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यूएन में इज़रायल को बार-बार बचाने वाले वीटो की पूरी कहानी जान लीजिए

UN Security Council में मानवाधिकार उल्लंघन, जनसंहार और युद्ध अपराध के आरोपियों को बचाने वाले वीटो की कहानी क्या है? क्या वीटो पावर ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है?

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United Nations Veto Gaza War
08 दिसंबर को यूएन सिक्योरिटी काउंसिल में गाज़ा में संघर्षविराम के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोटिंग करते रॉबर्ट वुड. (फ़ोटो: AFP)
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अभिषेक
12 दिसंबर 2023 (Updated: 12 दिसंबर 2023, 05:53 PM IST) कॉमेंट्स
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08 दिसंबर 2023 को यूनाइटेड नेशंस (United Nations) में अमेरिका के उप राजदूत रॉबर्ट वुड ने यूएन सिक्योरिटी काउंसिल (United Nations Security Council) में गाज़ा में युद्धविराम (Gaza Ceasefire) के लिए लाए गए प्रस्ताव का समर्थन करने से मना कर दिया. इस तरह प्रस्ताव फेल हो गया. UNSC में कुल 15 देश हैं. अमेरिका इकलौता ऐसा सदस्य देश था, जिसने प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोटिंग की. 13 ने समर्थन में वोट डाला. एक देश ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया. 15 में से 13 वोट. सामान्य स्थिति में ये संख्या बहुमत के लिए पर्याप्त थी. लेकिन अमेरिका के एक वोट ने पूरी बाज़ी पलट दी. इसको कहते हैं, वीटो पावर. UNSC में ये शक्ति सिर्फ़ 05 देशों के पास है. अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटेन, रूस और चीन.

यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल की दिशा बताने वाला पोस्टर. (फ़ोटो: AFP)

आज समझिए,
- वीटो की पूरी कहानी क्या है?
- UN के संदर्भ में इसका मतलब क्या है?
- और, क्या वीटो मानवाधिकार उल्लंघन का हथियार बन गया है?

केम्ब्रिज डिक्शनरी के मुताबिक, किसी भी प्रस्ताव को लागू होने से रोकने की आधिकारिक शक्ति को वीटो कहते हैं. वीटो एक यूनीक तरह का वोट होता है. चाहे कितने ही लोग/पक्ष किसी प्रस्ताव से सहमत हों. अगर एक भी वीटो लग जाए, तो प्रस्ताव पास नहीं होगा. लेकिन ये ताकत एक ही दिशा में काम करती है. आप वीटो से प्रस्ताव रोक तो सकते हैं, लेकिन पास नहीं करा सकते. UN में इसका ज़िक्र सिक्योरिटी काउंसिल के संदर्भ में आता है. इसके पांच स्थायी सदस्य पक्ष में वोट करें, तो वो एक सामान्य वोट होगा. यही वोट विपक्ष में हुआ, तो वीटो बन जाएगा. 

ये भी पढ़ें: UN चीफ ने फिलिस्तीनियों पर रहम की अपील की, सुनते ही इजरायल ने बड़ा हंगामा काट दिया

UN और सिक्योरिटी काउंसिल क्या हैं?

UN दुनिया के 193 देशों का संगठन है. किसी भी अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन में इतने देशों का प्रतिनिधित्व नहीं है. इसके अलावा, दो को ऑब्ज़र्वर स्टेटस भी मिला है - वेटिकन सिटी और फ़िलिस्तीन. ये दोनों डिबेट्स में तो हिस्सा ले सकते हैं, लेकिन उनके पास वोटिंग का अधिकार नहीं है.

UN की स्थापना 24 अक्टूबर 1945 को हुई थी. सेकेंड वर्ल्ड वॉर खत्म होने के तुरंत बाद. हालांकि, इसकी चर्चा बहुत पहले - जून 1941 में ही शुरू हो चुकी थी. अंतिम बड़ी मीटिंग 25 अप्रैल 1945 से सैन फ़्रैंसिस्को में शुरू हुई. इसमें 50 देशों के प्रतिनिधि जमा हुए. बैठक 26 जून तक चली. इस दौरान यूएन चार्टर तैयार किया गया और उस पर दस्तख़त किए गए. पहला मकसद रखा गया - अगले विश्वयुद्ध की आशंका को आपसी सहमति से खत्म करना.

इस मकसद में मदद के लिए छह अंग बनाए गए,
- जनरल असेंबली. इसमें UN के सभी सदस्य देश शामिल होते हैं. इसकी सालाना बैठक सितंबर महीने में होती है.
- सिक्योरिटी काउंसिल. इसमें 15 सदस्य होते हैं. 05 स्थायी. और, 10 अस्थायी. अस्थायी सदस्यों का कार्यकाल 02 बरस का होता है. 
- इकॉनमिक एंड सोशल काउंसिल. ये आर्थिक सहयोग और विकास कार्यक्रमों के लिए काम करती है.
- ट्रस्टीशिप काउंसिल. 1994 के बाद इसने काम करना बंद कर दिया.
- सेक्रेटेरिएट. ये किसी भी सामान्य सचिवालय की तरह UN को सुचारू ढंग से चलाने में मदद करता है.
- और, इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस. ये UN की अदालत है. ये अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक देशों के बीच विवादों का निपटारा करती है.

यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल के अंदर की तस्वीर. (फ़ोटो: AFP)

इन सबमें सिक्योरिटी काउंसिल सबसे अधिक ताक़तवर है. कैसे?
- इसके पास देशों के ऊपर प्रतिबंध लगाने का अधिकार है.
- सिक्योरिटी काउंसिल देशों के साथ डिप्लोमैटिक रिलेशंस खत्म कर सकती है.
- किसी को सज़ा देने के लिए वॉर क्राइम ट्रायब्यूनल बना सकती है.
- और, ज़रूरत पड़ने पर किसी देश में सेना भी उतार सकती है.

सबसे बड़ी बात, जो भी प्रस्ताव सिक्योरिटी काउंसिल में पास होता है, वो सबको मानना पड़ता है. ये बाध्यकारी है.

प्रस्ताव कैसे पास होता है?

जैसा कि हमने पहले भी बताया, सिक्योरिटी काउंसिल में कुल 15 सदस्य होते हैं. किसी भी प्रस्ताव को पास कराने के लिए कम से कम 09 वोटों की ज़रूरत होती है. लेकिन एक और ज़रूरी शर्त है. क्या? किसी भी स्थायी सदस्य ने ख़िलाफ़ में वोट ना किया हो. या तो वे एब्सेंट हो जाएं. या हर कोई पक्ष में वोटिंग करें. जैसे ही किसी स्थायी सदस्य ने ‘नो’ कहा, वैसे ही पूरा प्रस्ताव धराशायी हो जाता है. 

लेकिन 05 ही क्यों?
अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ - ये तीनों दूसरे विश्वयुद्ध के विजेता थे. इन्होंने ही UN की नींव रखी थी. सो इनका स्थायी सदस्य बनना लाज़मी था. चौथा देश था - चीन. कम्युनिस्ट चीन नहीं. तब च्यांग काई-शेक वाले चीन को जगह मिली थी. अक्टूबर 1949 में च्यांग को ताइवान भागना पड़ा. उन्होंने रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना की. माओ वाला चीन कहलाया, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (PRC). PRC को 1971 में UN की सदस्यता मिली. वीटो का अधिकार भी. फिर ताइवान को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

नवंबर 1971 में यूनाइटेड नेशंस में पहुंचा चीनी प्रतिनिधिमंडल. (फ़ोटो: AFP)

पांचवां देश आया, फ़्रांस. यूं तो फ़्रांस दूसरे विश्वयुद्ध में हारा था. यूरोप में जर्मनी को हराने में उसकी भूमिका न के बराबर थी. फिर भी तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने ज़ोर देकर उसको शामिल करवाया. 

अमेरिकी राष्ट्रपति फ़्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने चीन के लिए लॉबिंग की थी. रूजवेल्ट एक और देश को सिक्योरिटी काउंसिल का स्थायी सदस्य बनाना चाहते थे. ये देश था, साउथ अमेरिका महाद्वीप का ब्राज़ील. मगर विंस्टन चर्चिल और जोसेफ़ स्टालिन इसके लिए तैयार नहीं हुए. इस तरह सिक्योरिटी काउंसिल में 05 स्थायी मेंबर रह गए. 78 बरसों के बाद भी इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है.

वीटो की ज़रूरत क्यों पड़ी?
स्थायी सदस्यों को बिग फ़ाइव का नाम दिया गया. वे अपना वर्चस्व हमेशा के लिए बनाकर रखना चाहते थे. सैन फ़्रैंसिस्को कॉन्फ़्रेंस में उन्होंने साफ़ कर दिया कि बिना वीटो पावर के UN नहीं बन सकता.

बिग फ़ाइव ने किस तरह से और किन-किन मुद्दों पर वीटो का इस्तेमाल किया है?
सिक्योरिटी काउंसिल का पहला सेशन जनवरी, 1946 में लंदन के वेस्टमिंस्टर के चर्च हाउस में आयोजित हुआ था. और, पहला वीटो फ़रवरी में आया. सोवियत संघ की तरफ़ से. लीबिया और सीरिया से विदेशी सेना की वापसी पर अमेरिका ने घुमावदार प्रस्ताव लाया था. सोवियत संघ ने इसके ख़िलाफ़ में वोटिंग की थी. तब से अब तक लगभग 300 बार वीटो का इस्तेमाल हो चुका है. 

1. सबसे ज़्यादा बार सोवियत संघ और विघटन के बाद रूस ने किया है. 1946 से 1968 तक हरेक वीटो सोवियत संघ ने किया था. अधिकतर प्रस्ताव नए देशों को UN की सदस्यता देने से जुड़े थे. शुरुआती दौर में सोवियत संघ के विदेश मंत्री व्यास्लाव मोलोतोव ने इतनी बार वीटो का इस्तेमाल किया कि उनका नाम ‘मिस्टर वीटो’ पड़ गया. 

2. दूसरे नंबर पर अमेरिका है. अमेरिका ने पहली बार 1970 में वीटो किया था. दक्षिणी रोडेशिया की आज़ादी के प्रस्ताव पर. इसी में ब्रिटेन का भी खाता खुला था. अमेरिका ने 35 वीटो इज़रायल के ख़िलाफ़ लाए गए प्रस्ताव पर किए हैं. इनमें से अधिकतर प्रस्ताव अवैध सेटलमेंट्स खाली करने और इज़रायल के ख़िलाफ़ वॉर क्राइम की जांच बिठाने से जुड़े थे. 

3. चीन ने पहला वीटो 1972 में किया था. बांग्लादेश को UN में शामिल करने के प्रस्ताव पर. 

4. फ़्रांस का पहला वीटो 1974 में आया था. 

1989 के बाद से फ़्रांस और ब्रिटेन ने किसी भी प्रस्ताव पर वीटो नहीं किया है.

वीटो पावर की आलोचना क्यों होती है?

03 वजहें हैं -

नंबर एक - ह्यूमन इंटरेस्ट पर भारी नेशनल इंटरेस्ट.
सिक्योरिटी काउंसिल का कर्तव्य था कि वो यूएन चार्टर के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय शांति को बनाकर रखे. उन्हें इस मकसद को निजी हितों के ऊपर रखना था. लेकिन समय के साथ इसमें खोट आती गई. स्थायी सदस्यों ने अपने सहयोगी देशों को बचाने के लिए नरसंहार, युद्ध अपराध और मानवाधिकार उल्लंघन जैसे संगीन अपराधों को नज़रअंदाज किया.

मसलन, 1994 में रवांडा नरसंहार के ख़िलाफ़ UN ने सही समय पर कदम इसलिए नहीं उठाए, क्योंकि फ़्रांस और अमेरिका ने वीटो की चेतावनी दी थी. 2011 में सीरिया में वॉर क्राइम के ख़िलाफ़ लाए गए प्रस्ताव पर चीन और रूस ने वीटो किया था. सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद पर केमिकल हथियारों का इस्तेमाल करने के आरोप लगते हैं. 

इसी तरह, अमेरिका, इज़रायल को बचाने के लिए वीटो करता रहा है. इज़रायल पर अवैध कब्ज़े, मानवाधिकार हनन और फ़िलिस्तीनी कार्यकर्ताओं की हत्या के आरोप हैं.

नंबर दो - निरंकुश शक्ति.
जिन भी देशों के पास वीटो पावर है, उन्हें स्वत: अभयदान मिला हुआ है. उनके ख़िलाफ़ लाया गया कोई प्रस्ताव पास नहीं हो सकता. क्योंकि वे उसे पास होने नहीं देंगे. ऐसा कई मौकों पर हो भी चुका है. यूक्रेन युद्ध में रूस की आलोचना करने वाले प्रस्तावों पर रूस ने वीटो किया. 2017 में अमेरिका ने जेरूसलम को इज़रायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी. और, अपना दूतावास भी शिफ़्ट किया. इसके ख़िलाफ़ UN सिक्योरिटी काउंसिल में प्रस्ताव लाया गया. 14 देशों ने अमेरिका को अपना फ़ैसला बदलने के लिए कहा. मगर अमेरिका ने इस पर वीटो कर दिया.

नंबर तीन - अपर्याप्त प्रतिनिधित्व.
UN सिक्योरिटी काउंसिल में दुनिया के सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व नहीं है. इसमें साउथ अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अफ़्रीका से एक भी देश नहीं है. भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन चुका है. अर्थव्यवस्था के मामले में भारत टॉप-फ़ाइव देशों में है. फिर भी उसको जगह नहीं मिली है. भारत के अलावा ब्राज़ील, जर्मनी और जापान ने भी दावेदारी पेश की है. मगर परमानेंट मेंबर्स के बीच एक अघोषित समझौता है. वे अपना प्रभुत्व किसी के साथ बांटना नहीं चाहते. इसके चलते सिक्योरिटी काउंसिल में बदलाव और सुधार की गुंजाइश घटती गई है.

इज़रायल-हमास जंग के बीच वीटो की प्रासंगिकता पर फिर से सवाल उठ रहे हैं. एक पक्ष कहता है, ये चुनिंदा देशों के अहं को साधने का उपक्रम भर है. जबकि दूसरा पक्ष तर्क देता है, वीटो चेक एंड बैलेंस का साधन है. इसके बिना दुनिया अराजक हो सकती है. फिर UN का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. 

वीडियो: ये UN सिक्योरिटी काउंसिल क्या है, जहां भारत के रास्ते में चीन रोड़ा बनकर खड़ा रहता है?

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