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जब 65 की लड़ाई में CRPF के जवानों ने पाकिस्तान की एक पूरी ब्रिगेड को खदेड़ दिया

9 अप्रैल, 1965 को साढ़े तीन हज़ार सैनिकों ने अचानक हमला कर दिया था.

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सरदार पोस्ट स्थित CRPF का युद्ध स्मारक. साथ में हैं बीएसएफ के जवान.
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9 अप्रैल 2019 (Updated: 9 अप्रैल 2019, 08:13 AM IST)
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संजीव नैयर ढेर सारे काम करते हैं. वो स्वतंत्र लेखक, ट्रैवल फोटोजर्नलिस्ट और चार्टड अकाउंटेंट हैं. एक वेबसाइट भी चलाते हैं, www.esamskriti.com नाम से. ये लेख उन्होंने अंग्रेज़ी वेबसाइट डेली ओ के लिए लिखा था. वेबसाइट की इजाज़त से हम इसका हिंदी अनुवाद आपको पढ़ा रहे हैं.

***

कुछ दिन पहले मैं कच्छ के रण में गया था. अंग्रेज़ी वालों का रन ऑफ कच्छ. वहां मैं सरदार पोस्ट देखने गया. यह भारत-पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय सीमा के ठीक पास में स्थित है. पोस्ट के पास ही केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) का एक स्मारक है. इस स्मारक को देखकर एक सवाल दिमाग में आया कि आखिर यह स्मारक यहां क्यों बनवाया गया होगा. और जो जवाब मिला, वो कुछ यूं था.

अप्रैल 1965 में पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा पर स्थित एक सैनिक चौकी पर हमला करने की योजना बनाई. भारतीय सीमा क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए उन्होंने ऑपरेशन ‘डेजर्ट हॉक 1’ शुरू किया था. 9 अप्रैल, 1965 की सुबह 3 बजे पाकिस्तान की 51 ब्रिगेड ने अपने 3500 सैनिकों के साथ रण ऑफ़ कच्छ की ‘टाक’ और ‘सरदार पोस्ट’ पर हमला किया. उस दिनों इस सीमा पर सीआरपीएफ और गुजरात राज्य पुलिस फ़ोर्स तैनात रहती थी (बीसीएफ की स्थापना उन दिनों नहीं हुई थी).
सीआरपीएफ देशभर में ड्यूटी देती है. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक.
सीआरपीएफ देशभर में ड्यूटी देती है. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक.

उस दिन सीआरपीएफ की दूसरी बटालियन की 4 कंपनियां सीमा पर तैनात थीं. 15 घंटे तक चली उस लड़ाई में भारतीय जवान बहादुरी से लड़े और पाकिस्तानी सेना को खदेड़ दिया. पकिस्तान ने अपने 34 जवान खोए. उनके 4 जवानों को कैदी भी बना लिया गया. सीआरपीएफ के जवानों ने भी बड़ी कुर्बानी दी. उनके 19 जवान पाकिस्तानियों ने कैद कर लिए. उस दिन सीआरपीएफ की दूसरी बटालियन के जवानों ने पाकिस्तानी सेना को लगभग 12 घंटे तक सीमा पर पैर नहीं रखने दिया.
लड़ाई की अगली सुबह कर्नल केशव एस पुणतेंबाकर ने इस इलाके का हवाई निरीक्षण किया था. उन्होंने लिखा,
''ऊंचाई से साफ नज़र आ रहा था कि दुश्मन को कहीं ज़्यादा नुकसान पहुंचा था. शायद इसीलिए उनका मनोबल टूट गया और वो इलाके पर कब्ज़ा नहीं कर पाए. ये हैरानी की बात है कि पूरे साजो-सामान से लैस पाकिस्तानी फौज की एक पूरी ब्रिगेड भारतीय सशस्त्र पुलिस की एक कंपनी को उसकी पोस्ट से डिगा नहीं सकी. वो भी तब, जब पाकिस्तानी ब्रिगेड के पास तोपखाने की मदद भी थी. सीआरपीएफ के मीडियम मशीन गनरों ने बेहतरीन तरीके से गोलीबारी की और पाकिस्तानी ब्रिगेड को इतना नुकसान पहुंचाया कि उन्होंने लड़ाई जारी रखने का विचार छोड़ दिया ''
आज इस सीमा तक आसानी से पहुंचा जा सकता है. यहां बाड़बंदी हो गई है और रात को फ्लडलाइट जलती हैं. अब 53 साल पहले की उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब यहां सिर्फ ऊंटों की मदद से ही पहुंचा जा सकता था. आज की तुलना में तब इस पूरे इलाके में इंसानों के रहने लायक ज़मीन बहुत ही कम थी. ये जगह रेत का एक समंदर थी. सीआरपीएफ का स्मारक उन्हीं बहादुर जवानों की याद ताज़ा करता है.
रण में बीएसएफ को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. दलदल वाली ज़मीन इनमें से पहली बस है.
रण में बीएसएफ को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. दलदल वाली ज़मीन इनमें से पहली बस है. (फोटोःsurabhsingh12.wordpress.com)

9 अप्रैल की वो लड़ाई दो कारणों से बड़ी महत्वपूर्ण मानी जाती है. पहला तो सीआरपीएफ और गुजरात की एसआरपी (स्टेट रिज़र्व पुलिस) की एक छोटी सी टुकड़ी द्वारा दिखाई बहादुरी. और दूसरा ये कि इसी लड़ाई के बाद सीमा सुरक्षा बल की स्थापना के बारे में सोचा गया. 1965 तक पाकिस्तान से सटी सरहद गुजरात स्टेट आर्म्ड पुलिस बटालियन के जिम्मे थी. उस दिन सरदार पोस्ट, छार बेट और बेरिया बेट पर हुए इस वाकये ने किसी सैनिक हमले की स्थिति में आर्म्ड पुलिस की कमियां ज़ाहिर कर दीं. तब भारत सरकार ने एक ऐसे सुरक्षा बल की जरुरत महसूस की जो केंद्र के नियंत्रण में रहे और जिसके पास पाकिस्तान से सटी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर तैनाती के लिए खास ट्रेनिंग और हथियार हों. इस तरह 1 दिसंबर 1965 में ‘सीमा सुरक्षा बल’ की स्थापना हुई, माने बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स.
सीमा सुरक्षा बल गुजरात, राजस्थान और पंजाब में पाकिस्तान की सीमाओं पर तैनात है. जम्मू-कश्मीर में जहां तक अंतर्राष्ट्रीय सीमा है, वहां तक बीएसएफ रहती है. इससे आगे एलओसी (नियंत्रण रेखा) पर ये भारतीय सेना के साथ ड्यूटी देती है. पूरब की तरफ भारत-बांग्लादेश की सीमा का ज़िम्मा भी बीएसएफ के पास है.
सरदार पोस्ट पर बना स्मारक.
सरदार पोस्ट पर बना स्मारक.

 
कच्छ वाला स्मारक ठीक वहीं स्थित है जहां 9 अप्रैल वाली लड़ाई लड़ी गई थी. यहां एक चबूतरे पर संगमरमर का एक पत्थर लगा है जिसपर उस लड़ाई का किस्सा लिखा है. ये स्मारक सीमा पर है और चारों तरफ से कंटीले तारों से घिरा है. यहां आम लोगों का प्रवेश वर्जित भी है. इसलिए गुजरात सरकार ने 2013 में धर्मशाला (गुजरात में भी एक धर्मशाला है) की एक सीमा चौकी पर इसी लड़ाई की याद में एक और स्मारक बनवाया. ये दोनों ही स्मारक कहीं बेहतर हो सकते थे. मिसाल के लिए रेज़ांग ला वॉर मेमोरियल की तरह. मैं रेज़ांग ला जा चुका हूं. यहां पहुंचने के लिए पांगोंग झील से आगे पूरे पांच घंटे की दूरी तय करनी पड़ती है. सरदार पोस्ट की ही तरह ये इलाका भी बहुत दुर्गम है. लेकिन 13 कुमाउं रेजिमेंट के 114 जवानों की याद में बना रेज़ांग ला वॉर मेमोरियल देखते ही बनता है. गृह मंत्रालय को सीआरपीएफ के शहीदों के लिए रेज़ांग ला की तर्ज़ पर एक युद्ध स्मारक सरदार पोस्ट पर भी बनाना चाहिए. तब जाकर एक औसत हिंदुस्तानी उन जवानों की शहादत और बीएसएफ की शुरुआत की कहानी जान पाएगा.
जब कोई इतनी दूरी तय कर सरदार पोस्ट जाकर इस स्मारक तक पहुंचेगा तो वो बीएसएफ के जवानों के सामने आने वाली चुनौतियों को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे. गर्मियों में यहां का तापमान 45 डिग्री से भी ऊपर होता है. बीएसएफ़ के एक अधिकारी ने मजाकिया लहजे में बताया कि इस इलाके में जवान पूरे समय ध्यान (याग वाला ध्यान) में रहते हैं. क्योंकि ना तो यहां संचार के साधन हैं ना ही कोई शोरगुल. इतने संघर्षों के बावजूद यहां सैनिक खुशमिज़ाज और ऊर्जावान लगे. सीमा पर जाने के लिए आपको तरह-तरह की अनुमतियां लेनी होती हैं और इन सबकी जांच को लेकर ये जवान बड़े गंभीर रहते हैं. लेकिन ये गंभीरता उनमें सौजन्य कम नहीं करती.
सरदार पोस्ट के पास स्थित बीएसएफ कैंप.
सरदार पोस्ट के पास स्थित बीएसएफ कैंप.

यहां आने पर आपको कंटीली तारों से घिरी सीमा दिखाई देगी. यहां फ्लड लाइट लगी हुई हैं जिन्हें बिजली राज्य विद्युत् बोर्ड से मिलती है (न कि जैसलमेर की सीमा की तरह, जहां डीज़ल जनरेटर का इस्तेमाल होता है). सीमा के साथ लगी एक सड़क भी दिखाई देती है. सैनिकों के लिए साफ पानी की सप्लाई भी है. राज्य सरकार ने सैनिकों की सहूलियत के लिए काफी इंतज़ाम किए हैं.
यहां के बारे में एक और दिलचस्प बात है. धर्मशाला के बाहरी इलाके में हनुमान जी का एक मंदिर है जहां आपको तरह-तरह की घंटियां बंधी नज़र आएंगी. ये मंदिर कभी आज के पाकिस्तान में होता था. 1965 की लड़ाई से पहले ये मंदिर ‘जाट तलाई’ में था. तब 'जाट तलाई' हिंदुस्तान का हिस्सा होती थी. लड़ाई के बाद भारत ने ये इलाका पाकिस्तान के सुपुर्द कर दिया. यहां के लोग तब के बारे में बताते हैं कि जब भारतीय फौजी जाट तलाई से लौटने लगे तो हनुमान जी के मंदिर से आव़ाज आई कि मुझे भी अपने साथ ले चलो. सैनिकों ने हनुमान की मूर्ती अपने साथ ले ली. लगभग 27 किलोमीटर चलकर वे ‘बेदिया बेट’ पहुंचे. वहीं रात बिताई. अगली सुबह उन्होंने देखा कि हनुमान जी की वह मूर्ती खुद-ब-खुद वहां स्थापित हो चुकी थी. उसे ज़मीन से निकालना मुश्किल था. इसलिए वहीं एक छोटा सा मंदिर बना दिया गया.
आज बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां मन्नत मांगने आते हैं. जिसकी मन्नत पूरी हो जाती है, वो मंदिर में एक घंटी बांध जाता है. मैंने यहां हर आकार और प्रकार की घंटियां देखीं. भारत एक ऐसा देश है जहां शौर्य और आस्था की कहानियां बिखरी पड़ी हैं. सरदार पोस्ट का स्मारक और धर्मशाला का हनुमान मंदिर इस सच को साबित करते दो रूपक हैं.
* 'बेट' का मतलब गुजराती में द्वीप होता है.

दी लल्लनटॉप के लिए ये अनुवाद शिप्रा ने किया है.




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