हम भूकंप से नहीं डरते, सुसाइड से डरते हैं
कई घंटे बीत गए हैं और इधर मैं यही सोच रहा हूं कि इस कुदरती आपदा पर हमारी सच्ची प्रतिक्रिया कौन सी है?
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कोई नहीं जानता कि इनका रिश्ता क्या है. ऐसा लगता है कि वे प्रेमी-प्रेमिका रहे होंगे. 3 साल पहले बांग्लादेश में राणा प्लाजा नाम की बिल्डिंग गिर गई थी. उसके मलबे में दोनों की लाश इस तरह मिली. फोटो: तसलीमा अख्तर
भूकंप को 2 मिनट हुए होंगे. भागकर नीचे आईं एक आंटी जम्हाई लेते हुए कहने लगीं कि चलूं मैंने कपड़े भिगो रखे हैं. उधर बगल की इमारत में वह महिला जिस तन्मयता से बालकनी के फ्लोर पर वाइपर घिसट रही थी, आप कह नहीं सकते कि ज़लज़ला नाम की कोई चीज़ कभी हुई है.
मैं भी अब ऊपर जा सकता था, पर वहां उस खुले आसमान के लिए रुक गया जिससे नौकरीपेशा कामगारों के रविवार ज्यादातर महरूम रहते हैं. बचे हुए लोग 'भूकंप के वक्त हम क्या कर रहे थे', पर एक संक्षिप्त चर्चा करके अपने-अपने फ्लैटों में लौट गए. उनकी बातचीत के आखिरी सिरे में उन जरूरी कामों का जिक्र था जो वे करने जा रहे थे. किसी का फेवरेट शो छूटा जा रहा था, किसी को वीडियोगेम खेलना था, कोई आज अपनी हार्ड डिस्क से हॉलीवुड फिल्में निपटाने में लगा था.
कुछ ही मिनटों में सब कुछ पहले जैसा था. मैंने बच्चों के चेहरे पर डर नहीं, उपलब्धि के भाव देखे. कुछ स्कूली लड़कियां बात कर रही थीं. जिसने भूकंप महसूस नहीं किया उसने जैसे कुछ मिस कर दिया. और जिसने धरती को हिलता हुआ पाया, उसकी बातों में इसकी शेखी थी. जैसे एक उपलब्धि यह भी उसके खाते में दर्ज हो गई हो.
हम जानते हैं कि एक बड़ा भूकंप गझिन-बसे NCR को लाशों और मलबे का मैदान बना सकता है. न्यूज चैनल फिर बता रहे हैं कि भारत में भूकंप के कितने जोन हैं और दिल्ली में खतरा कितना बड़ा है.
तुरंत तो ये होता है कि हम सिर्फ चौंकते हैं. फिर अपनों को खोजते हैं. और जैसा कि हमें सिखाया गया है, उन्हें लेकर खुली से खुली जगह पर भाग जाना चाहते हैं. लेकिन ये झटके अगर तेज हों और कुछ देर बने रहें तो हम क्या कर लेंगे? इसका एक ही जवाब है- आत्मसमर्पण.लेकिन बहुत खोजने पर भी मुझे लोगों में इसका डर नहीं दिखा. कई घंटे बीत गए हैं और इधर मैं यही सोच रहा हूं कि इस कुदरती आपदा पर हमारी सच्ची प्रतिक्रिया कौन सी है?
रिश्ते-नाते आपको बेहद मजबूत मोह के धागों से बांधे रखते हैं. इसलिए किसी अपने की मौत का बड़ा असर होता है. आपकी प्रेमिका मर जाए, यह पढ़ने में ही कलेजा मुंह को आ जाता है. लेकिन अगर मरना ही एकमात्र विकल्प हो और आप अपनी प्रेमिका के साथ मर जाएं तो यह डील कैसी रहेगी? सोचिए, सोचने में थोड़ा समय लग सकता है. रिक्टर पैमाने पर 8 की तीव्रता वाला भूकंप आया हो, उसके बाद अपने घर के सामने वाली सड़क की कल्पना कीजिए. वह विभीषिका बहुत खराब होगी. किसी बुरे सपने जैसी. लेकिन उन दृश्यों से सामना तब होगा, जब हम उन्हें देखने के लिए वहां होंगे. जरूरी नहीं है कि ऐसा हो, पर पहला ख्याल तो यही आता है कि हम सब मर जाएंगे.शायद हमने भूकंप को इस कायनात के एक अजेय योद्धा की तरह स्वीकार कर लिया है. जो जब आएगा तो सबको लेकर जाएगा.
मौत आनी ही है तो इस तरह आए कि किसी के पीछे रो-रोकर आंखें सुजाने वाले न बचें. जो हमें - हम सबको - मरा हुआ देखें, उनका हमसे कोई रिश्ता न हो. वे दूसरे शहर के लोग हों. वे इंसानियत के नाम पर कुछ देर विलाप करें और फिर इसे कुदरत का बदला या ईश्वर की मरजी मानकर भूल जाएं.कि जैसे मरना है तो आपस में प्यार करने वाले लोग इस तरह एक साथ मर जाएं. यह बहुत बुरा है, पर सबसे बुरा सौदा नहीं है. ये बात हमारे सबकॉन्शियस में गहरी धंसी हुई है.
भूकंप के कुछ मिनटों बाद कपड़े धोने जाती और फर्श साफ करने में जुटी औरतों और नीचे जमा हुई भीड़ की आंखों में मुझे यही दिखा. कि भूकंप डरावनी चीज नहीं है क्योंकि उसका सबसे डरावना रूप हम में से किसी को नहीं छोड़ेगा. सोचते हुए यह बात बड़ी खतरनाक मालूम होती है. लेकिन हमारी कुदरती सामूहिक मौत क्या वैसा दुख पैदा करेगी, जैसा अपने घर में पंखे से लटकती हुई लाश को देखकर होता है. वो जो घर में साथ रहता था, उसने मरजी से अपनी जान ले ली. मैं कितना पारिवारिक होकर सोच रहा हूं. मुझे माफ करें.तो जो डर नहीं है, क्या उसकी वजह यही है? कि कुदरती तरीके से आई 'अपनी और अपनों की सामूहिक मौत' इतनी बुरी नहीं होगी. क्योंकि उसका दुख भोगने के लिए न हम होंगे, न हमारे अपने. और इसीलिए शायद हमारे पास भूकंप से दीर्घकालिक डर की कोई प्रकट वजह नहीं है.
दी लल्लनटॉप के लिए ये लेख कुलदीप सरदार ने लिखा है.
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