आज 'राजश्री के पापा' का जन्मदिन है. साठ और सत्तर के दशक के सिनेमा के सबसे सफल प्रोडक्शन हाउस राजश्री को बनाने वाले ताराचंद बड़जात्या के लिए ये पदबंध इसलिए बड़ा सही है क्योंकि उनके लिए सिनेमा में और परिवार में कोई ख़ास अंतर नहीं था. राजश्री की फिल्मों को आज भी 'महान भारतीय परिवार' की तमाम खूबियों और खामियों को जानने के लिए किसी टेक्स्ट की तरह पढ़ा जा सकता है.
खुद ताराचंद बड़जात्या की अपनी कहानी भी कम दिलचस्प नहीं. कुचामन, राजस्थान का लड़का. कलकत्ता के विद्यासागर कॉलेज से पढ़ा. 1933 में बम्बई आ गया और किसी बेगार की तरह सिनेमा की दुनिया में काम करने लगा. इसी लड़के ने 15 अगस्त 1947 में राजश्री पिक्चर्स की नींव डाली, जो कुछ ही सालों में हिन्दी सिनेमा की सबसे जानी मानी डिस्ट्रीब्यूशन कम्पनी बन गई. शोले, अमर अकबर एन्थोनी, विक्टोरिया नम्बर 23 और कुली जैसी फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूटर वही थे. 1962 में उन्होंने राजश्री प्रोडक्शन हाउस खोला और 1964 में बिना किसी स्टार के बनाई गई म्यूजिकल फिल्म 'दोस्ती' के साथ हिंदी सिनेमा में अपना सिक्का जमा दिया. उन्होंने 'चितचोर', 'दुल्हन वही जो पिया मन भाए', 'नदिया के पार' जैसी म्यूजिकल हिट्स बनाईं, तो पहली 'एजेंट विनोद' भी. इसके साथ महेश भट्ट की 'सारांश' जैसी फिल्म भी. तगड़ी स्क्रिप्ट और उससे भी शानदार म्यूजिक 'राजश्री' की फिल्मों के साइनपोस्ट बन गए.
लेकिन आज हम आपको बड़जात्या परिवार की उस बरात का किस्सा सुनाते हैं, जो ना होती तो आज के हिंदी सिनेमा का सबसे बड़ा नायक शायद दस हज़ार रुपल्ली वाली किसी दफ्तरी नौकरी में खट रहा होता.
पेश है: बड़जात्या के घर की बरात से निकली सलीम की 'बरात'
इंदौर में रहते हुए सलीम का पहला प्यार था क्रिकेट. वो भारत के लिए खेलना चाहता था. बड़े भाई हफीज़ खान आगरा यूनिवर्सिटी की टीम के कप्तान थे और रणजी खेलते थे. वैसे भी, सी के नायडू और मुश्ताक अली के शहर में बड़ा होता बच्चा क्रिकेटर बनने के सपने देखेगा ही. लेकिन सलीम को अपनी कहानी खुद लिखनी थी. किसी और शहर में, किसी और मायावी मनोरंजन माध्यम पर.
1958 की बात है. ताराचंद बड़जात्या अपने बेटे कमल बड़जात्या की शादी के लिए इंदौर पहुंचे थे. उस समय तक ताराचंद बडजात्या की फिल्म इंडस्ट्री में एक स्थापित डिस्ट्रीब्यूटर के तौर पर पहचान बन चुकी थी. ताराचंद बडजात्या साब के लड़के की बरात में बम्बई से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के तमाम जाने माने लोग पहुंचे थे. इन्हीं में एक थे निर्माता के. अमरनाथ, जो उन दिनों 'कल हमारा है' बना रहे थे.
सारे वीआइपी बराती लेंटिल्स इन में रुके थे. सलीम, जो उन दिनों इंदौर में जमकर क्रिकेट खेलते हुए जवानी के दिन काट रहे थे, अचानक के अमरनाथ से टकराए. सलीम पास ही के यशवंत क्रिकेट क्लब में प्रैक्टिस के लिए आया करते थे. अमरनाथ इस गबरू जवान को देखते ही फ़िदा हो गए और अपनी फिल्म में हीरो का रोल ऑफर कर दिया. सलीम ने हिचक दिखाई तो अमरनाथ ने कहा, दिलीप कुमार भी तो ऐसे ही सिनेमा में आये थे. उनको भी एक्टिंग का कोई एक्सपीरियंस नहीं था'. और आज देखो.. अमरनाथ ने 1000 रूपये सलीम के हाथ पर रखे और फ़ौरन बम्बई आने का वादा ले लिया.
ये सलीम थे सलमान खान के पिता, और मशहूर लेखक जोड़ी 'सलीम-जावेद' वाले सलीम खान. सलीम खान खुद बताते हैं, 'अमरनाथ जी ही मुझे फिल्मों में ले आये. उन्होंने कहा था कि बस एक बार मेरी 'कल हमारा है' को हिट होने दो, मैं अगली फिल्म में तुमको हीरो लांच करूँगा. लेकिन अफ़सोस, 'कल हमारा है' पिट गई. लेकिन उन्होंने मेरा साथ नहीं छोड़ा.' फिर 1960 में अमरनाथ ने ही अपनी फिल्म 'बरात' में सलीम खान को अजीत के भाई का रोल दिया. फिर सात-आठ साल तक अभिनय में संघर्ष करने के बाद जब सफलता नहीं मिली, सलीम खान पटकथा लेखन की ओर मुड़ गए, और हिंदी सिनेमा की अबसे सफल लेखक जोड़ी का जन्म हुआ. और आप चाहें तो ये भी जोड़ सकते हैं कि बड़जात्या परिवार की इसी बरात की वजह से हिंदी सिनेमा को उसका आज का सबसे चमकता सितारा मिला - सलमान खान.
लेकिन सिर्फ एक बरात के किस्से से सलमान की कहानी पूरी नहीं होती. सलमान की कहानी में बड़जात्या नाम को फिर आना था, उसे सचमुच का हीरो बनाने के लिए...
लेट 80s का दौर था. कई विशेषज्ञ इसे हिंदी सिनेमा की 'डार्क ऐज' भी कहते हैं. इस दौर का बॉलीवुड सिनेमा 'स्टार सन' अभिनेताओं से भरा हुआ था. ऐसे में एक असफल अभिनेता और पटकथा लेखक के बेटे को कौन पूछता. सलमान खान को इंडस्ट्री में एक्टिंग रोल पाने के लिए फाइट करते चार साल हो चुके थे और उनके खाते इक्का-दुक्का करैक्टर रोल के सिवा दिखाने को कुछ भी नहीं था. पिता ने भी कह दिया था कि वो कभी हीरो नहीं बन पायेगा.
उसी समय खबर आई की बड़जात्याओं का नया लड़का, ताराचंद बड़जात्या का पोता अपना डायरेक्टिंग डेब्यू करने वाला है, वो भी राजश्री के बैनर से. नाम है सूरज बड़जात्या. लेकिन संघर्षरत सलमान के लिए तब वो बहुत बड़ा बैनर था. बहुत सकुचाते हुए अंकल के कहने पर सलमान सूरज से मिलने गए और कहा, 'मुझे आपके साथ काम करके बहुत ख़ुशी होगी'. होनी भी चाहिये थी, आखिर सलमान के इस मायानगरी में आने की कहानी में बड़जात्या परिवार का नाम तो 1958 में ही लिख गया था.
लेकिन सूरज कहा, 'नहीं, मैंने तुम्हें साइन नहीं किया है. मैं दीपक तिजोरी और कुणाल गोस्वामी को शार्टलिस्ट कर चुका हूँ.' सलमान को लगा कि ये चांस भी गया. लेकिन फिर एक दिन राजश्री स्टूडियो से फोन आया और सलमान को ऑडिशन के लिए बुलाया गया. उनके नाम की सिफारिश कई मिलनेवालों ने सूरज से की थी. ऑडिशन में उन्हें कुछ डांस स्टेप करके दिखाने थे. सलमान उस दिन अपने साथ अपनी दोस्त फराह खान को ले गए थे और बाद में फराह ने उन्हें बताया कि वे बहुत खराब नाचे.
कुछ समय लगा, कुछ और पचड़े आये, लेकिन अंतत: सलमान को 'प्रेम' का रोल मिल गया. इसके आगे फिर इतिहास लिखा गया. प्रेम और सुमन की प्रेम कहानी 'मैंने प्यार किया' से जो सलमान की किस्मत का कबूतर उड़ा, जो उड़ान आज भी जारी है.