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टिकटॉक को बैन की धमकी, फिर अमेरिका विदेशियों की जासूसी क्यों कराता है?

इस जासूसी कानून को लेकर अमेरिका में नए सिरे से बहस क्यों शुरू हुई है?

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अमेरिका के राष्जोट्रपति बाइडन
अमेरिका के राष्जोट्रपति बाइडन
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अभिषेक
29 मार्च 2023 (Updated: 29 मार्च 2023, 09:46 PM IST)
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23 मार्च 2023 को अमेरिका की संसद ‘कांग्रेस’ के अंदर टिकटॉक के सीईओ शाउ ज़ी च्यू से कड़ी पूछताछ चल रही थी. अमेरिकी सांसद ये जानना चाहते थे कि क्या टिकटॉक अपने यूजर्स का डेटा चीन सरकार को दे रही है? क्या टिकटॉक चलाने वाले अमेरिका यूजर्स की प्राइवेसी सुरक्षित है? और, क्या चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) टिकटॉक यूजर्स पर निगरानी रख रही है? 

टिकटॉक के सीईओ शाउ ज़ी च्यू

खैर, पांच घंटे तक चली सुनवाई के बाद भी कमिटी शाउ के जवाब से संतुष्ट नहीं हुई. उसने टिकटॉक पर बैन फ़ुलटाइम बैन के विकल्प की तरफ़ बढ़ने का फ़ैसला किया है. एक तरफ़ कांग्रेस चीनी ऐप को कथित जासूसी के आरोप में बैन करना चाहती है. वही कांग्रेस अपने देश के एक विवादित जासूसी कानून को मज़बूत करने जा रही है. ये कानून गूगल, मेटा और ऐपल जैसी कंपनियों को अमेरिका से बाहर रह रहे लोगों की निगरानी रखने के लिए मजबूर करता है. इसके जरिए खुफिया एजेंसियां हमारे-आपके फ़ोन, ईमेल और दूसरे मेसेज्स की पड़ताल कर सकती है. वो भी बिना किसी वॉरंट के. जो बाइडन का कहना है कि ये कानून  अमेरिकी नागरिकों की सुरक्षा के लिए बेहद ज़रूरी है. अब आपको टिकटॉक के केस में विडंबना नज़र आएगी. मतलब, तुम करो तो जासूसी, हम करें तो सुरक्षा. ये तथ्य है कि दो ग़लत मिलकर एक सही नहीं हो सकते. लेकिन इसके आधार पर अमेरिका को छूट देना भी कहां तक उचित है? ऐसे में अगर टिकटॉक पर बहस हो रही है तो अमेरिका के जासूसी कानून पर भी चर्चा ज़रूरी हो जाती है.

तो आइए जानते हैं,

- ये कानून किस तरह टिकटॉक पर लग रहे आरोपों से मेल खाता है?

- और, इस कानून को लेकर अमेरिका में नए सिरे से बहस क्यों शुरू हुई है?

और, बात होगी, अमेरिका और इज़रायल के झगड़े की. जानेंगे, इज़रायली पीएम नेतन्याहू ने बाइडन को क्यों झाड़ दिया?

इस कानून का नाम है, फ़ॉरेन इंटेलीजेंस सर्विलांस ऐक्ट (FISA). ये 1978 में लागू हुआ था. इस ऐक्ट के तहत, सरकारी एजेंसियों को विदेश से खुफिया जानकारियां हासिल करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस की मंजूरी मिली. इसमें टेलीफ़ोन, कैमरे, इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन, वायरटेपिंग जैसी चीजें थीं. जब इंटरनेट का चलन बढ़ा, तब इस ऐक्ट में सोशल मीडिया अकाउंट्स, ईमेल्स, फ़ोन मेसेज आदि को भी शामिल किया गया.

FISA की ज़रूरत क्यों पड़ी? इसकी तीन बड़ी वजहें थीं.

- नंबर एक. कोल्ड वॉर. इसकी एक दिलचस्प कहानी है. 1930 में यूएस आर्मी ने सिग्नल इंटेलीजेंस सर्विस (SIS) की स्थापना की. इनका काम दुश्मन देशों से आने वाले कोडेड मेसेज को डिकोड करना था. 1939 में इस यूनिट में मेरेडिथ गार्डनर नाम का एक शख़्स भर्ती हुआ. उसी बरस दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया. SIS का फ़ोकस नाज़ी जर्मनी और उसके सहयोगी देशों पर था. इसी दौरान उन्होंने सोवियत संघ के भी हज़ारों कोडेड मेसेज पकड़े. लेकिन उन्हें खोलकर पढ़ा नहीं. क्योंकि इस विश्वयुद्ध में सोवियत संघ और अमेरिका दोस्त थे. युद्ध खत्म होते ही ये स्थिति बदल गई. वे दुनियाभर के देशों पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए लड़ने लगे. ये कोल्ड वॉर की शुरुआत थी. अब दोनों देश एक-दूसरे को शक की नज़र से देखने लगे थे. ऐसे में अमेरिका ने सोवियत संघ के पुराने संदेशों को डिकोड करना शुरू किया. इसी कड़ी में गार्डनर को एक ऐसा मेसेज मिला, जिसमें मैनहटन प्रोजेक्ट से जुड़े वैज्ञानिकों की लिस्ट मिली. ये उस प्रोजेक्ट का कोडनेम था, जिसके तहत अमेरिका ने पहले परमाणु बम का परीक्षण किया था. गार्डनर को ये भी मालूम चला कि ये मेसेज किसी ‘लिबरल’ नामक एजेंट को भेजा गया था. उसकी पत्नी का नाम इथेल था. ये जानकारी जुटाने के बाद गार्डनर ने फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन (FBI) से संपर्क किया.

उन्होंने FBI एजेंट्स के साथ मिलकर पड़ताल शुरू की. जांच की कड़ी उन्हें जूलियस रोजेनबर्ग और इथेल ग्रीनग्लास तक ले गई. दोनों अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर थे. जूलियन ने यूएस आर्मी में भी काम किया था. 1945 में उसको कम्युनिस्ट पार्टी की मेंबरशिप छिपाने के लिए निकाल दिया गया. यूएस आर्मी में काम करने के दौरान भी वो सोवियत संघ को सीक्रेट्स बेच रहा था. जूलियस का एक साला भी था. डेविड. वो मैनहटन प्रोजेक्ट में मशीन चलाने का काम करता था. वो प्रोजेक्ट की सीक्रेट चीजें पहले जूलियस को बताता. फिर जूलियस उसे आगे पास करता था.

1950 में जूलियस, इथेल, डेविड और जासूसी कांड से जुड़े मुख्य किरदारों को गिरफ़्तार कर लिया गया. इनका मुख्य मकसद एटॉमिक सीक्रेट्स चुराना था. 1951 में अदालत ने उन्हें दोषी करार दिया. 1953 में जूलियस और इथेल को मौत की सज़ा दे दी गई.

आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि, इस मामले का FISA से क्या लेना-देना? दरअसल, FBI ने सबूत जुटाने के लिए न्यू यॉर्क में सोवियत संघ के एक दफ़्तर में चुपके से छापेमारी की थी. उन्होंने वहां से डॉक्युमेंट्स चुराए. इन्हीं के जरिए गार्डनर और FBI ने मिलकर जासूसों को पकड़ा और उनके ख़िलाफ़ सबूत हासिल किया था. इस ऑपरेशन की जानकारी किसी को नहीं दी गई थी. राष्ट्रपति तक को नहीं. उनका तर्क था कि अगर जानकारी बाहर आई और इस मामले को कोर्ट में लाया गया तो FBI के तरीके पर सवाल खड़े किए जाएंगे. और, ये भी संभव है कि केस को खारिज कर दिया जाए. इसी वजह से उन्होंने पूरे मामले को सीक्रेट रखा. तभी से एक ऐसे कानून की मांग होने लगी थी, जिसमें सर्विलांस को कानूनी अधिकार मिले. और, उसे बाकी दुनिया से छिपाकर भी रखा जाए.

क्यूबन मिसाइल क्राइसिस के बाद कोल्ड वॉर की तासीर कम हुई थी. 1970 के दशक में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच स्पाई वॉर चला. ऐसे में FISA जैसे कानून की ज़रूरत बढ़ने लगी थी.

- दूसरी वजह वॉटरगेट स्कैंडल से जुड़ी थी. इसका चैप्टर 1972 में शुरू हुआ था. वॉशिंगटन पुलिस ने डेमोक्रेटिक नेशनल कमिटी (DNC) के हेडक़्वार्टर में घुसपैठ करते पांच लोगों को गिरफ़्तार किया. इनमें से चार सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) के पूर्व एजेंट थे. पांचवां व्यक्ति तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के पूर्व वकील का सिक्योरिटी चीफ़ था. निक्सन प्रशासन ने इस स्कैंडल से पल्ला झाड़ने की पूरी कोशिश की. लेकिन वे नाकाम रहे. निक्सन के ऊपर महाभियोग का ख़तरा मंडराने लगा. आख़िरकार, अगस्त 1974 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. रिचर्ड निक्सन अमेरिका के अब तक के इतिहास में इस्तीफा देने वाले इकलौते राष्ट्रपति हैं. वॉटरगेट केस में निक्सन ने निजी फायदे के लिए DNC की निगरानी करवाई थी.

- नंबर तीन. फ़ोर्थ अमेंडमेंट. अमेरिकी संविधान के फ़ोर्थ अमेंडमेंट में कहा गया है कि, सरकार बिना किसी वॉरंट के किसी की तलाशी नहीं ले सकती और ना ही उसे गिरफ़्तार कर सकती है. फिर भी एजेंसियां नेशनल सिक्योरिटी का बहाना बनाकर लोगों की निगरानी कर रही थी. 1960 के दशक में FBI ने मार्टिन लूथर किंग जूनियर की जासूसी की थी. इसकी बहुत आलोचना भी हुई थी.

मार्टिन लूथर किंग जूनियर

इन सबके अलावा, खुफिया एजेंसियों की कार्रवाईयों पर संसद का कोई कंट्रोल नहीं था. कांग्रेस के सामने ऐसे कई सबूत आए, जिससे पता चला, CIA और FBI अमेरिकी नागरिकों के मेल पढ़ रही है. और, CIA के इशारे पर कई देशों में तख़्तापलट और हत्याओं की भी जानकारी मिली. उसी दौर में अमेरिकी संसद ने खुफिया एजेंसियों की गतिविधियों पर नज़र रखने के इरादे से कई कमिटियां और कानून बनाए. इसी क्रम में 1978 में FISA को लागू किया गया था. इसके तहत FISA कोर्ट बनाई गई. ये कोर्ट एजेंसियों की अपील पर वॉरंट जारी करती है.

FISA कोर्ट काम कैसे करती है?

अगर किसी एजेंसी को किसी व्यक्ति से ख़तरे की आशंका हो तो वो उसके ऊपर सीधे निगरानी नहीं रख सकती. उसे पहले FISA कोर्ट से वॉरंट लेना होगा. वॉरंट के लिए क्या करना होता है? उसके लिए तमाम तर्क और सबूत रखने होते हैं. क्यों? कोर्ट को आश्वस्त करने के लिए कि फलां शख़्स सच में मुल्क़ के लिए ख़तरा बन सकता है.
एजेंसी अपना केस लेकर सरकार के पास जाती है. फिर सरकार कोर्ट के सामने अपना पक्ष रखती है. अगर कोर्ट को केस जेनुइन लगता है तो वो वॉरंट पर मुहर लगा देती है. अगर नहीं ठीक लगता तो उसे लौटा देती है या पूरी अपील को खारिज कर देती है.

इस कोर्ट को पूरी तरह से गुप्त रखा गया है. पब्लिक डोमेन में इसकी लोकेशन की जानकारी उपलब्ध नहीं है. इसमें कुल 11 जज रोटेशनल बेसिस पर काम करते हैं. एक जज अधिकतम सात बरस तक FISA कोर्ट में काम कर सकता है. इस कोर्ट में जजों की नियुक्ति का अधिकार सिर्फ एक व्यक्ति के पास है. वो है, अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट का चीफ़ जस्टिस.

FISA कोर्ट को सर्विलांस का वॉरंट जारी करने के लिए सिर्फ एक अहर्ता पूरी करनी होती है. वो ये कि, संबंधित टारगेट एक फ़ॉरेन पॉवर है या उसका एजेंट है.

FISA कोर्ट की कार्यवाही को सीक्रेट रखा जाता है. उसका पब्लिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. समय-समय पर ये रिकॉर्ड जारी करने की मांग की जाती है. लेकिन कभी ऐसा हो नहीं सका है.

FISA कोर्ट अपने सामने आने वाली अधिकतर मामलों में वॉरंट जारी कर देती है. इन मामलों में क्या सबूत दिखाए जाते हैं, उनकी जानकारी कभी बाहर नहीं आई है. इसी वजह से उनकी दशा-दिशा सवालों के घेरे में रही है.

ये तो हुआ कोर्ट के काम का तरीका. अब इस पर मचे हंगामे की वजह भी जान लेते हैं.

FISA में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं. 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने सर्विलांस से जुड़े कानूनों को सख़्त बना दिया. सरकार ने FISA कोर्ट से भी दरख़्वास्त की. मसलन, 2006 में सरकार ने अमेरिकी नागरिकों का फ़ोन रिकॉर्ड्स देखने की अपील दायर की. कोर्ट ने इस पर मुहर लगा दी. इस प्रोग्राम के तहत नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (NSA) ने टेलीकॉम कंपनियों पर यूजर्स का डेटा रिलीज करने का दबाव डाला. कंपनियों को उनकी बात माननी पड़ी. ये बात लंबे समय तक छिपाकर रखी गई. फिर 2013 में NSA के एक कॉन्ट्रैक्टर एडवर्ड स्नोडेन ने एजेंसी के सीक्रेट्स मीडिया में रिलीज कर दिए. इसमें कई चौंकाने वाले खुलासे थे. पहला, अमेरिकी सरकार अपने करोड़ों नागरिकों पर नज़र रख रही थी. लोगों के कॉल डिटेल्स रिकॉर्ड किए जा रहे थे. वो भी, बिना किसी कोर्ट के वॉरंट के. टेलिकॉम कंपनियां सरकारी एजेंसियों के लिए माध्यम का का काम कर रहीं थी. लीक से पहले तक खुफिया एजेंसियां इस तरह की निगरानी से साफ़ मना कर रहीं थी.

दूसरी चीज़ ये पता चली कि NSA अमेरिकी टेक कंपनियों, जैसे, गूगल, फ़ेसबुक, याहू, माइक्रोसॉफ़्ट, यूट्यूब, एपल और स्काइप से दुनियाभर के लोगों का डेटा निकाल रही थी. उनके पास इन कंपनियों के सर्वर्स का एक्सेस है. इसे प्रिज़्म प्रोग्राम के नाम से जाना जाता था. गार्डियन ने खुलासा किया कि इसमें यूके की एजेंसियों की भी मिलीभगत है.

स्नोडेन ने 2013 में गार्डियन को दिए इंटरव्यू में कहा था

,NSA ने एक ऐसा सिस्टम तैयार किया है जिससे किसी भी चीज पर निगरानी रखी जा सकती है. बस वो चीज किसी नेटवर्क से जुड़ी होनी चाहिए.

तीसरी चीज ये पता चली कि NSA के पास दुनियाभर के लगभग हर ऐसे व्यक्ति का डेटा है, जिसने कभी फ़ोन या लैपटॉप का इस्तेमाल किया. इस लिस्ट में उन देशों के नागरिक थे, जिनके साथ अमेरिका के अच्छे संबंध थे. इन सबके अलावा, कई देशों के दूतावासों और लैटिन अमेरिकी सरकारों पर भी नज़र रखी जा रही थी. इस लीक के बाद भयंकर बवाल हुआ. 2015 में अमेरिका ने कानून बनाकर सर्विलांस पर रोक लगा दी.

अगर सर्विलांस बंद हो गई तो हंगामा क्यों बचा रह गया?

दरअसल, FISA में एक धारा है, सेक्शन 702. सारे झगड़े की जड़ यही है. इसमें क्या व्यवस्था है? इसके तहत, अमेरिका के अंदर किसी भी व्यक्ति की निगरानी की मनाही है. इसके बरक्स, ये सेक्शन अमेरिका से बाहर के लोगों की जासूसी की इजाज़त देता है. इसके जरिए अमेरिकी एजेंसियां विदेशी टारगेट्स के कम्युनिकेशन नेटवर्क पर निगरानी रख सकती है. और, अगर उनका मन हुआ तो इस डेटा को दूसरे सहयोगी देशों के साथ साझा भी कर सकती है. अल जज़ीरा ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है, सरकारों द्वारा दूसरे देशों में जासूसी की घटना आम है. लेकिन अमेरिका इस मामले में एक कदम आगे है. उसके पास गूगल, मेटा, अमेज़ॉन और माइक्रोसॉफ़्ट जैसी कंपनियों से डेटा हासिल करने के लिए कानून है.

एक तरफ़ अमेरिका डेटा सिक्योरिटी के नाम पर टिकटॉक पर बैन लगाने की तैयारी कर रही है. वहीं दूसरी तरफ वो सेक्शन 702 को ज़रूरी टूल बताकर जारी रखना चाहता है. 2021 में अमेरिका ने सवा दो लाख से अधिक लोगों की जासूसी कराई. आलोचक इसे अमेरिका का दोहरापन बता रहे हैं.

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