नहीं. आतंकवादी था. उसका वही हश्र हुआ, जो हर आतंकवादी का होना चाहिए. पर इसमें पॉलिटिक्स शाहरुख को ले के हो रही है. क्योंकि वो खान हैं. अगर उनका नाम सौरभ मल्होत्रा होता तो शायद इतना बवाल ना होता. क्योंकि इससे पहले अजय देवगन कंपनी में दाऊद का रोल प्ले कर चुके हैं. वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई में भी गैंगस्टर बने थे. अमिताभ बच्चन तो कर ही चुके हैं. जॉन अब्राहम मनिया सुरवे का किरदार निभा चुके हैं. तो अब बात हो रही है शाहरुख की. टारगेट करना आसान है. माहौल वैसा ही बना है. तो घसीटना आसान है. राज ठाकरे से लड़े शाहरुख. फिल्म बनाएं तो माफी मांगे शाहरुख. क्यों? क्योंकि वो मुसलमान हैं? एक एक्टर से हटाकर उनकी पहचान एक मुसलमान की कर दी गई है. जो एक्टर राहुल प्ले कर के बड़ा हुआ.

पर क्या हमें वाकई में इसी आधार पर रईस का बहिष्कार कर देना चाहिए?

सिनेमा क्या है? टाइम और लोकेशन है. सच में यही है. एक टाइम, एक लोकेशन. फिर दूसरा टाइम, दूसरा लोकेशन. इसके बीच में चलता है इमोशन. जिसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं होता. पर फिर भी सिनेमाहॉल के अंधेरे कोने में बैठा इंसान पर्दे पर चल रही हर घटना के साथ ऊपर-नीचे होते रहता है. यहां तक तो सही है. समस्या वहां आती है जब लोग सिनेमा को रियल लाइफ में उतार के देखने लगते हैं. कंफ्यूजन हो जाता है. जैसे दारू पी के नदी में उतरने पर पानी के बहाव का पता नहीं चलता. इसी को शास्त्रों में माया कहा गया है. तो शाहरुख की फिल्म रईस को लोगों ने पाकिस्तान और आतंकवाद से जोड़ दिया है. क्या किसी को पता है कि शाहरुख लतीफ की जिंदगी को कैसे दिखाएंगे? क्या इस फिल्म की कहानी शाहरुख ने खुद लिखी थी? नहीं. राइटर ने लिखी. डायरेक्टर ने अप्रोच किया. शाहरुख ने हामी भरी. सिनेमा के लिए गैंगस्टर हमेशा ही सबसे इंटरेस्टिंग कैरेक्टर होता है. क्योंकि अपराधी होते हुए भी वो एक बनी-बनाई व्यवस्था के खिलाफ खड़ा रहता है. समाज के लिए वो चुनौती होता है. वो हमारी कल्पना को हिट करता है. वो चीजें सामने लाता है, जिन्हें हम सोच भी नहीं पाते. उसके अपराधों से त्रस्त इंसान तो असहाय रहता है. पर उसकी कहानी दिल के किसी कोने में अच्छी लगने लगती है. क्योंकि हर इंसान अपनी जिंदगी में कहीं ना कहीं किसी ना किसी से हारा होता है. और उस वक्त तो गैंगस्टर के अंदाज में ही बदला लेना चाहता है. पर उसकी बाकी जिंदगी के पहलू उस पर भारी पड़ते हैं तो वो कुछ करता नहीं. गुस्से को पी जाता है. गैंगस्टर की लाइफ जब पर्दे पर आती है तो सीन-सीन के हिसाब से लोगों को अपने बदले याद आते हैं. ना भी आएं तो कहीं कोने में छुपी याद हामी भरती है. इसका मतलब ये नहीं है कि दर्शक अपराधी से प्यार कर बैठते हैं. होता ये है कि अपराधी की जिंदगी के उन आइडियल चीजों को दिखाया जाता है जो बाकी लोगों की जिंदगी में घटित हुई होती हैं. हर सीन किसी ना किसी घटना का प्रतीक होता है. जब अमिताभ बच्चन दीवार फिल्म में हाजी मस्तान का रोल कर रहे थे तो वो हाजी मस्तान की जिंदगी पर आधारित था. पर उसकी जिंदगी का कच्चा चिट्ठा नहीं था. क्योंकि 3 घंटे की फिल्म में वो दिखाया नहीं जा सकता. इसलिए दिखाया वो जाता है जो उस गैंगस्टर के माध्यम से जमाने को निरूपित कर दे. तो एंग्री यंग मैन का रोल उस वक्त के युवाओं के व्यवस्था के प्रति क्रोध को ही दिखा रहा था. इसका मतलब ये नहीं था कि उसका महिमामंडन किया जा रहा था. सिनेमा में बस ये बताया जाता है कि क्या हुआ था. इसको ड्रामे की शक्ल दे दी जाती है. बस. आप अपने मन से जो खोजना है, खोज लो. आखिरकार हर गैंगस्टर समाज की ही तो पैदाइश होता है. सिस्टम से ही तो बनता है. तो ये एक नजरिया होता है उसकी जिंदगी को देखने का. अगर आप मकबूल फिल्म देखें तो इरफान खान का तब्बू के प्रति लस्ट उनको पावर की तरफ धकेलता है. वो अब्बा जी का कत्ल कर देते हैं. पर अंत में सब कुछ तहस-नहस हो जाता है. आप एक गैंगस्टर के इमोशन को देखते हैं. आप ये नहीं देखते कि वो क्या कर रहा है. वो तो आपको पता ही है. आप उसके मन में झांक रहे होते हैं सिनेमा के माध्यम से. हमें नहीं पता होता कि कोई गैंगस्टर कैसे अपनी जिंदगी जीता है. प्यार, मुहब्बत, लोग, पैसा क्या मायने रखते हैं उनके लिए. आखिर वो भी तो इंसान ही होते हैं. उसी तरह अगर ओमकारा फिल्म की बात करें तो कहीं से वो किसी अपराधी का महिमामंडन नहीं करती. इस फिल्म में तो ये बताना मुश्किल है कि कौन गलत था. बस वक्त, हालात को लेकर रची गई थी ये फिल्म. हम बस देख पाते हैं कि क्रूर लोग भी अपने इमोशन के अंदर कैसे टूटते हैं. सिनेमा की यही खूबसूरती है. हम वहां पहुंच जाते हैं, जहां जाने का कभी सोचा भी नहीं था. तो हमें शाहरुख की फिल्म रईस को इस आधार पर खारिज नहीं करना है कि वो लतीफ की जिंदगी पर बनी है. अगर अच्छी नहीं हुई तो खारिज तो हो ही जाएगी. अगर वो ये दिखाएं कि लतीफ बड़ा अच्छा इंसान था तो लोग बोर हो जाएंगे. वो स्पार्क तो लाना ही पड़ेगा कि गैंगस्टर की कहानी अपने वक्त के जमाने को कैसे दिखाती है.

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