The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Karni sena chief Lokendra Singh Kalvi: Man behind Padmavat Row

लोकेंद्र सिंह कालवी : इस आदमी के एक इशारे पर करणी सेना कुछ भी कर सकती है

राजस्थान की सियासत पर छाया यह आदमी आज तक एक भी चुनाव नहीं जीता है

Advertisement
Img The Lallantop
लोकेंद्र कालवी: करणी सेना के अधिष्ठाता
pic
विनय सुल्तान
25 जनवरी 2018 (Updated: 25 जनवरी 2018, 06:42 PM IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

"सती कोई 'प्रथा' नहीं है. यह कभी थी भी नहीं और ना कभी होगी. यह व्यक्तिगत निर्णय का मामला है. हमारी संस्कृति में हम मातृभूमि, धर्म और नारी की पूजा करते हैं. हम इसमें से किस भी चीज के लिए जान देने को तैयार हैं."

यह बयान था पूर्व केंद्रीय ऊर्जा मंत्री और राजस्थान के कद्दावर राजपूत नेता कल्याण सिंह कालवी का. 15 अगस्त 1987. देश स्वतंत्रता की 40वीं वर्षगांठ मना रहा था. इसके एक महीने बाद 4 सितंबर 1987 के रोज राजस्थान में आजादी मिलने के बाद 28वीं औरत थी जिसे सती बताकर जिंदा जला दिया गया. नाम रूप कंवर. जगह सीकर का छोटा सा गांव, देवराला. अपने पति माल सिंह की मौत के बाद 18 साल की रूप कंवर को पति के शव के साथ जिंदा जला दिया गया. रूप कंवर से 70 साल पहले भी इसी गांव की एक महिला सती हुई थी.


रूप कंवर अपने पति माल सिंह के साथ
रूप कंवर अपने पति माल सिंह के साथ

देवराला सती कांड काफी समय तक राष्ट्रीय मीडिया की सुर्ख़ियों में रहा था. उस दौर में राजस्थान में राजपूतों के दो बड़े नेता हुआ करते थे, भैरों सिंह शेखावत और कल्याण सिंह कालवी. भैरों सिंह शेखावत ने इस प्रथा को गलत बताते हुए इससे पल्ला झाड़ लिया था. रूप कंवर के मरने के 12 दिन बाद देवराला में उनके नाम पर 'चूनड़ी महोत्सव' होना था. कोर्ट ने इस महोत्सव पर रोक लगा दी थी. कोर्ट की रोक के बावजूद लाखों की तादाद में राजपूत देवराला में जुटने लगे. इधर मीडिया पूरे मामले पर हमलावर हुआ जा रहा था. ऐसे में कोई भी कद्दावर राजपूत नेता इस आंदोलन को लीड करने के लिए आगे नहीं आ रहा था. आखिरकार जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष कल्याण सिंह कालवी सती प्रथा के पक्ष में खड़े हुए. उनके इस कदम ने उन्हें राजपूत समाज के बीच और अधिक लोकप्रिय बना दिया.

इसके तीन साल बाद चंद्रशेखर के नेतृत्व में देश में 'सामाजिक न्याय' की सरकार चल रही थी और देवराला सती कांड के पक्ष में खड़े होने वाले कल्याण सिंह कालवी उनके मंत्रिमंडल में ऊर्जा मंत्री थे. यह सियासी उलटबासी कैसे संभव हो पाई? इसका जवाब देते हुए वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन कहते हैं-


"चंद्रशेखर सामाजिक न्याय की कसमें खाते हुए जानते थे कि उनकी एक पहचान राजपूत नेता के तौर पर भी है. उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी राजपूतों के खिलाफ बोलने का साहस नहीं दिखाया. कल्याण सिंह कालवी चंद्रशेखर के काफी करीबी माने जाते थे. जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने कल्याण सिंह को भी दिल्ली को बुला लिया गया."

बहरहाल मंत्री बनने के एक साल बाद कल्याण सिंह कालवी का देहांत हो गया. कल्याण सिंह कालवी के समय राजेंद्र राठौड़, प्रताप सिंह खाचरियावास जैसे कई युवा राजपूत नेता उनकी बिग्रेड में हुआ करते थे. उनके जाने के बाद ये नेता उनकी विरासत के साथ अलग-अलग राजनीतिक दलों में चले गए. पीछे रह गए उनके बेटे लोकेंद्र सिंह कालवी. ऐसा कहा जाता है कि कल्याण सिंह कालवी कभी भी अपने बेटे को सियासत में नहीं लाना चाहते थे. कल्याण सिंह कालवी की सियासत ग्राम पंचायत से शुरू हुई थी. वो लंबे समय तक निर्विरोध अपने गांव के सरपंच रहे थे. जब कल्याण सिंह सूबे की सियासत में चले गए उस समय नौजवान लोकेंद्र ने उनसे ग्राम पंचायत के चुनाव लड़ने की बात कही थी. ऐसा कहा जाता है कि उस समय कल्याण सिंह ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया.


कल्याण सिंह कालवी
कल्याण सिंह कालवी

इधर कल्याण सिंह जा चुके थे और उधर जनता दल कई टुकड़ों में टूट गई थी. ऐसी स्थितियों में लोकेंद्र सिंह कालवी बीजेपी में चले गए. इसी बीच आए 1998 के लोकसभा चुनाव. बीजेपी ने लोकेंद्र सिंह कालवी को बाड़मेर सीट से लोकसभा का टिकट दिया. 1989 में उनके पिता भी इसी सीट से चुनाव जीतकर आए थे.

कालवी बाड़मेर सीट पर बाहरी उम्मीदवार थे. जोगाराम राजपुरोहित इस सीट पर बीजेपी का टिकट मांग रहे थे. राजपुरोहित ने कालवी को खुद का टिकट कटने की वजह माना. वो पूरे प्रचार में कालवी के साथ रहे और अपनी बिरादरी के वोटों को कांग्रेस की तरफ धकेलते रहे. राजपूतों के अलावा रावणा राजपूतों को भी बीजेपी का परंपरागत वोट माना जाता है. एक प्रेम विवाह ने इन दोनों बिरादरियों को आमने-सामने खड़ा कर दिया.


लोकेंद्र सिंह कालवी
लोकेंद्र सिंह कालवी

विवाद की जड़ में थे चेतना देवड़ा और नरपत सिंह. दोनों का चयन राजस्थान पुलिस सब इंस्पेक्टर के लिए होता है. चेतना रावणा राजपूत परिवार से आती थीं और नरपत राजपूत परिवार से. जयपुर में ट्रेनिंग के दौरान दोनों में प्यार हो गया और दोनों ने आर्य समाज के मंदिर में जाकर शादी कर ली. इस मामले ने देखते ही देखते सियासी रंग पकड़ लिया. चुनाव पास ही में था. इस घटना की वजह से राजपूत समाज और रावणा राजपूतों में टकराव की स्थिति पैदा हो गई. इसका सीधा नुकसान लोकेंद्र कालवी को हुआ. वो कांग्रेस के कर्नल सोनाराम चौधरी को मिले 4,46,107 वोटों के मुकाबले 3,60,567 वोट ही हासिल कर पाए और चुनाव हार गए.

1998 के चुनाव के बाद बनी वाजपेयी सरकार ने 13 महीनों में अपना बहुमत खो दिया. एक बार फिर से लोकसभा के चुनाव होने जा रहे थे. लोकेंद्र सिंह फिर से टिकट चाहते थे लेकिन बाड़मेर से आने वाले बीजेपी के कद्दावर नेता जसवंत सिंह ने इस बार लग्गी लगा दी. दरअसल जसवंत सिंह यहां से अपने बेटे मानवेंद्र को चुनाव लड़ाना चाहते थे. ऐसे में उन्होंने कालवी के बाहरी होने का मामला उठाया और उनका टिकट काट लिया गया. यहां से कालवी और बीजेपी के बीच दूरियां बढ़ने की शुरुआत हुई.

राजपूतों का नेता

1999 में लंबे प्रदर्शन के बाद अशोक गहलोत सरकार ने राजस्थान में जाटों को ओबीसी में आरक्षण दे दिया. इसके बाद सूबे में नए सिरे से आरक्षण की मांग शुरू हुई. इसके कुछ ही साल बाद राजपूत, ब्राह्मण और दूसरी अगड़ी जातियों ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग शुरू कर दी. लोकेंद्र सिंह कालवी इस आंदोलन से जुड़ गए और इसके नेता बनकर उभरे.


देवी सिंह भाटी
देवी सिंह भाटी

2003 में सूबे में विधानसभा चुनाव होने थे. लोकेंद्र सिंह कालवी और कोलायत से बीजेपी विधायक देवी सिंह भाटी राजपूतों के लिए आरक्षण की मांग पर अड़े हुए थे. वो इसके लिए कई बार जयपुर में प्रदर्शन भी कर चुके थे. देवी सिंह भाटी कोलायत से लगातार पांच बार चुनाव जीत चुके थे. यह आंकड़ा उन्हें बगावत के लिए जरूरी साहस दे रहा था. जब उन्होंने देखा कि उनकी पार्टी राजपूत आरक्षण को लेकर गंभीर नहीं है, उन्होंने अपनी ही पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.

सितंबर 2003 में देवी सिंह भाटी को पार्टी को निष्कासित कर दिया गया. लोकेंद्र कालवी नए सिरे से अपने लिए राजनीतिक जमीन तैयार करने की कोशिश में लगे हुए थे. दोनों ने मिलकर नई पार्टी बनाई 'राजस्थान सामाजिक न्याय मंच'. सामाजिक न्याय मंच जाट आरक्षण आंदोलन का काउंटर नैरेटिव था. इनका कहना था कि अगड़ी जातियों में कई परिवार आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए हैं. ऐसे में वो लोग विकास की दौड़ में पीछे छूट जा रहे हैं. इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए. दूसरा जाट जैसी मजबूत जाति के पिछड़ा वर्ग में आ जाने से ओबीसी की दूसरी 200 से अधिक जातियों के आगे बढ़ने की संभावना सिकुड़ गई हैं. ऐसे में इस पर पुनर्विचार होना चाहिए.

2003 के विधानसभा चुनाव में सामाजिक न्याय मंच ने खुद को राजनीतिक दल के तौर पर रजिस्टर करवाया और 65 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए. इनमें से सिर्फ देवी सिंह भाटी ऐसे उम्मीदवार थे जो विधानसभा पहुंच पाए. 65 में से 60 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई. लोकेंद्र सिंह कालवी के लिए ये नतीजे निराश करने वाले थे.

बीजेपी सत्ता में थी और लोकेंद्र कालवी के विजेता कैंप में संभावना बहुत कम थीं. ऐसे में उन्होंने कांग्रेस का दामन थामने का फैसला किया. इस सिलसिले में वो देवी सिंह भाटी के साथ सोनिया गांधी से मिलने दिल्ली भी आए. दोनों नेता अपने लिए लोकसभा का टिकट चाहते थे. देवी सिंह की नजर बीकानेर सीट पर थी. बीकानेर सीट कांग्रेस के कद्दावर जाट नेता रामेश्वर डूडी के खाते में थी. ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व उनका टिकट काटने में असहज हो रहा था. देवी सिंह भाटी कोई और सीट अपने लिए नहीं चाहते थे ऐसे में यह समझौता वार्ता अधूरी रह गई. राजस्थान आने के बाद देवी सिंह भाटी फिर से बीजेपी में लौट गए और लोकेन्द्र कालवी ने कांग्रेस की राह चुनी.


श्री राजपूत करणी सेना

कांग्रेस में लोकेंद्र सिंह कालवी का निबाह नहीं हो रहा था. कांग्रेस संगठन के भीतर भी उन्हें किनारे लगाया जाने लगा. ऐसे में उन्होंने अपना नया संगठन खड़ा करने का फैसला किया. सितंबर 2006 में उन्होंने अजीत सिंह मामडोली के साथ मिलकर 'श्री राजपूत करणी सभा' की स्थापना की.


पद्मावत के खिलाफ प्रदर्शन करते करणी सना के लोग
पद्मावत के खिलाफ प्रदर्शन करते करणी सेना के लोग

2008 के विधानसभा चुनाव के वक़्त करणी सेना और कांग्रेस के बीच दो शर्तों पर समझौता हुआ. पहला कांग्रेस अगर सत्ता में आती है तो राजपूतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी. कांग्रेस 40 के करीब टिकट राजपूत समाज के लोगों को देगी. इस समझौते के बाद अजीत सिंह मामडोली को भी टिकट मिलने की उम्मीद थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मामडोली ने इसके लिए कालवी को जिम्मेदार ठहराया. इस तरह करणी सेना में पहली फूट पड़ी. लोकेंद्र सिंह कालवी करणी सेना से अलग हो गए और मामडोली ने 'श्री राष्ट्रीय राजपूत करणी सेना समिति' नाम से अपना अलग संगठन बनाया.

2010 में कालवी फिर से कांग्रेस में चले गए और नए सिरे से करणी सेना को खड़ा करना शुरू किया. इस बार उन्होंने सुखदेव सिंह गोगामेड़ी के हाथ में करणी सेना की कमान दी. 2015 में अंदरूनी खींचतान के बाद गोगामेड़ी को करणी सेना से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. गोगामेड़ी ने कालवी से अलग होकर नया संगठन खड़ा किया 'श्री राष्ट्रीय राजपूत करणी सेना'.


सुखदेव सिंह गोगामेड़ी
सुखदेव सिंह गोगामेड़ी

इस तरह आज राजस्थान में करणी सेना के तीन धड़े हैं. तीनों अपने को असली करणी सेना बता रहे हैं. तीनों अपने-अपने स्तर पर पद्मावत का विरोध करने में लगे हुए हैं. लेकिन फिल्मों का विरोध करने का चस्का करणी सेना को लगा कैसे?

एक कहानी के कई क्षेपक होते हैं

आप जब आमेर का किला घूम चुके होते हैं तो विदा लेने से पहले गाइड आपको एक दिलचस्प किस्सा सुनाता है. वो आपको बताता है कि दरअसल अकबर की शादी कभी राजा भारमल की बेटी जोधा से हुई ही नहीं. दरअसल भारमल ने अपनी एक दासी की बेटी को जोधा बताकर उसकी शादी अकबर के साथ कर दी थी.

जोधा और अकबर के बारे में राजस्थान में कई सारे मिथक हैं. 2008 में आशुतोष गोवारिकर ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर इसी नाम से एक फिल्म बनाई. सूबे में विधानसभा चुनाव थे. करणी सेना ने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए इस फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया. यह पहली मर्तबा था जब करणी सेना ने किसी फिल्म का विरोध किया था. यह पहली मर्तबा था कि यह संगठन राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी बना. इसके बाद करणी सेना को फिल्मों का विरोध करने का चस्का लग गया.


फिल्म जोधा अकबर का पोस्टर
फिल्म जोधा अकबर का पोस्टर

2013 में जी मीडिया ने जोधा अकबर की कहानी पर टेलीविजन सीरियल बनाया. एकता कपूर का बालाजी टेली फिल्म इस सीरियल का निर्माता था. करणी सेना इस सीरियल का विरोध करते हुए दिखाई दी. 2018 में पद्मावत ने इस संगठन को ऐतिहासिक फुटेज दी. संयोग की बात है कि इस साल के अंत में मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं.

लोकेंद्र सिंह कालवी समृद्ध राजनीतिक विरासत के वारिस थे. उनके बारे में कहा जाता है कि वो अपने राजनीतिक स्टैंड को लेकर बहुत हद तक अड़ियल हैं. यही वजह है कि वो किसी भी मुख्यधारा की पार्टी के साथ लंबे समय तक चल नहीं पाए. दूसरा उनकी महत्वाकांक्षा सूबे के सबसे बड़े राजपूत नेता बनने की है. सूबे की दोनों बड़ी पार्टियों के पास अपनी-अपनी राजपूत लॉबी है. कालवी राजपूत युवाओं के बीच बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन मतदान के दिन यह लोकप्रियता उतनी असरदार साबित नहीं हुई है.



यह भी पढ़ें 

'पद्मावती' दीपिका ने राजपूतों को जलाने वाला काम कर दिया है

पद्मावती का हश्र देख चुकने के बावज़ूद पीरियड फ़िल्म बनाने पर तुले हैं आशुतोष

पुलिस के डंडे खाकर राजपूतों ने लिखकर दिया- अब विरोध नहीं करेंगे

Advertisement