अरुण जेटली ने राजनीति के लिए जनसंघ को ही क्यों चुना?
अरुण जेटली की पूरी कहानी
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अरुण जेटली ने एम्स में अंतिम सांस ली.
''पांच साल तक आपकी सरकार का हिस्सा रहना मेरे लिए सम्मान की बात थी. पार्टी ने मुझे कई ज़िम्मेदारियां दीं - पहली एनडीए सरकार से लेकर जब पार्टी विपक्ष में बैठी तब तक. इससे ज़्यादा मैं कुछ और नहीं मांग सकता था. पिछले 18 महीनों से मैं गंभीर बीमारियों से जूझ रहा हूं. सो अपने इलाज और सेहत पर ध्यान देना चाहता हूं. इस चिट्ठी के माध्यम से मैं आपसे औपचारिक अनुरोध करता हूं कि फिलहाल मुझे नई सरकार में कोई ज़िम्मेदारी न दी जाए.''ऊपर लिखे शब्द अरुण जेटली की चिट्ठी के हैं. जो उन्होंने 29 मई 2019 को लिखी थी. पूर्ण बहुमत से चुनकर दोबारा सत्ता में आई मोदी सरकार के शपथ ग्रहण से एक दिन पहले आई इस चिट्ठी ने तमाम कयासों को निराधार साबित कर दिया था. एनडीए संसदीय दल के नेता और भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखी इस चिट्ठी में जेटली ने साफ किया कि उनकी तबीयत खराब है और वो मंत्रिमंडल में जगह नहीं चाहते. लुटियंस की निर्मम भाषा में कहें तो इस चिट्ठी ने दूसरों के लिए रास्ते साफ कर दिए. टीवी कैमरे के फोकस में आगे आने वाले नए चहरे आ गए. जेटली नेपथ्य में चले गए. लेकिन इस चिट्ठी के पहले ऐसा बहुत कुछ घटा है, जिसका ज़िक्र बनता है. तो आज बड़ी खबर में बात उस नेता की, जो अपनी गाड़ी में दो कोट टांगकर चलता था, लेकिन जिसे शौक था पश्मीना धागे की कानी शॉल का. 28 दिसंबर, 1952 को जन्मे अरुण जेटली ने 24 अगस्त, 2019 को दिल्ली के एम्स अस्पताल में आखिरी सांस ली.

दिल्ली में नरेंद्र मोदी की ज़मीन तैयार करने वाले जेटली ही थे.
विद्यार्थी परिषद से जुड़ाव अरुण जेटली वकील क्यों बने और जनसंघ में ही क्यों गए, इन दो सवालों का जवाब उनसे दो पीढ़ी पहले से शुरु होता है. जेटली के दादाजी पंजाब से थे. लाहौर के पास वाला पंजाब, जो आज पाकिस्तान में है. दादाजी जल्दी गुज़र गए तो 8 बच्चों की ज़िम्मेदारी अकेली दादी पर आ गई. दादी को अपने बच्चों के भविष्य के लिए का एक ही रास्ता नज़र आया - पढ़ाई. खूब मेहनत की और 4 लड़कों को वकील बनाया. यहां पड़ा वकालत का बीज. सब ठीक चलता, लेकिन फिर पाकिस्तान बना और जेटली का परिवार शरणार्थी हो गया. माता-पिता सिर्फ गहने और कपड़े लेकर दिल्ली पहुंचे. हिंदुस्तान टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में अरुण जेटली ने कहा था, ''जिन परिवारों ने बंटवारे का ज़ख्म सहा था, वो तब जनसंघ को वोट दिया करते थे.'' इसीलिए किसी को हैरानी नहीं हुई जब श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पढ़ने वाले अरुण जेटली अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ गए. बकौल जेटली, वो इन्हीं दिनों नरेंद्र मोदी से पहली बार मिले थे. जेटली ने इसके बाद लॉ फैकल्टी में एडमिशन लिया, दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट बने. उन दिनों जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था. उनकी नज़र जेटली पर पड़ी. जेपी ने National Committee for Students and Youth बनाई तो उसका संयोजक चुना अरुण जेटली को.
जेटली के प्रथम पग इमरजेंसी लगी तो जेटली 19 महीने अंबाला जेल और फिर तिहाड़ में रहे. बाहर निकले तो जनसंघ जॉइन कर लिया. फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. लालू, नीतीश से लेकर प्रकाश करात और जॉर्ज फर्नान्डिस, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नानाजी देशमुख तक ताल बैठाई. साथ में वकालत करते रहे और नाम के साथ पैसा बनाया. जेटली को सुप्रीम कोर्ट का नामी वकील बताने में लोग एक बात बताने से चूक जाते हैं. वो ये कि जेटली को ये सब विरासत में नहीं मिला था. वो केस दर केस, अदालत दर अदालत ऊपर उठे. 37 की उम्र में वीपी सिंह ने उन्हें अपनी सरकार का सॉलिसिटर जनरल नियुक्त किया. बोफोर्स जांच के कागज़ात उन्हीं के हाथों से गुज़रे. इस केस में राजीव गांधी के खिलाफ कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ था.

अरुण जेटली का कद लगातार बढ़ता ही रहा,
जेटली: भाजपा में खास बने, खास ही रहे लेकिन जेटली का ऊपर उठना जारी रहा. राजनीति में दोस्त थे ही. मीडिया में भी बनाए. कॉर्पोरेट में भी. 91 से भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे जेटली की किस्मत खुली जब नब्बे के आखिर में एनडीए की सरकार बन गई. इसमें जेटली को राज्यमंत्री बनाया गया. सरकारी कंपनियों के विनिवेश की ज़िम्मेदारी मिली. उन दिनों विकसित देश विकासशील देशों पर निजीकरण के लिए बहुत दबाव बनाते थे. जेटली WTO में भारत के लिए बोलने को खड़े हुए तो दुनिया के हर विकासशील देश की बात रखी. बोले कि हमारा देश अपनी प्राथमिकताओं को दरकिनार कर नीतियां लागू नहीं कर सकता. वाजपेयी के ज़माने में जेटली को बारी-बारी से कई मंत्रालयों का काम मिला - सूचना प्रसारण, कानून और जहाज़रानी. जेटली ने कहीं निराश नहीं किया. बात रखने और बात मनवाने के फन ने जेटली को 1999 में भाजपा का प्रवक्ता बनवाया. लोग याद करते हैं कि तब जेटली अपनी इनोवा गाड़ी में दो कोट टांगकर निकलते. एक वकालत के काम आता, एक बतौर पार्टी प्रवक्ता अपनी बात रखने के. ज़्यादा दिन नहीं बीते कि वो भाजपा में महासचिव भी बना दिए गए. 2004 में वाजपेयी की सरकार चली गई. लेकिन जेटली के पास काम कम नहीं हुआ. गुजरात में 2002 में हुए दंगे और उसके बाद एक के बाद एक हुए एनकाउंटर्स पर सवाल उठ रहे थे. गुजरात में नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार घिरने लगी थी. तब जेटली आगे आए, पैनी कानूनी सलाह दी. कि अदालत में ये करें और चुनाव आयोग से ऐसे निपटें.
नेता प्रतिपक्ष जेटली, जो 2014 के प्रधानमंत्री के लिए माहौल बना रहा था 2009 में यूपीए ने दोबारा सरकार बना ली थी, जो पहले से मज़बूत भी थी. लेकिन एक के बाद एक घोटालों के इतने आरोप लगे कि सरकार से जवाब देते नहीं बन रहा था. और सवाल पूछते थे जेटली. राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली. 2012 आते तक ये साफ होने लगा कि भाजपा 2014 का खेल बड़ी गंभीरता से खेलने वाली है. और संघ ने इसके लिए चेहरा भी चुन लिया था - नरेंद्र मोदी. लेकिन एक समस्या बाकी थी, दिल्ली वाली भाजपा में नरेंद्र मोदी के लिए जगह बनने में वक्त था. तब मोदी के हनुमान अरुण जेटली ने लॉबिंग शुरु की. धीरे-धीरे आडवाणी, सुषमा स्वराज जैसे कद्दावर नेताओं के बीच मोदी के लिए जगह बनी. 2014 में मोदी जिस ज़मीन पर खड़े हुए थे, उसे बनाने वालों में जेटली एक बड़ा नाम थे. और इसी का इनाम था कि अमरिंदर सिंह से सांसदी हारे जेटली न सिर्फ राज्यसभा के रास्ते कैबिनेट में लिए गए, बल्कि रक्षा और वित्त जैसे बड़े मंत्रालयों के इंचार्ज भी बनाए गए. वाजपेयी के पास लुटियंस के धुरंधरों की टीम थी - ब्रजेश मिश्र, रंजन भट्टाचार्य, प्रमोद महाजन. मोदी के पास अरुण जेटली थे. राफेल डील पर जब बहस शुरु हुई, तो जेटली वित्त मंत्री थे. लेकिन सरकार की तरफ से सबसे अंतिम तर्क उन्होंने ही रखे. निर्मला सीतारमण आरोपों का जवाब ही देती थीं. जेटली सीधे डील के पक्ष में तर्क रखकर विपक्ष पर सवाल दाग देते थे. और जेटली ने सिर्फ मोदी को आगे बढ़ाया हो, ऐसा नहीं है. दिल्ली में हर्ष वर्धन विजय गोयल से आगे निकले, तो उसके पीछे जेटली ही थे.

एक समय अरुण जेटली अपनी कार में दो कोट टांगकर चलते थे. एक वकालत के लिए और दूसरा पार्टी प्रवक्ता के लिए.
अरुण जेटली - मास्टर ऑफ विस्पर्स जेटली का ज़िक्र आने पर एक बात जिसकी चर्चा खूब होती है, वो है उनके प्रेस से रिश्ते. लुटियंस कवर करने वाले पत्रकार अनिवार्य तौर पर जेटली से राबता रखते थे. इस उम्मीद में कि कब कोई तगड़ी लीड मिल जाए. राजनीति की दुनिया में समाचार हथियार का काम करते हैं. पार्टी के बाहर और पार्टी के अंदर प्रतिस्पर्धियों को इस तरह निपटाया जा सकता है. अनौपचारिक चर्चाओं में लोग इसकी मिसालें भी देते हैं. कुछ प्रसंग सार्वजनिक भी हुए. जैसे उमा भारती का इशारों में लगाया आरोप. कि पार्टी के अंदर की खबरें जेटली के मार्फत बाहर आती हैं. खैर, प्रेस से दोस्ती एक और सुविधा देती है. प्रेस से सुरक्षा. समाचार मैगज़ीन कारवां ने जेटली का प्रोफाइल छापा है. इसके मुताबिक कोल ब्लॉक आवंटन में यूपीए को घेरने वाले अरुण जेटली ने बतौर वकील एक कंपनी को ये कानूनी राय दी थी कि वो अपना मुनाफा सरकार से बांटने से बच भी सकती है. इस राय से संबंधित कागज़ात मीडिया में लीक हुए. लेकिन इसपर उतने आक्रामक ढंग से रिपोर्टिंग हुई नहीं. एक चैनल पर स्टोरी एक बार चलाकर उतार दी गई. फिर जेटली को सही वजहों से खबरों में रहना भी आता है. वो भाजपा के उन चुनिंदा नेताओं में से हैं जो गे राइट्स के पक्ष में बोले हैं.
अरुण जेटली नहीं रहे.
वीडियो: अरुण जेटली, जिन्होंने मोदी के लिए दिल्ली में ज़मीन तैयार की