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क्या राजस्थान में फिल्म पद्मावत पर लगी रोक की असली वजह एक एनकाउंटर है?

वसुंधरा राजे दूध की जली हैं और अब छाछ भी फूंक-फूंक कर पी रही हैं.

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फिल्म पद्मावती का पोस्टर
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विनय सुल्तान
9 जनवरी 2018 (Updated: 9 जनवरी 2018, 08:14 AM IST)
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कुछ बदलावों के बाद आखिरकार सेंसर बोर्ड ने विवादित फिल्म पद्मावती, सॉरी पद्मावत के रिलीज की इजाजत दे दी है. यह फिल्म पहले एक दिसंबर को रिलीज होने वाली थी, अब इसे 25 जनवरी को रिलीज किया जा रहा है. हालांकि राजस्थान में इस फिल्म को लेकर गतिरोध जारी है .राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने घोषणा की है कि जरूरी बदलावों के बगैर फिल्म राजस्थान में रिलीज नहीं होगी.

यह सब तब हो रहा है जब सेंसर बोर्ड ने फिल्म में पांच बदलावों के साथ उसे U/A सर्टिफिकेट दे दिया है. सेंसर बोर्ड के सुझाए गए बदलावों के हिसाब से फिल्म का नाम पद्मावती से बदलकर पद्मावत कर दिया गया है. घूमर नाच को पद्मावती की 'गरिमा के अनुरूप' कर दिया गया है. फिल्म से पहले डिस्क्लेमर दे दिया गया है कि यह फिल्म इतिहास नहीं कहानी है. आखिरकार ऐसा क्या है कि वसुंधरा राजे को सेंसरबोर्ड की इजाजत के बावजूद फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की बात कहनी पड़ी.


मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे
मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे

वसुंधरा राजे के राजनीतिक करियर की शुरुआत 1982 में हुई थी. वो उस समय बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य बनी थीं. 1985 के विधानसभा चुनाव में वो धौलपुर से चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचीं. 1989 के लोकसभा चुनाव में वो झालावाड़ आ गईं और यहां से लोकसभा पहुंचीं. इसके बाद वो इस सीट से लगातार पांच बार सांसद बनीं.

2003 के राजस्थान विधानसभा चुनाव के वक्त बीजेपी नेतृत्व के संकट से जूझ रही थी. राजस्थान में बीजेपी के कद्दावर नेता भैरो सिंह शेखावत देश के उप राष्ट्रपति बन चुके थे. संगठन कई धड़ों में बंटा हुआ था और सत्ता के लिए रस्साकशी जारी थी. ऐसे में बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने वसुंधरा राजे को 2003 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर प्रोजेक्ट किया. इस तरह 1985 के बाद वसुंधरा राजे की सूबे की राजनीति में वापसी हुई थी.


फिल्म पद्मावती के खिलाफ प्रदर्शन करते करनी सेना के कार्यकर्ता
फिल्म पद्मावती के खिलाफ प्रदर्शन करते करनी सेना के कार्यकर्ता

वसुंधरा राजे के बारे में दो बुनियादी तथ्य जानने की जरूरत है. पहला कि वो ग्वालियर राजघराने से आती हैं. ग्वालियर की गद्दी सिंधिया मराठों के पास रही है. वसुंधरा भी इसी परिवार से आती हैं. दूसरा उनकी शादी धौलपुर राजघराने के हेमंत सिंह से हुई थी. धौलपुर राजस्थान में जाटों का राजघराना है. शाही परिवार से आने के बावजूद वसुंधरा कहीं से भी राजपूत नहीं हैं, ना ही वो ऐसा होने का दावा करती हैं.

2003 में वसुंधरा के राजस्थान की राजनीति में सक्रिय होने के बाद से ही वसुंधरा ने शाही पृष्ठभूमि के नाम पर सूबे के राजपूतों को अपने पीछे लामबंद करना शुरू किया. पिछले 15 साल से राजस्थान का राजपूत समाज ही उनका सबसे भरोसेमंद वोटर रहा है. इसकी झलक उनकी हालिया कैबिनेट में भी मिल जाती है. उनके दो सबसे करीबी मंत्री राजेन्द्र राठौड़ और गजेंद्र सिंह खीमसर राजपूत समाज से आते हैं.

एक एनकाउंटर और वोट बैंक का खिसकना

24 जून, 2017 के रोज चुरू के मालासर में राजस्थान के कुख्यात अपराधी आनंद पाल सिंह का एनकाउंटर हुआ. वो लंबे समय से फरार चल रहा था. आनंद पाल सिंह रावणा राजपूत समाज से आता था. 2006 में गोपाल फोगावट और जीवनराम गोदारा हत्याकांड के चलते उसका नाम पहली बार सुर्ख़ियों में आया था. 2006 में जीवन राम गोदारा की हत्या के बाद जाट नेताओं ने इस मामले को राजनीतिक तूल देना शुरू किया. जाट-राजपूत तनातनी के चलते राजपूतों की सहानुभूति आनंद पाल के प्रति बढ़ने लगी. वक़्त के साथ-साथ वो कई राजपूत युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गया.


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गैंगस्टर आनंद पाल सिंह

मालासर में हुए उसके एनकाउंटर के बाद राजपूत समाज का गुस्सा फूट पड़ा. पुलिस ने एनकाउंटर की जो कहानी बताई थी वो किसी काल्पनिक कहानी जैसी थी. अखबारों में छपी रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस के जवानों ने कांच की मदद से छत से गोली चला रहे आनंद पाल की पोजीशन देखी और उसे गोली मार दी. जबकि एनकाउंटर को रात में अंजाम दिया गया था. ऐसे में राजपूत संगठन इस एनकाउंटर को फर्जी बताते हुए प्रदर्शन करने लगे.

राजे सरकार इस प्रदर्शन पर काबू पाने में बुरी तरह से नाकामयाब रही. बढ़ते-बढ़ते प्रदर्शन इतना बड़ा हो गया कि वो राष्ट्रीय मीडिया में बहस का मुद्दा बन गया. प्रदर्शनकारियों के प्रति राजे सरकार के रवैये ने राजपूतों को और ज्यादा नाराज कर दिया.

इस साल के अंत में राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. राजस्थान में पिछले चार विधानसभा चुनाव से किसी भी पार्टी को दूसरा कार्यकाल नहीं मिला है. यहां हर पांच साल में सत्ता बदल जाती है. राजे भी इसी सत्ता विरोधी लहर का सामना करेंगी. इधर राजपूत संगठन चुनाव के हिसाब से नारे गढ़ना शुरू कर चुके हैं. मसलन 'मोदी तुझसे बैर नहीं, पर रानी की खैर नहीं' जैसे नारे सोशल मीडिया पर काफी लोकप्रिय हो रहे हैं. वसुंधरा राजे नहीं चाहती हैं कि ऐन चुनाव के मौके पर उनके सबसे मजबूत वोट बैंक में सेंध लगे. ऐसे में वो राजपूत सेंटिमेंट से जुड़े किसी भी मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रही हैं.




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