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कांग्रेस के बर्थडे पर जानिए उसके बनने और बदलने के बारे में

क्या आप जानते हैं कि कांग्रेस क्यों बनी थी?

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महात्मा गांधी और राहुल-सोनिया की तस्वीर एक फ्रेम में होने का मतलब ये नहीं कि इनकी राजनैतिक पॉजीशन एक हो जाएगी. कांग्रेस जोर-शोर से अपना फाउंडेशन डे मना रही है. मगर जिस कांग्रेस का 28 दिसंबर 1885 को गठन हुआ था, उसमें और आज की कांग्रेस में इतिहास के सिवा और कोई साम्य नहीं.
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स्वाति
28 दिसंबर 2020 (Updated: 28 दिसंबर 2020, 07:42 AM IST) कॉमेंट्स
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28 दिसंबर. वो दिन, जब कांग्रेस पैदा हुई थी. कांग्रेस का बर्थडे होता है आज. ये बहुत, बहुत पहले की बात है. सन् 1885. मगर आगे बढ़ने से पहले साफ कर दें कि ये राहुल-सोनिया वाली कांग्रेस वो कांग्रेस नहीं है. इनकी तो पार्टी है. हम उस कांग्रेस का जिक्र कर रहे हैं, जिसके बिना हिंदुस्तान की आजादी का इतिहास मुकम्मल नहीं होता. इस मुल्क की आजादी के संघर्ष से जुड़े सबसे मशहूर और जाने-माने लोग इसी कांग्रेस का हिस्सा थे. जिसके गांधी थे. जिसके नेहरू थे. जिसके सरदार पटेल थे. जिसके राजेंद्र प्रसाद थे. वो पार्टी, जो आजादी की लड़ाई में आम हिंदुस्तानियों की नुमाइंदगी करती थी. वो पार्टी, जिसने शायद पहली बार तितर-बितर हिंदुस्तान को देश होने का एहसास दिलाया. आज उसी कांग्रेस का हैपी बर्थडे है.
कांग्रेस पार्टी के कई नेता आज सोशल मीडिया पर ये ही तस्वीर शेयर कर रहे हैं.
कांग्रेस पार्टी के कई नेता आज सोशल मीडिया पर ये ही तस्वीर शेयर कर रहे हैं. ये कांग्रेस के पहले अधिवेशन की फोटो है. इसी सेशन में वोमेश चंद्र बनर्जी को कांग्रेस का पहला अध्यक्ष चुना गया था.

प्रेशर कूकर से गर्म हवा निकालने के लिए बनी थी कांग्रेस! ऐलन ओक्टेवियन ह्यूम. एक अंग्रेज नाम. इस इंसान ने नींव रखी थी कांग्रेस की. बड़ी दिलचस्प सी एक थ्योरी थी. सेफ्टी वॉल्व थ्योरी. मतलब, जैसे कूकर में एक सेफ्टी वॉल्व होता है. सीटी में कुछ फंस जाए, तो सेफ्टी वॉल्व पिघल जाता है और गैस निकल जाती है. वरना कूकर फटकर तबाही मचा सकता है. वैसे ही कांग्रेस के बनने की एक थ्योरी ये भी है कि इससे देश के अंदर भरा गुस्सा और गुबार बाहर आ जाए. खाली गुस्सा, जिसके दांत नहीं होते. जिसके काट खाने का डर नहीं होता. अंग्रेजों ने 1857 का गदर देखा था. गदर को दबा तो दिया गया, मगर वो चोट बहुत करारी थी. पहली बार इतने सारे लोगों ने इतने बड़े स्तर पर अंग्रेजों के खिलाफ सिर उठाने की हिम्मत की थी. इतिहासकार तो ये भी कहते हैं कि बस उन्नीस-बीस का फर्क था. गदरवालों ने कुछ गलतियां न की होतीं, तो शायद अंग्रेजों का राज तभी खत्म हो गया होता. अंग्रेज नहीं चाहते थे कि जोर आजमाइश की ये नौबत फिर कभी आए. सो उन्होंने एक प्लानिंग की. सोचा, एक प्लेटफॉर्म दे देते हैं हिंदुस्तानियों को. जहां वो अपना दुखड़ा रो सकें. गुस्सा आए, तो गुबार निकाल सकें. बस. इसके सिवा कुछ न कर पाएं. इतना सा करके अपने घर चले जाएं. क्रांति का सारा जोश मुरब्बा हो जाए. ऐलन ह्यूम इस प्लानिंग के आर्किटेक्ट थे. दिमाग था वायसराय लॉर्ड डफरिन का. ह्यूम सिविल सर्विस में रह चुके थे. खासा दिमाग रखते थे. उन्होंने नींव रखी कांग्रेस की.
ये झंडा आजादी के पहले काफी समय तक कांग्रेस का आधिकारिक झंडा रहा. बीच में जो करघा दिख रहा है, वो गांधी का असर था. जैसे करघा झंडे के बीचोबीच है, वैसे ही तब गांधी का कद था कांग्रेस के अंदर.
ये झंडा आजादी के पहले काफी समय तक कांग्रेस का आधिकारिक झंडा रहा. बीच में जो करघा दिख रहा है, वो गांधी का असर था. जैसे करघा झंडे के बीचोबीच है, वैसे ही तब गांधी का कद था कांग्रेस के अंदर.

नींव भले अंग्रेज ने रखी हो, अध्यक्ष भारतीय ही था ये गुस्सा और गुबार निकालने के अलावा एक और भी काम करती थी तब कांग्रेस. पढ़े-लिखे भारतीयों को अंग्रेजी हुकूमत की नौकरियों में ज्यादा से ज्यादा मौके मिलें, इसकी राह बनाने का सुझाव देती थी. ये भी अंग्रेजों के फायदे की बात थी. नौकरी से घर चलता है. पेट-परिवार सब पलता है. जो हिंदुस्तानी अंग्रेजों की नौकरी करते, वो भी अंग्रेजी हुकूमत के हिमायती होते. कोई बगावत की न सोचता. कांग्रेस की पहली मीटिंग पुणे में होने वाली थी. मगर तब वहां हैजा फैला हुआ था. मजबूरी में कार्यक्रम को बंबई में आयोजित करना पड़ा. नींव रखने वाला भले ही अंग्रेज हो, मगर कांग्रेस का पहला अध्यक्ष भारतीय ही बना. 78 सदस्यों की मौजूदगी में वोमेश चंद्र बनर्जी को कांग्रेस का पहला अध्यक्ष चुना गया. आज जैसे रोटरी क्लब होते हैं, वैसी ही थी तब कांग्रेस 1905 तक कांग्रेस क्या करती है, क्या नहीं, ये कोई मुद्दा नहीं था. जैसे आज के रोटरी क्लब होते हैं, वैसा ही तब कांग्रेस का हाल था. दादाभाई नौरोजी और बदरुद्दीन तैयबजी जैसे नेता इसके साथ आ गए थे. मगर जनता के बीच इसका कोई असर नहीं था. तब कांग्रेस याचिकाएं देने में व्यस्त रहती थी. आवेदन पार्टी टाइप समझ लीजिए. अंग्रेजों से कृपा मांगने का अंदाज था उसका. फिर हुआ बंगाल विभाजन. कर्जन था वायसराय तब. उसने बंगाल को दो हिस्सों में बांटने का ऐलान किया. कांग्रेस ने पहली बार बगावती अंदाज दिखाया. कांग्रेस में बंगाल के नेता थे सुरेंद्रनाथ बनर्जी. 7 अगस्त, 1905 को स्वदेशी आंदोलन की घोषणा की गई. अंग्रेजी सामानों का बहिष्कार शुरू हुआ. ये पहली बार हुआ था कि कांग्रेस जनता के बीच पहुंची थी. इसी दौरान कांग्रेस में फूट पड़ गई. एक हिस्सा था नर्म दल. एक धड़ा था गर्म दल. गर्म दल चाहता था कि आंदोलन बंगाल तक न सीमित रखा जाए. नर्म दल अंग्रेजों की खुलकर बगावत करने के खिलाफ था. इसी का नतीजा था कि 1907 में जब सूरत अधिवेशन हुआ, तो बड़ी हुज्जत हुई. दरार भी आ गई दोनों में.
महात्मा गांधी के आने के बाद कांग्रेस आम लोगों की पार्टी बन गई. वो अंग्रेजों के सामने भारतीय जनता की सबसे बड़ी प्रतिनिधि बन गई.
महात्मा गांधी के आने के बाद कांग्रेस आम लोगों की पार्टी बन गई. वो अंग्रेजों के सामने भारतीय जनता की सबसे बड़ी प्रतिनिधि बन गई.

गांधी की एंट्री के बाद कांग्रेस की असली कहानी शुरू हुई कांग्रेस की असली कहानी शुरू हुई महात्मा गांधी की एंट्री के बाद. 1915 में गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौटे. पहले देश घूमकर देखा. दिक्कतें समझीं. फिर राजनीति में कदम रखा. 1919 के असहयोग आंदोलन के साथ कांग्रेस का भारतीय जनता के साथ एक ऐसा नाता जुड़ा, जिसकी शायद कोई मिसाल नहीं है. 1919 से लेकर 1947 तक, बल्कि 30 जनवरी 1948 को अपनी हत्या होने तक, गांधी ही कांग्रेस के पर्यायवाची रहे. लोगों की नजरों में. अंग्रेजों की नजरों में. दुनिया की नजरों में. बाकी कई नायक थे, मगर गांधी गांधी थे. इतिहास के मोटा-मोटी तीन हिस्से हैं. पुराना, बीच का और नया. तो जब आप भारत की मॉडर्न हिस्ट्री पढ़ते हैं, तो उसमें सालों का एक बंटवारा ऐसा भी है- इंडिया बिफोर 1919 ऐंड इंडिया आफ्टर 1919. ये तारीख भी गांधी के आने से जुड़ी है. असहयोग आंदोलन. फिर सविनय अवज्ञा आंदोलन. फिर भारत छोड़ो आंदोलन. और फिर आजादी. ये लैंडमार्क्स का जिक्र किया है. बीच-बीच में भी बहुत कुछ हुआ. दूर-दराज के गांवों तक फैल गई कांग्रेस. जहां सड़कें नहीं थीं, वहां भी कांग्रेस थी. उस गुलाम भारत में भी कांग्रेस के पास करीब डेढ़ करोड़ सदस्यों का साथ था. लगभग सात करोड़ समर्थक थे.
महात्मा गांधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू. गांधी ने नेहरू को अपना राजनैतिक वारिस क्यों चुना और प्रधानमंत्री पद के लिए गांधी उनकी पसंद क्यों बने. इसे लेकर तब जितना विवाद नहीं हुआ उससे कहीं ज्यादा रायता अब पसरता है.
महात्मा गांधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू. गांधी ने नेहरू को अपना राजनैतिक वारिस क्यों चुना और प्रधानमंत्री पद के लिए गांधी उनकी पसंद क्यों बने. इसे लेकर तब जितना विवाद नहीं हुआ, उससे कहीं ज्यादा रायता अब पसरता है.

आजादी के बाद जो कांग्रेस आई, उसको नई पार्टी ही समझिए तब अलग-अलग सोच के लोग कांग्रेस में साथ मिलकर काम करते थे. बहस करते थे, असहमत होते थे, मगर पार्टी एक ही थी. ये ही पार्टी थी, जिसमें बेटा जवाहरलाल नेहरू अपने पिता मोतीलाल नेहरू से असहमति रखता था. मोतीलाल चाहते थे कि अंग्रेजों के ही अधीन रहकर भारतीयों की राजनैतिक भागीदारी बढ़ने का रास्ता साफ हो. जवाहरलाल इसके खिलाफ थे. बाद में जब मोतीलाल नेहरू कांग्रेस छोड़कर स्वराज पार्टी में चले गए, तब भी जवाहरलाल ने कांग्रेस को नहीं छोड़ा. बहुत बड़ी छतरी जैसी थी कांग्रेस. हर धर्म, हर जाति, हर विचारधारा के लोग इसके साथ जुड़े. मगर ये सारी बातें 1947 तक की कांग्रेस के बारे में है. उसके बाद की कांग्रेस के लिए नहीं. उसके बाद तो राजनीति का दौर आ गया था. लोकतंत्र आ चुका था. सिस्टम बदल चुका था. मुल्क की जरूरतें बदल गई थीं. आजादी की लड़ाई में शामिल कई नेता बाद में भी इससे जुड़े रहे. मगर उनका जिक्र अलग तरीके से होना चाहिए. आज वाली कांग्रेस को उस विरासत से जोड़ना गलत होगा.


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