The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Nehru or Patel: who has applied article 370 in jammu and Kashmir

धारा 370 को पास कराने में सरदार पटेल का क्या रोल था?

जब धारा 370 लागू हुई तब नेहरू कहां थे?

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
लल्लनटॉप
20 फ़रवरी 2019 (Updated: 5 अगस्त 2019, 05:38 AM IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
piyush

पीयूष बबेले पत्रकार हैं. 2004 से अब तक वे देश के अनेक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में पत्रकारिता कर चुके हैं.  इस दौरान खोजी पत्रकारिता में उन्होंने अपनी विशेष पहचान बनाई है. पत्र पत्रिकाओं और वेबसाइट्स के लिए वह लगातार लिखते रहे हैं. इनमें से बहुत से लेख आजादी के बाद वाले इतिहास के भ्रामक चित्रण के खिलाफ रहे हैं.


पत्रकार पीयूष बबेले की हाल ही में प्रकाशित किताब 'नेहरू: मिथक और सत्य' में कश्मीर मुद्दे पर विस्तार से बातचीत की गई है. यहां पेश है धारा 370 से जुड़ा पुस्तक अंश:


 ‘‘जब नवंबर 1949 में हम भारत के संविधान को अंतिम रूप दे रहे थे. तब सरदार पटेल ने इस मामले को देखा. तब उन्होंने जम्मू और कश्मीर को हमारे संविधान में एक विशेष किंतु संक्रमणकालीन दर्जा दिया. इस दर्जे को संविधान में धारा 370 के रूप में दर्ज किया गया. इसके अलावा 26 जनवरी 1950 को राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से भी इसे दर्ज किया गया. इस अनुच्छेद के माध्यम से और इस आदेश के माध्यम से हमारे संविधान के कुछ ही हिस्से कश्मीर पर लागू होते हैं.’’    
                                                                                                                                         - जवाहरलाल नेहरू, 25 जुलाई 1952
1990 के दशक की शुरुआत में मेरे छोटे से कस्बे समथर की दीवारों पर नारा लिखा रहता था- 'धारा 370 खत्म करो.' इस नारे के आस-पास ही 'मंदिर वहीं बनाएंगे' के नारे भी लिखे रहते थे. तभी से यह नारा दिमाग के किसी कोने में पड़ा रहा. जब थोड़े बड़े हुए तो वयस्कों की, खासकर खुद को पढ़ा-लिखा मानने वालों की बातचीत में इसका आधा-अधूरा, कई बार तो निरा काल्पनिक, लेकिन बड़ा ही भयानक जिक्र सुना. उनके संवादों से ऐसा लगता था कि हमारे संविधान में यह कोई ऐसी चीज है जो भारत की एकता अखंडता के लिए बहुत बड़ा खतरा है. ये जितनी जल्दी हटा दिया जाए, उतना ही अच्छा होगा.
वह तो बहुत बाद में जब मेरी दिलचस्पी भारत के समकालीन इतिहास को जानने में हुई, तब पता चला कि यह भारत के संविधान का एक विशेष अनुच्छेद है, जो कश्मीर राज्य को भारतीय संघ में विशेष दर्जा देता है. लेकिन उससे बढ़कर आश्चर्य मुझे तब हुआ जब विद्वानों ने बताया कि संविधान में एक धारा 371 भी है, जो ठीक इसी स्वभाव की है, लेकिन कश्मीर के बजाय पूर्वोत्तर के राज्यों पर लागू होती है. इन दोनों धाराओं में वर्णित सामग्री तकरीबन एक सी है.
तो फिर हम धारा 370 को लेकर इतने आक्रमक क्यों रहते हैं और धारा 371 पर कभी कोई हल्ला क्यों नहीं होता. क्या इसकी वजह यह है की धारा 370 मुस्लिम बहुल कश्मीर राज्य से जुड़ी है, वहीं धारा 371 हिंदू, आदिवासी और कुछ हद तक ईसाई समुदाय वाले पूर्वोत्तर राज्यों से जुड़ी है.
धारा 370 के बारे में विस्तार से तो संविधान की किताब में पढ़ा जा सकता है, लेकिन यहां इतना जानना काफी होगा कि इसके तहत कश्मीर राज्य तीन विषयों में भारतीय संघ से जुड़ा है और बाकी मामलों में उसे स्वायत्तता हासिल है. इसी तरह देश के बाकी राज्य बहुत से मामलों में केंद्र के बनाए कानूनों का पालन करते हैं, जबकि बहुत से मामलों में राज्यों को अपने अलग कानून बनाने की छूट है. केंद्र और राज्य के बीच कानून बनाने की इसी छूट की वजह से देश के बहुत से राज्यों में गोवध पर प्रतिबंध है तो बहुत से राज्यों में गाय काटने और खाने पर कोई पाबंदी नहीं है. संविधान में यह गुंजाइश इसीलिए रखी गई है कि हर राज्य अपनी परंपरा और संस्कृति का पालन कर सके और किसी राज्य को अपनी आजादी में खलल महसूस न हो.
कश्मीर को यह ज्यादा छूट इसलिए मिली है, क्योंकि वह भारत में विशेष परिस्थितियों में आया और भारत में उसकी विशेष जगह है. यह मैं नहीं कह रहा हूं पंडित जवाहरलाल नेहरू इसी भाषा में लाल किले से अपने नागरिकों को और संसद में देश के सांसदों को समझाया करते थे. लेकिन जब उनका 25 जुलाई 1952 का मुख्यमंत्रियों को लिखा पत्र पढ़ा, तो चौंक गया.
'नेहरू: मिथक और सत्य' नेहरू के बारे में फैलाई जा रही भ्रांतियों को दूर करने में काफी मददगार है.
'नेहरू: मिथक और सत्य' नेहरू के बारे में फैलाई जा रही भ्रांतियों को दूर करने में काफी मददगार है.

पत्र का मजमून था-
‘‘भारतीय गणराज्य में जम्मू और कश्मीर का विलय उसी तरह हुआ, जिस तरह अन्य राज्यों का हुआ. बाद में दूसरे राज्यों ने भारत के साथ कहीं ज्यादा घनिष्टता से अपना विलय कर लिया, लेकिन कश्मीर ने ऐसा नहीं किया और कश्मीर ऐसा कर भी नहीं सकता था, क्योंकि हालात ही ऐसे थे. लेकिन ऐसा करने से भारत में उसका विलय किसी तरह से कमतर नहीं हो जाता. यह मामला हमारे सामने तब आया था, जब नवंबर 1949 में हम भारत के संविधान को अंतिम रूप दे रहे थे. तब सरदार पटेल ने इस मामले को देखा. तब उन्होंने जम्मू और कश्मीर को हमारे संविधान में एक विशेष किंतु संक्रमणकालीन दर्जा दिया. इस दर्जे को संविधान में धारा 370 के रूप में दर्ज किया गया. इसके अलावा 26 जनवरी 1950 को राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से भी इसे दर्ज किया गया. इस अनुच्छेद के माध्यम से और इस आदेश के माध्यम से हमारे संविधान के कुछ ही हिस्से कश्मीर पर लागू होते हैं. यह स्थिति जारी रही और अब भी जारी है. यह स्थिति इसी तरह कुछ और समय भी चल सकती थी, अगर जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा उनका संविधान बनाने के लिए काम नहीं कर रही होती.
यह एक कानूनी ढंग है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा यह एक मनोवैज्ञानिक तरीका है और इसे शुरुआत से ही स्वीकार किया गया है. हमने शुरू से ही कहा है कि कश्मीर के लोगों पर किसी तरह की जबरदस्ती नहीं की जाएगी, फैसला उन्हें ही करना है. अगर वह भारत छोड़ना चाहते हैं तो वे ऐसा कर सकते हैं, भले ही हमें इससे कितनी ही तकलीफ क्यों न हो. यदि हम कोई दूसरी नीति अपनाते तो वह हमारे बुनियादी सिद्धांतों खिलाफ होती, वह कश्मीर के लोगों से और दुनिया से हमारे वादे के खिलाफ होती. इसके अलावा यह उन आरोपों की पुष्टि करने वाला होता जो पाकिस्तान हमारे ऊपर लगाता है. इस कारण हमने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि कश्मीर के लोग ही कश्मीर के भविष्य का फैसला करेंगे. इसके अलावा, वही इस बात का फैसला करेंगे कि वह हमारे संविधान को किस हद तक स्वीकार करना चाहते हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरे राज्यों की तरह भारत के संविधान की एक इकाई होने के बावजूद उनके मामले में राज्य की स्वायत्तता बाकियों से ज्यादा है. यह हम पर और उन पर आयद है कि हम भविष्य में इसे घटा-बढ़ा सकें.
सच्चाई यह है कि हम लोगों को जो चीज एक साथ रखती है, वह न तो कानून है और न संविधान. बल्कि वह तो दोनों तरफ के लोगों की भावनाएं हैं और उनके एक समान आदर्श और लक्ष्य हैं. यही असली बंधन है. हम जो भी काम करते हैं, उसे इसी प्रस्थान बिंदु से आंका जाना चाहिए. इस नजर से देखें तो राज्य के जम्मू प्रांत में कश्मीर सरकार के खिलाफ चल रहा आंदोलन असल में गलत धारणा पर आधारित है. इस आंदोलन के कारण वह बंधन कमजोर होगा और इस आंदोलन के कारण कश्मीर के लोगों में बड़ी संख्या में अपने भविष्य को लेकर संदेह पैदा होगा.
जो धारा 370 लंबे समय से लोकस्मृति में नेहरू के काम के तौर पर दर्ज है, उसे क्या असल में सरदार पटेल ने बनाया था.
जो धारा 370 लंबे समय से लोकस्मृति में नेहरू के काम के तौर पर दर्ज है, उसे क्या असल में सरदार पटेल ने बनाया था? 

हमने शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों के साथ जो बातचीत की हैं, वह कई बार बहुत लंबी और थका देने वाली थीं, लेकिन तब तक कोई दिक्कत नहीं है, जब तक हम इस जटिल सवाल पर दोस्ताना और भाईचारे के माहौल में बात करते हैं. दुर्भाग्य से मुख्य रूप से प्रेस के प्रोपेगंडा के कारण बहुत से लोगों के दिमाग में संदेश और शक की धुंध छा गई है. मैं इस बात पर खुश हूं कि यह शक अब हट गया है. और हम साथ मिलकर काम कर सकते हैं. कश्मीर राज्य का भारतीय संघ का हिस्सा होने में हमारे कितने ही महत्वपूर्ण राजनैतिक और अन्य तरह के हित हों, लेकिन यह भागीदारी तभी टिक सकती है, जब हमारे बीच भरोसे और दोस्ती का रिश्ता हो. तभी इसका कुछ मूल्य है. इसी आधार पर हम अतीत में आगे बढ़े थे और इससे हमें बहुत फायदा हुआ है. यही वह आधार होगा जिस पर चलकर हम आगे भी बढ़ना चाहेंगे.”
नेहरू का यह पत्र धारा 370 को लेकर जितने सवालों का समाधान करता है, उससे कहीं ज्यादा जिज्ञासाओं को जन्म देता है. जो धारा 370 लंबे समय से लोकस्मृति में नेहरू के काम के तौर पर दर्ज है, उसे क्या असल में सरदार पटेल ने बनाया था.
इसके लिए जरा पीछे से बात शुरू करते हैं. सरदार पटेल के चुने हुए पत्र व्यवहार की भूमिका में वी शंकर इसकी पृष्ठभूमि बताते हैं
‘‘दरअसल हुआ यह कि जुलाई 1947 में देसी राज्य मंत्रालय की स्थापना हुई. सरदार उसके मंत्री बने और वी पी मेनन उनके सचिव नियुक्त हुए. 5 जुलाई को सरदार ने एक वक्तव्य निकाला और राजाओं से यह अपील की कि वे प्रतिरक्षा, विदेशी मामले और संचार व्यवस्था के तीन विषयों में भारतीय उपनिवेश के साथ जुड़ जाएं. उस समय राजाओं से इससे अधिक की मांग करने का कोई प्रश्न ही नहीं था. भारत में विलय के अलाावा राजाओं के एकाधिपत्य को कोई आंच नहीं आने वाली थी. उनके लिए अपनी भौतिक सत्ता छोड़ने का कोई प्रश्न खड़ा नहीं हुआ था.’’
शंकर आगे बताते हैं कि वी पी मेनन ने बहुत पहले तीन विषयों प्रतिरक्षा, विदेशी मामले और संचार व्यवस्था के आधार पर राज्यों के विलय की योजना तैयार की थी और गवर्नर जनरल लॉर्ड लिनलिथगो को भेजी थी. परंतु उन्होंने इस योजना पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसके बारे में कुछ नहीं किया.
लेकिन जब मेनन ने यही योजना बाद में सरदार को दिखाई तो “सरदार के उत्साहपूर्ण समर्थन से तथा उनकी सूचनाओं के अनुसार वी पी मेनन ने इस योजना को पुनर्जीवित किया और समय के अनुरूप बनाया. इस योजना के अनुसार सरदार ने अपना 5 जुलाई 1947 का वक्तव्य निकालकर देसी राज्यों तथा उनके राजाओं से अपील की कि वे भारतीय उपनिवेश के साथ मिल जाएं.’’
इस संदर्भ के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि नेहरू जो कह रहे थे, उसका क्या अर्थ है. नेहरू यही तो कह रहे थे कि जिस तरह बाकी राज्यों का भारत में विलय हुआ, उसी तरह जम्मू कश्मीर का भी भारतीय राज्य में विलय हुआ. जिन तीन विषयों की ऊपर चर्चा की गई है, शुरू में जम्मू कश्मीर की तरह ही अन्य राज्यों ने भी उन्हीं तीन विषय पर भारत में विलय किया था. जैसा कि ऊपर नेहरु जी समझाते हैं कि बाद में अन्य राज्यों ने भारत के साथ अपने रिश्ते को और घनिष्ठ कर लिया, जबकि जम्मू कश्मीर ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि उसकी परिस्थितियां अलग थीं. यही विचार जो कि शुरू से राज्यों के विषय में लागू किया गया था, संविधान सभा ने धारा 370 के माध्यम से संविधान में जम्मू कश्मीर के विशेष प्रावधान के संबंध में जोड़ दिया.
अपने भाषण में नेहरू यह भी कह रहे हैं कि धारा 370 संक्रमणीय है और इसके मुताबिक भारत और जम्मू कश्मीर दोनों ही समय के साथ अपने रिश्तों को और ज्यादा प्रगाढ़ या कमजोर कर सकते हैं. उनकी यह बात भी सच होते हुए हमने देखी. जब देश आजाद हुआ था, तब जम्मू कश्मीर में और बाकी देश में भी प्रांत के मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री (प्रीमियर) कहते थे, लेकिन बाद में वह सब मुख्यमंत्री कहलाने लगे. कश्मीर का प्रधानमंत्री काफी बाद में मुख्यमंत्री कहलाया. कहने को कश्मीर के पास धारा 370 है, लेकिन उसके बावजूद भारत सरकार ने वहां पिछले 30 साल से विशेष सैनिक कानून (अफस्पा) लगा रखा है. जिसके मुताबिक वहां काम करने में सेना को अतिरिक्त छूट हासिल है. जबकि पूर्वोत्तर को छोड़कर भारत के अन्य किसी राज्य में सेना को इस तरह के अधिकार नहीं दिए गए हैं. यानी धारा 370 के बावजूद भारत कश्मीर के साथ अपने संबंधों को जरूरत के हिसाब से ढालता रहता है.
इसलिए धारा 370 को लेकर पंडित नेहरू पर बहुत ज्यादा आक्षेप लगाना समझ से परे है, जब यह धारा भारत के बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप है, तो इसमें ऐसे ताज्जुब की बात क्या है.
पंडित नेहरू की अनुपस्थिति में सरदार पटेल नहीं चाहते थे कि ये प्रस्ताव गिरे.
पंडित नेहरू की अनुपस्थिति में सरदार पटेल नहीं चाहते थे कि ये प्रस्ताव गिरे.

वी शंकर पत्रव्यवहार वाली किताब में जम्मू और कश्मीर अध्याय की भूमिका में लिखते हैं कि “जम्मू कश्मीर के संबंध में सरदार की एक उल्लेखनीय सिद्धि यह थी कि उन्होंने भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 जुड़वाया, जो भारत के साथ कश्मीर राज्य के संबंध की व्याख्या करता है. इस सारे कार्य का संचालन श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने शेख अब्दुल्ला तथा उनके मंत्रिमंडल के साथ सलाह मशिवरा करके और पंडित नेहरू के समर्थन से किया था. नेहरू जी इस समय अमेरिका में थे, परंतु फार्मूले के मसौदे पर पहले से ही उनकी स्वीकृति ले ली गई थी. सरदार के साथ कोई परामर्श नहीं किया गया था. कांग्रेस पार्टी ने संविधान सभा में इस अनुच्छेद के मसौदे का जोरदार बल्कि हिंसक ढंग से विरोध किया, क्योंकि यह अनुच्छेद कश्मीर राज्य को एक विशेष दर्जा प्रदान करता था. सिद्धांत की दृष्टि से कांग्रेस पार्टी की यह राय थी कि कश्मीर को उन्हीं मूलभूत व्यवस्थाओं अर्थात् शर्तों के आधार पर संविधान को स्वीकार करना चाहिए, जिन शर्तों पर अन्य राज्यों ने उसे स्वीकार किया है.
पार्टी ने इस शर्त का विशेष रूप से जबरदस्त विरोध किया कि संविधानगत मूलभूत धाराएं, यानी बुनियादी अधिकारों संबंधी धाराएं, कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होंगी. गोपाल स्वामी आयंगर पार्टी को यह बात नहीं समझा सके, तब उन्होंने सरदार के हस्तक्षेप की मांग की. परंतु सरदार इस बात के लिए उत्सुक थे कि नेहरू जी की अनुपस्थिति में ऐसा कुछ ना किया जाए जो उन्हें (नेहरू को) नीचे उतारने वाला मालूम हो. इसलिए नेहरू जी की अनुपस्थिति में सरदार ने कांग्रेस पार्टी को अपना रवैया बदलने के लिए समझाने का काम हाथ में लिया. यह काम उन्होंने इतनी सफलता से किया कि संविधान सभा में इस अनुच्छेद की बहुत चर्चा नहीं हुई और न इसका कोई विरोध हुआ. यह काम सरदार ने अपने विश्वास के कितने विपरीत जाकर किया, यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि एक समय जब गोपाल स्वामी आयंगर ने पार्टी द्वारा स्वीकृत अनुच्छेद में कुछ फेरबदल किया तो सरदार ने कहा कि जब हमारी पार्टी ने शेख साहब की हाजिरी में सारी व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है तो उसके बाद उसमें परिवर्तन करना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है.”
वी शंकर के इस बयान से कुछ बातें साफ होती हैं. पहली धारा 370 संविधान में जोड़ना सरदार पटेल की बड़ी सिद्धि है. दूसरी यह कि यह धारा संविधान सभा में तब पास हुई जब नेहरू देश में थे ही नहीं. तीसरी यह कि नेहरू के समर्थन के बावजदू कांग्रेस का बड़ा हिस्सा धारा 370 के खिलाफ था. चौथी यह कि पटेल ने इस बड़े वर्ग को न सिर्फ समझाया, बल्कि बिना किसी खास चर्चा के धारा 370 को संविधान सभा में पास करा लिया.

पुस्तक: नेहरू मिथक और सत्य

लेखक: पीयूष बबेले

प्रकाशक: संवाद प्रकाशनमेरठ

मूल्य: 300 रुपये



वीडियो देखें:  चेतन भगत की नई किताब में इस वजह से सेक्स सीन नहीं है 

Advertisement