बिहार में बाढ़: दहा रहे देहात, बजबजा रहे शहर और सरकार पूछ रही-घोघो रानी, कितना पानी
उम्मीद ही तो है कि हर साल बाढ़ झेलने वाले गांव फिर आबाद हो जाते हैं.
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बिहार में बाढ़ की वजह से कई गावों में पानी घुसने से लोगों को मुश्किल हो रही है.
इन दोनों के अलावा नाव पर दो महिलाएं हैं जो नमक, मिर्च, सब्ज़ी और दूसरे जरूरी सामान खरीदकर लौट रही हैं. बाकी दो-तीन बच्चे हैं.
इस नाव से एक बार पार उतरने का किराया 10 रुपया है. नाव जहां से गुज़र रही है वहां कुछ दिन पहले तक गन्ने की फसल लहलहा रही थी. अभी ऐसा लग रहा है कि ये नदी का पेट है. लग ही नहीं रहा है कि यहां या इसके आसपास के इलाकों में कभी खेती भी होती रही होगी. नदी ने समूचे इलाके को अपने में समेट लिया है. पास में ही एक दो मंज़िला इमारत दिख रही है. बनावट के हिसाब से ये स्कूल या कोई सरकारी अस्पताल जान पड़ता है.
नाव पर बैठे लोगों ने बताया कि आसपास के 5-6 गांवों का इकलौता हाईस्कूल है जो फिलहाल पानी में डूबा है. जब हमने नाव पर बैठे एक लड़के से, जिसकी स्कूल जाने की उमर है, पूछा कि पढ़ाई कैसे होती है तो वो बोला,"ई स्कूलिया में साल के तीन महीने गंगा माई पढ़ेलीं. उनका पढ़ला के बादे ने केहू पढ़ी."

सब लड़के की बात पर हंस पड़े. उसने जो जवाब दिया उसके बाद कोई सवाल हो ही नहीं सकता था.
जुलाई के पहले-दूसरे सप्ताह में ही ज़िले के कई गांव टापू बने हुए हैं. इन सभी गांवों के आसपास से गंडक नदी बह रही है. पास के बाज़ार तक जाने के लिए भी नाव का सहारा लेना पड़ा रहा है. गांव वाले इस बात के लिए भी तैयार हैं कि आगे आने वाले दो महीनों में नदी का पानी उनके घर-आंगन में भी दाखिल हो जाएगा. इसलिए घर के अनाज और कपड़े-लत्ते सुरक्षित जगहों पर रखे जा रहे हैं. जिनके पास पक्का मकान है वो छत पर रख रहे हैं. जिनके पास नहीं है वो अपना सामान आस-पड़ोस में रह रहे किसी नाते-रिश्तेदार के यहां भिजवा रहे हैं. जो ये भी न कर सके वो पिछले साल का टेंट, प्लास्टिक लेकर बांध या किसी दूसरी ऊंची जगह पर जा बैठे हैं.
पिछले साल आई बाढ़ का जिक्र करते हुए दूध बेचकर घर जा रहे बुजुर्ग माथे पर रखा अपना गमछा सरकाते हुए बोले,"ई कौनो नया बात बा? हियां हर साल येही हाल होला. पिछला साल त टेंटों मिलल रहे, ना जानी अबकी भेंटी की ना."
बाबा को चिंता बाढ़ में डूबने की नहीं है. इसे वो सालों से देखते आ रहे हैं. उन्हें चिंता इस बात की है कि शासन, प्रशासन की तरफ से पिछले साल जो टेंट मिला था वो इस साल मिलेगा या नहीं. अब आप इसे लालच मान सकते हैं. जरूरत समझ सकते हैं या इससे ये भी अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां के लोग शासन-प्रशासन से कितनी कम उम्मीदें रखते हैं. आप इनसे सवाल कीजिए, सीएम के बारे में.पीएम के बारे में. वो अपनी बात मुखिया, बीडीओ (प्रखंड विकास पदाधिकारी) और सीओ (अनुमंडल पदाधिकारी) पर लाकर खत्म कर देंगे.
ख़ैर, जो नाव कुछ सवारियों को लेकर रामनगर से चली थी वो अब किनारे लग रही है. किनारे माने दूसरे गांव के करीब पहुंच गई है. यहां तक आते-आते करीब दो घंटे लगे. जब पानी नहीं रहता तो ये रास्ता लोग साइकिल से पंद्रह या बीस मिनट में तय कर लेते हैं. नाव जैसे-जैसे किनारे आ रही है वैसे-वैसे और धीमी हो गई है. इसका कारण नाव को एक बड़े बांस के सहारे खेव रहे रतन सहनी समझाते हैं,“किनारे के करीब आने पर बांस में ताव नहीं लगता. जैसे ही ताव लगाते हैं तो बांस हाथ भर मिट्टी में हेल (घुस) जाता है. बीच में मिट्टी सख़्त है, लेकिन किनारे पर हल्की इसीलिए ज्यादा जोर लगाना पड़ता है.”

रतन हर रोज चार-पांच फेरी मारते हैं. और वो पिछले पंद्रह दिनों से नाव खेव रहे हैं. एक बार में कम से कम दस लोगों को पार उतारते हैं और दिन में चार-पांच सौ रुपए कमा लेते हैं. पिछले साल इस इलाके में सरकार की तरफ से दो नाव दी गई थी. लेकिन इस बार वो भी नहीं मिली. नाव भले सरकार ने दी थी, लेकिन पैसा उसमें भी लगता था. अब इस खेल को समझिए. सरकार घोषणा करती है कि फलाना बाढ़ग्रस्त इलाके में दो या तीन नाव दी जाएंगी. अखबारों में छपता है कि नाव से आवाजाही फ्री है, लेकिन जिस व्यक्ति को नाव लगाने का ठेका मिलता है वो बिना पैसे लिए पार नहीं उतारता है.
बाजार से आए लोग एक-एक कर नाव से उतर गए हैं. और अब गांव से बाजार की तरफ जाने वाले कुछ लोग नाव में सवार हो चुके हैं. इनमें वो लड़के भी हैं जो लॉकडाउन की वजह से स्कूल-कॉलेज बंद होने के बाद मोबाइल की मदद से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं.
ऐसा ही एक लड़का अपने साथ दो स्मार्ट फोन लेकर पास के बाजार जा रहा है ताकि वो वहां इन्हें चार्ज कर सके. हर दो दिन पर एक बार जाता है. जब तक मोबाइल चार्ज होता है तब तक घर के लिए जरूरी सामान की खरीदारी भी हो जाती है. गांव से बाज़ार जाने वालों को लेकर चली नाव रामनगर वाले इलाके में किनारे लग गई है. जहां से चले थे वहां वापस आ गए.
हम उतरे और आगे बढ़े. तभी भारी बारिश शुरू हो गई. आसमान में बादल तो थे लेकिन ऐसा लगा नहीं था कि इतनी जल्दी बरस जाएंगे. इसी बरसात में हम देहात से निकल कर गोपालगंज शहर में पहुंच गए. लगभग दस मिनट बरसने के बाद बारिश तो ख़त्म हो गई लेकिन शहर की सड़कें पानी से भर गई हैं. इस पानी में प्लास्टिक के जूठे प्लेट, ग्लास और न जाने क्या-क्या तैर रहे हैं.

गांव से बुरा हाल शहर का है. वहां तो नदी का पानी है. आया है. हफ़्ते-दो हफ़्ते या ज़्यादा से ज़्यादा महीने भर में निकल जाएगा. लेकिन शहर में जो पानी है वो कुछ मिनटों तक हुई बारिश का पानी है. लोग इसी पानी के बीच से आ-जा रहे हैं. किसी को कोई परेशानी नहीं है. कम से कम दिखाई तो यही दे रहा है.
शहर हो या गांव कहीं कोई बेचैनी नहीं दिखती है. इसकी वजह ये है कि हर साल बरसात के मौसम में राज्य के 38 में से 28 ज़िलों में बाढ़ का पानी आ जाता है. उत्तर बिहार का एक बड़ा हिस्सा तैरने लगता है. सड़कों पर नाव चलने लगती है. लोग अपना घर छोड़कर सड़क किनारे या बांध पर टेंट डालकर रहने लगते हैं. मुख्यमंत्री बाढ़ ग्रस्त इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करते हैं. घोषणाएं होती हैं. राहत सामग्री बांटने का काम शुरू होता है. जिसे एक आम बिहारी सरकारी पैसे का बंदरबांट मानता है.
ये सब हर साल अगस्त, सितंबर के महीने में होता है. लेकिन इस बार थोड़ा जल्दी शुरू होने की उम्मीद है. बिहार में उम्मीद एक बड़ा शब्द है. सबको एक दूसरे से उम्मीदें रहती हैं. बाढ़ वाले इलाके में रहने वाले लोगों को अपनी सरकार, अपने अधिकारियों से ज़्यादा उम्मीद नदी से रहती है. अगर उम्मीद नहीं होती तो गोपालगंज ज़िले के रामनगर, आशा खैरा, यादवपुर, मुहम्मदपुर सहित सात गांव के लोग हर साल बाढ़ झेलने के बाद फिर वहीं आबाद नहीं हो जाते.