पहले भी झुकी है मोदी सरकार, 2015 में जमीन के मुद्दे पर भी किसानों ने किया था ये कमाल
2015 में किसानों के जबरदस्त विरोध ने सरकार को झुका दिया था
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फोटो : आजतक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज 19 नवंबर को राष्ट्र के नाम संबोधन में तीनों कृषि कानूनों (Farm Laws) को वापस लेने का ऐलान किया. कृषि कानूनों के खिलाफ किसान पिछले साल नवंबर से आंदोलन कर रहे थे. करीब साल भर से चल रहे इस आंदोलन के आगे सरकार को झुकना पड़ा और तीनों कानूनों को निरस्त करना पड़ा.
हालांकि, यह पहला मौका नहीं है, जब मोदी सरकार को किसी कानून को वापस लेना पड़ा हो. इससे पहले भी एक बार वह किसानों के विरोध के चलते कानून वापस ले चुकी है. आइये जानते हैं कि वह कानून क्या था और क्यों तब सरकार कानून वापस लेने को मजबूर हो गई थी.
दिसंबर 2014 में सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाई
साल 2013 तक देश में जमीनों का अधिग्रहण ‘भूमि अधिकरण अधिनियम, 1894’ के तहत होता था. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने अपने अंतिम दिनों में इस 110 साल पुराने कानून को बदला और इसकी जगह ‘भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013’ लेकर आई. लेकिन, साल 2014 में सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए इस कानून को बदलने की ठान ली. जिसका पूरे देश में जमकर विरोध हुआ.
मोदी सरकार का कहना था कि उसके द्वारा लाए जा रहे भूमि अधिग्रहण विधेयक से लोगों को उचित मुआवजा मिलेगा और अधिग्रहण की प्रक्रिया में पारदर्शिता आएगी. नए कानून में जमीन से विस्थापित होने वाले लोगों के पुर्नवास और दूसरी जगह घर दिलवाने का भी वादा किया गया था.
भूमि अधिग्रहण विधेयक का विरोध क्यों हुआ?
मोदी सरकार ने नए भूमि अधिग्रहण विधेयक में कुछ ऐसी बातें भी जोड़ी थीं, जिस पर पूरे देश में हल्ला मच गया. इस विधेयक के जरिए जो बदलाव 2013 के कानून में होने वाले थे, उन्हें पूरी तरह से किसान विरोधी माना जा रहा था.
उदाहरण के लिए, 2013 के कानून में यह भी प्रावधान था कि कोई भी जमीन सिर्फ तभी अधिग्रहीत की जा सकती है, जब कम-से-कम 70 प्रतिशत जमीन मालिक इसके लिए अनुमति दें. इस प्रावधान को किसानों के लिए सबसे हितकारी माना जाता था. लेकिन मोदी सरकार के संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया था.
कई प्रावधानों का असर कम करने के आरोप लगे
भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवारों और उन पर पड़ने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के मूल्यांकन का जो प्रावधान 2013 के कानून में था, उसे भी इस विधेयक से हटा दिया गया था. 2013 के कानून में यह भी प्रावधान था कि यदि अधिग्रहण के पांच साल के भीतर ज़मीन पर वह कार्य शुरू नहीं किया जाता, जिसके लिए वह अधिग्रहीत की गई थी, तो वह ज़मीन उसके मूल मालिकों को वापस कर दी जाएगी. इस प्रावधान को कुंद करने के उपाय भी 2014 के संशोधन विधेयक में किये गए थे.
'अफसरों पर सरकार की अनुमति के बिना मुकदमा नहीं'
मोदी सरकार पर इस संशोधन विधेयक के चलते यह भी आरोप लगे कि वह इसके जरिये दोषी अधिकारियों को बचाने की कोशिश कर रही है. दरअसल 2013 के कानून में प्रावधान था कि यदि भूमि अधिग्रहण के दौरान सरकार कोई बेमानी या अपराध करती है, तो संबंधित विभाग के अध्यक्ष को इसका दोषी माना जाएगा. लेकिन मोदी सरकार के संशोधन विधेयक में कहा गया कि किसी सरकारी अधिकारी पर सरकार की अनुमति के बिना कोई मुकदमा दायर नहीं किया जाएगा.
सहयोगी दल भी विरोध में उतरे
भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक में शामिल इन्हीं तमाम विवादास्पद पहलुओं के चलते उस समय मोदी सरकार चौतरफा घिरने लगी थी. जनता के बीच यह संदेश बेहद मजबूती से जा चुका था कि भूमि अधिग्रहण में जो संशोधन सरकार करना चाहती है, वे पूरी तरह से किसान-विरोधी और कॉरपोरेट के हित साधने वाले हैं.
विपक्ष ही नहीं बल्कि, भाजपा के कई सहयोगी दल भी इस मुद्दे पर प्रमुखता से सरकार के विरोध में उतर आए. शिवसेना ने तो इस मुद्दे पर भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया. शिवसैनिकों को निर्देश दिए गए कि वे किसानों को भूमि अधिग्रहण के कुप्रभाव बताएं. इसके अलावा अकाली दल और लोजपा ने भी इस विधेयक के कई प्रावधानों के खिलाफ सार्वजनिक तौर से नाराजगी जताई. विधेयक का विरोध इतना ज्यादा बढ़ गया कि 31 अगस्त, 2015 को पीएम मोदी ने अपने कार्यक्रम 'मन की बात' में संशोधन विधेयक को वापस लेने का ऐलान कर दिया.