ट्रांसजेंडर्स की व्यथा पर बनाया गया ये छठ गीत, इस साल छठ पर मिला सबसे उम्दा उपहार है
छठ का यह नया गीत ट्रांसजेंडर्स के लिए बेहद ज़रूरी बात कह रहा है.
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फोटो - thelallantop

यह गीत बेहद खूबसूरती से फिल्माया गया है. पारंपरिक छठ के विधि-विधान जैसे शॉट्स से शुरू हुआ यह गीत अपने तीसवें सेकेंड में देखने वालों को आश्चर्य से भर देता है. सुंदर से संगीत के साथ शुरू हुए इस गीत में तीस सेकेंड पर हथेली 'चमकाकर' ताली बजाते हाथों के शॉट्स ने काफी कुछ साफ कर दिया है. ट्रांसजेंडर्स का छठ मनाना हालांकि पारंपरिक तौर पर कहीं उल्लेख में नहीं है. लेकिन बदलते दौर के इस गीत को लेकर प्रोफेसर्स और अकादमिक जगत के लोग भी आश्वस्त हैं. हमने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भोजपुरी अध्ययन केंद्र के पूर्व समन्वयक और प्रोफेसर सदानंद शाही से इस गीत पर बात की. उन्होंने कहा,
"हालांकि छठ बहुत प्रयोगधर्मी त्योहार नहीं है लेकिन इस तरह के ज़रूरी प्रयोग को आत्मसात भी किया है. छठ में स्त्री पुरुष दोनों का योगदान है. स्त्री बहंगी तैयार करती है, तो उस बहंगी को घाट पर पुरुष पहुंचाता है. ऐसे में इस समाज में ट्रांसजेंडर्स भी तो हैं. जब छठ में सब अपने हिस्से का पुण्य कमा रहे हैं, तो ट्रांसजेंडर्स तो अपने अधिकार की बात भी नहीं कर रहे. वो तो एक्सेप्ट करने की गुहार लगा रहे हैं."हमने इस छठ गीत के बोल पर ध्यान दिया. गीत आगे बढ़ता है तो पंक्ति आती है,
"कवने अवगुनवा बानी हम अलगाइल, मानुष शरीरवा पवनी तबहूं भुलाइल, दुनिया के भीड़ करे हमरे संगे खेला, अइसन का खेल भइल जो भइली अकेला"यानी किस अवगुण के चलते हमें (ट्रांसजेंडर्स) अलग कर दिया गया है और मनुष्य शरीर पाने के बाद भी दुनिया में भीड़ हमारे साथ खेल कर रही है. इसके आगे की पंक्ति है,

"चाहें धिया माने, चाहें बूझा पूत हो, काहें के इ भेद बाटे, नइखी अछूत हो. किसिम किसिम के जइसे रंग लउके इहवां,एक रंग हमहुं बोला जाइं कहवां."यानी चाहें बेटी मानिए या बेटा लेकिन हमारे साथ भेदभाव न करिए. जैसे किस्म-किस्म के यहां फूल हैं, एक फूल हम भी हैं, जो यहां न रहें तो आखिर कहां जाएं?
लिंगभेद की बातचीत को आधार बना कर लिखी गई यह पंक्ति इस पूरे गीत का मूल है. बेटों का त्योहार कहा जाने वाला छठ बहुत सुंदर ढंग से इस बात को ख़ारिज कर चुका है. गीतों के बोल और बदलते समाज में अब शायद ही कोई मिले जो इसे सिर्फ बेटों का त्योहार कहे. बाकी यह रूढ़िगत बदलाव समय लेते हैं. इसके बाद भी अब बेटा-बेटी के भेद को मिटा चुका छठ, ट्रांसजेंडर्स को क्यों नहीं शरीक कर रहा है. इस सवाल के साथ यूट्यूब पर आया यह गीत फिलहाल चर्चा में है. हमने इस गीत की मुख्य किरदार कनकेश्वरी नंद गिरी से बात की. कनकेश्वरी, किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर हैं और गोरखपुर में रहती हैं. उन्होंने बताया कि वह 1998 से गोरखपुर में हैं और बीते 12 वर्षों से छठ कर रही हैं. हमसे बातचीत में कहा कि प्रशासन और स्थानीयों के सहयोग से ही यह संभव हुआ है. लोग तो उनकी छठ की पूजा को झुंड बना कर देखने आते हैं. उन्होंने हमसे कहा,
" हम छठ मइया की पूजा करते हैं. इस साल कोसी भी भरेंगे. पांच साल पूरा हुआ है. हम तो संतान के लिए नही रखते हैं. हम व्रत करते हैं अपने जजमानों के लिए और आम लोगों को लिए. जैसे लोग अपने संतान और सुहाग के लिए रहते हैं, तो मेरे संतान और सुहाग मेरे जजमान और आम लोग हैं. मैं उन सबके लिए छठ करती हूं."इस गीत का हिस्सा बनने को लेकर उन्होंने कहा,
"हमसे किसी के माध्यम से आदर्श मिलने आये थे. हम शूटिंग वगैरह में नहीं रहते हैं लेकिन छठी माई का गीत था, तो हमने कहा की ज़रूर करेंगे."

हमने गीत बनाने वाले यूट्यूब चैनल मिसरी के संस्थापक आदर्श से बात की. आदर्श अवध विश्वविद्यालय से संगीत की पढ़ाई कर रहे हैं. अक्टूबर 2019 से यूट्यूब पर कंटेंट बना रहे आदर्श बताते हैं,
"हमने इस गाने को तीन दिन में शूट किया. 1.5 लाख का बजट था जिसमें क्राउड फंडिंग से लगभग 48 हज़ार रुपये जुट पाए थे. बाकी हमने टीम के साथियों की मदद से इसे पूरा किया है. इस गाने में हमने थोड़ा आगे आकर सोचने की कोशिश की है. हमारे तरफ बच्चों का जब जन्म होता है, तो ट्रांसजेंडर्स को बुलाया जाता है. नेग दिया जाता है. गीत-संगीत होता है. लेकिन उनको बाकी जगहों पर सम्मान तो दूर स्थान भी नहीं दिया जाता है. हमने कोशिश की है कि उनकी बातचीत भी लोगों के बीच आए."हालांकि छठ के गीतों में प्रयोग को लेकर भाषाविदों और भोजपुरी साहित्य आदि पर काम कर रहे लोगों के विभिन्न मत हैं. काफी हद तक बात जायज भी है. दरअसल छठ के गीत में शब्द और आयाम दोनों बहुत सीमित हैं. घाट, दउरा, बहंगी, व्रत, घाट, सूर्य, अर्घ्य इत्यादि जैसे कुल 100-125 शब्दों के इर्द-गिर्द ही छठ के गीत हैं. ऐसे में इनको लेकर नए प्रयोग नहीं किये गए, इसके पीछे भी ज़रूरी कारण रहे. हमने इस विषय पर भोजपुरी गीतों और साहित्य पर लंबे समय से काम कर रहे पत्रकार निराला विदेसिया से बात की. उन्होंने कहा,
"छठ के गीतों का रेंज बहुत लिमिटेड है. इन गीतों में धन या संपदा या बदलाव की कामना नहीं की गई है बल्कि निर्दोष भाव से पति और संतान की लंबी उम्र, सलामती आदि की इच्छा प्रकट की गई है"छठ के गीतों में हो रहे नए प्रयोगों पर निराला विदेसिया ने कहा,छट पूजा का दृश्य.
"देखिए, आपको आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले बिरहा या कजरी अथवा अन्य विधा में गीत मिल जाएंगे लेकिन छठ के गीतों के साथ बहुत प्रयोग नहीं किए गए. इसका सीधा कारण था कि यह त्योहार शास्त्र, ब्राह्मणवाद और बाज़ार के हस्तक्षेप से बाहर का था. पुराने लोगों ने इसको ऐसे ही छोड़ देना ज्यादा ज़रूरी समझा. यह बाज़ार जुड़ा भी तो हाट और स्थानीयता को तरजीह दी गई. बिना किसी जातिगत भेदभाव के साथ यह त्योहार मनता रहा है, इतना काफी है. छठ के गीतों की रेंज ही छोटी है. ऐसे में नए प्रयोग मूल भाव के साथ न्याय कर पा रहे हैं कि नहीं ये देखना ज़रूरी है. आदर्श की टीम का यह गीत काफी हद तक इसमें सफल है. उनका काम बहुत प्रभावशाली है."फिलहाल यह गीत चर्चा में है. इसे बहुत सुंंदर ढंग से फिल्माया भी गया है. वीडियो की क्वालिटी उल्लेखनीय है. मिसरी नाम के यूट्यूब चैनल पर इस गाने को आप यहां क्लिक
करके देख सकते हैं.