देश का सबसे बड़ा डकैत, जिस पर 7 लाख रुपये का इनाम है
चित्रकूट और आस-पास के जिलों में इस डकैत का इतना खौफ है कि लोग मोबाइल तक बंद रखने में अपनी भलाई समझते हैं.
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बबली कोल की ये शुरुआती तस्वीर है. इसके बाद की कोई फोटो पुलिस के दस्तावेज में उपलब्ध नहीं है.
शोले फिल्म देखी है? देखी ही होगी. उसमें डकैत गब्बर का एक डायलॉग है,
50-50 कोस दूर जब बच्चा रोता है तो मां कहती है बेटा सो जा, वरना गब्बर आ जाएगा.वो फिल्म थी, लेकिन चित्रकूट के जंगलों में ऐसी दहशत हकीकत है. नाम है बबली कोल. पुलिस हो, नेता हो, आदमी-औरत हों या बच्चे, सब उसकी परछाईं से भी बचना चाहते हैं. उम्र मात्र 35 साल है और सरकार की ओर से उस पर 7 लाख रुपये का इनाम घोषित किया गया है. इस वक्त इतना इनाम किसी डकैत पर नहीं है.
तमंचा रखने के आरोप में गया जेल, आज हथियारों का जखीरा है

कभी डकैतों के सफाए के लिए सेना भी लगाई जा चुकी थी.
रामचरन मजदूर थे. चित्रकूट के डोंडा सोसाइटी के कोलान टिकरिया गांव में रहते थे. उनके घर 1979 में एक लड़के का जन्म हुआ. नाम रखा गया बबली. 8वीं तक की पढ़ाई गांव से ही की. वहां से पढ़ने के लिए शहर गया, लेकिन लौट आया. 2007 में पुलिस ने उसे तमंचा रखने और डकैत ठोकिया की मदद करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. जेल में उसकी मुलाकात ठोकिया गिरोह के डकैत लाले पटेल से हुई. दोस्ती शुरू हुई तो फिर बबली जुर्म के रास्ते पर आगे बढ़ता गया. बबली ने लाले को जेल से छुड़ाने का प्लान बनाया. एक दिन जब दोनों की एक साथ कोर्ट में पेशी थी, बबली और लाले फरार होकर पाठा के जंगलों में उतर गए.
शादी में मिला डकैत बलखड़िया और बबली बन गया शार्प शूटर

बलखड़िया (बाएं) के गैंग मेें शामिल होने के बाद बबली (दाएं) की दहशत बढ़ गई.
जेल से फरार होकर बबली, लाले और उसके कुछ साथियों ने एक गैंग बना लिया. 4 अगस्त 2008 का दिन था. पुलिस ने एनकाउंटर में ठोकिया को मार गिराया. उस वक्त तक ठोकिया पाठा के जंगलों पर एकछत्र राज्य करता था. उसके मारे जाने के बाद स्वदेश पटेल उर्फ बलखड़िया के नाम का आतंक हो गया. 2012 का साल था. एक शादी में बबली की मुलाकात बलखड़िया से हुई. बलखड़िया को इस लड़के में कुछ खास दिखा और उसने बबली को अपने साथ आने को कहा. गैंग में शामिल होने के बाद बबली बलखड़िया गैंग का शार्प शूटर बन गया.
ददुआ से भी खतरनाक बन गया

ददुआ (बाएं मूर्ति है, दाएं वाली तस्वीर पुलिस के पास उपलब्ध है) का आतंक जंगलों में सबसे ज्यादा था.
बलखड़िया गैंग में शामिल होने के बाद बबली ने 2012 में ही टिकरिया गांव में दो लोगों की हत्या कर दी. पुलिस में उसके खिलाफ हत्या का ये पहला मुकदमा दर्ज हुआ. इसी साल बबली कोल ने टिकरिया गांव के ही पांच लोगों की नाक काटकर उन्हें गोलियां मार दीं और फिर पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया. इतना ही नहीं, बबली ने पांचों लोगों के घरों में आग भी लगा दी. बबली ने इस वारदात का वीडियो भी बनवाया, जिसे देखकर लोगों की रूह कांप गई. इसके बाद ही पुलिस ने उस पर 1 लाख रुपये का इनाम घोषित कर दिया. 31 दिसंबर की रात को बबली ने खमरिया के जंगलों में दो लोगों की हत्या कर दी. उसने अपना प्रभाव क्षेत्र मध्य प्रदेश तक बढ़ाया और मानिकपुर जिले के निही गांव में राजू पाल की हत्या कर दी. राजू पहले बबली का मुखबिर था और बाद में मध्य प्रदेश एसटीएफ का मुखबिर बन गया. उसकी हत्या के बाद से तो गांव के लोगों में पूरी तरह से बबली की दहशत कायम हो गई. 2012 से 2017 तक पांच साल के बीच बबली ने 70 से ज्यादा लोगों की हत्या की है. यूपी और मध्य प्रदेश में बबली पर 150 से ज्यादा मामले दर्ज हैं, जिनमें हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण और वसूली करने के मामले में दर्ज हैं.
2015 में मिली पूरी ताकत

बबली गैंग के लोगों ने तेल टैंकरों को आग के हवाले कर दिया था.
2 जुलाई 2015 का दिन बबली के लिए खासा महत्वपूर्ण था. पाठा के जंगलों में टिकरिया गांव के बाहर एसटीएफ और बलखड़िया गैंग के बीच मुठभेड़ हो गई. बलखड़िया को भी गोली लग गई और बबली उसे कंधे पर लादकर भागने लगा. बबली उसे एसटीएफ के सामने से निकाल तो ले गया, लेकिन गोली लगने से घायल बलखड़िया की मौत हो गई. बबली ने जंगलों में ही बलखड़िया का अंतिम संस्कार किया और उसके बाद गैंग की कमान खुद संभाल ली. बलखड़िया के मारे जाने और गैंग की कमान बबली के हाथ में आने के बाद वो और भी खतरनाक हो गया. लोगों का अपहरण करना और उन्हें जिंदा जलाकर मारने के तरीकों ने उसके नाम की दहशत कायम कर दी है. बताया जाता है कि उसके गैंग में 15 से 20 लोग हैं, जिनके पास आधुनिक हथियार हैं जो पुलिसवालों से लूटे गए हैं.
2016 में हुई मुठभेड़, लेकिन बच निकला बबली
22 मई, 2016 की शाम थी. मारकुंडी इलाके में पुलिस ने बबली और उसके साथियों को घेर लिया. दोनों तरफ से गोलीबारी हुई, जिसमें बबली भाग निकला. पुलिस ने इस मुठभेड़ के बाद हथियार और बबली का लेटर पैड बरामद किया था, जिसके जरिए बबली वसूली करता था.2017 में कर दी दरोगा की हत्या

24 अगस्त 2017 को हुई मुठभेड़ में दरोगा जेपी सिंह (बाएं) शहीद हो गए. उसके बाद से जंगल में कॉम्बिंग जारी है.
24 अगस्त को चित्रकूट के निहिचिरैया गांव के औदर में पुलिस ने बबली के गैंग को घेर लिया. पुलिस और डकैतों के बीच भारी गोलीबारी हुई, जिसमें यूपी पुलिस के एक दरोगा जेपी सिंह शहीद हो गए. इस मुठभेड़ के दौरान पुलिस ने तीन डकैतों को तो गिरफ्तार कर लिया, लेकिन सात लाख रुपये का इनामी डकैत बबली पुलिस की गिरफ्त से एक बार फिर फरार हो गया. अब पुलिस और एसटीएफ उसकी तलाश में जंगलों की खाक छान रही है, लेकिन नतीजा सिफर है. चित्रकूट एसपी गोपेन्द्र और अपर एसपी बलवंत चौधरी की अगुवाई में जिला पुलिस के साथ ही मंडल के दूसरे जिलों की पुलिस भी बबली की तलाश कर रही है.
पुलिस ने मार गिराए दो साथी
अगस्त 2017 में हालिया मुठभेड़ के बाद डीआईजी ज्ञानेश्वर तिवारी ने बताया था कि बबली कोल और उसके साथी लवलेश कोल को गोली लगी है. बाद में दावा किया गया कि बबली का साथी लवलेश कोल मारा गया. उसके कुछ ही दिनों बाद 4 सितंबर को डीआईजी चित्रकूट ने ट्वीट कर दावा किया कि बबली का एक और साथी शारदा कोल मारा गया है.@dgpup
— Dig Range Chitrakoot (@digchitrakoot) September 4, 2017
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द्वारा आई०एस० २६२ बबली कोल गैंग का हार्डकोर सदस्य शारदा कोल मारा गया #uppolice
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दहशत इतनी कि मोबाइल तक नहीं रखते लोग

पाठा के जंगलों में आम आदमी तो छोड़िए, पुलिस भी जाने से बचना चाहती है.
इलाके में बबली की दहशत इतनी है कि लोग अपने मोबाइल तक बंद रखते हैं. बबली ने अभी 30 जून को ही जासूसी के शक में मध्य प्रदेश के नयागांव इलाके के मुन्ना यादव, रामप्रसाद और पथरापाल देव के इंद्रपाल यादव का अपहरण कर लिया था और उनको जिंदा जलाकर मार दिया था. इस वारदात के बाद लोग इतने दहशत में आ गए कि उन्होंने मोबाइल बंद कर लिए. दबी हुई जुबान से क्षेत्र के लोग बताते हैं, 'अगर मोबाइल चालू रहा तो बबली और उसके गिरोह को शक होता है कि हम पुलिस के लिए मुखबिरी करते हैं. वहीं मोबाइल की वजह से पुलिस को भी लगता है कि गांव वाले डकैतों की मदद कर रहे हैं. ऐसे में हम लोग दोनों के बीच फंसे हुए हैं.' बबली तकनीक का भी बेहतर इस्तेमाल करता है. बीहड़ी सूत्रों की मानें तो वो स्मार्ट फोन रखता है और वॉट्सऐप भी चलाता है. जंगल से बाहर फिरौती वसूलने के लिए वो गूगल मैप का भी इस्तेमाल करता है.
वारदात वहां, जहां दिन में भी रात होती है

एक बार जंगल में छिप जाने के बाद डकैतों को खोजना मुश्किल हो जाता है.
विंध्य पर्वत श्रृंखला वाले चित्रकूट में ऐसे जंगल हैं, जहां दिन के 12 बजे भी अंधेरा रहता है. वहां जमीन तक सूरज की रोशनी भी नहीं पहुंच पाती है. इन जंगलों में बेधक, चमरौंहा, सकरौंहा, गिदुरहा, रानीपुर, लालचौक, हनुमानचौक, अमरावती, ददरी, मऊ-गुरदरी, बहिलपुरवा, कोलुहा और मडफा डकैतों के लिए हमेशा से महफूज रहे हैं. इन जंगलों में जानवरों की वजह से भी लोग जाने से कतराते हैं. डकैतों के लिए चित्रकूट का पाठा जंगल इतना सुरक्षित है कि वो उसमें घुसने के साथ ही गायब हो जाते हैं. कहीं भी वारदात को अंजाम देकर डकैतों का गिरोह जंगल में गुम हो जाता है और पुलिस खाली हाथ रह जाती है. 40 साल तक बीहड़ के बेताज बादशाह रहे शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ ने 1986 में चित्रकूट के रामूपुरवा गांव में 9 लोगों को लाइन में खड़ा कर गोली मार दी थी, जिसकी गूंज पूरे देश में सुनाई पड़ी थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह को भी रामूपुरवा जाना पड़ा था. 2003 में भरतकूप के बगहियापुरवा में ठोकिया, 2007 में एसटीएफ से मुठभेड़ में रागिया, 2009 में मध्य प्रदेश के बिछियन में बलखड़िया और 2012 में डोडामाफी गांव में बबली कोल ने सामूहिक नरसंहार किए. इन वारदात में एसटीएफ के 6 जवानों समेत 30 से अधिक लोग या तो गोलियों से भून दिए गए या फिर जिंदा जला दिए गए.
असली मुठभेड़ में हर बार हारी है पुलिस

जंगल में जब-जब मुठभेड़ हुई है, पुलिस के जवान शहीद हुए हैं.
ये सच है कि पुलिस और एसटीएफ की वजह से ही ददुआ, ठोकिया, रागिया और बलखड़िया जैसे डकैत मारे गए, लेकिन ये भी उतना ही सच है कि जब-जब पुलिस और डकैतों की सीधी मुठभेड़ हुई है, पुलिस ने हमेशा मुंह की ही खाई है. ऐसी मुठभेड़ में अब तक 20 पुलिसकर्मी शहीद हो चुके हैं, जबकि इतने ही पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल हैं. 17 जून, 2009 को इलाहाबाद के राजापुर के जमौली गांव में हुई मुठभेड़ को आज भी पुलिस वाले याद करते हैं. एक घर में छिपा डकैत घनश्याम केवट तीन दिनों तक 700 पुलिस वालों, एसओजी और एसटीएफ से मुठभेड़ करता रहा. दो पीएसी जवानों, एक एसओजी जवान और एक एसटीएफ जवान की हत्या करने और बांदा के तत्कालीन डीआईजी, पीएसी के आईजी सहित सात लोगों को गोलियों से घायल कर दिया. तीसरे दिन पुलिस घनश्याम को तब मार पाई, जब वह घर से निकलकर गांव के बाहर भाग रहा था. 23 जुलाई, 2007 को भी एक नरसंहार हुआ था, जिसमें एसटीएफ के सात सिपाहियों की हत्या कर दी गई थी और सात सिपाही गंभीर रूप से घायल हो गए थे. ये काम ठोकिया का था. उसने बघोलन तिराहे में एसटीएफ जवानों की दो गाड़ियों को चारों ओर से घेर लिया और उसपर अंधाधुंध फायरिंग कर दी. इससे पहले भी ठोकिया ने बौनापुरवा गांव में दो सिपाहियों की हत्या कर उनकी राइफलें लूट ली थीं. कालींजर इलाके के नोखे का पुरवा में मुठभेड़े के दौरान कोतवाली के सिपाही बृजकांत मिश्रा की डकैतों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. 24 अगस्त को भी हुई मुठभेड़ में बबली ने दरोगा की हत्या कर दी और दो पुलिसवाले गंभीर रूप से घायल हो गए.
हमेशा से रहा है राजनैतिक दखल

पाठा के जंगलों में लोगों ने ददुआ की मूर्ति मंदिर में लगवा रखी है.
जंगल में डकैतों का ही कानून चलता रहा है, जिसका असर सियासत पर भी पड़ता रहा है. डकैत हर बार अपने मनमाफिक नेताओं के पक्ष में समर्थन जारी करते रहे हैं. उनकी दहशत इतनी रही है कि गांव वाले भी डकैतों की नाफरमानी नहीं कर पाते हैं. डकैतों का सियासी रसूख 80 के दशक तक तो कम रहा था, लेकिन जैसे-जैसे डकैतों को वाया सियासत पैसा दिखने लगा, उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी. जंगल के बीच बने गांवों में पार्टियों या नेताओं की कोई पकड़ नहीं थी. धीरे-धीरे नेताओं ने डकैतों को संरक्षण देना और उनसे समर्थन लेना शुरू कर दिया, जिससे नेताओं के साथ ही डकैतों का भी काम आसान हो गया. पाठा के जंगलों में मजबूत हो चुके ददुआ ने कुछ पूर्व डकैतों के साथ मिलकर राजनीति शुरू की. अपने पक्ष में वोट डलवाने के लिए डकैत सिर्फ एक मुखबिर के सहारे 50-100 गांवों तक यह संदेश पहुंचा देते थे कि किस पार्टी, निशान और प्रत्याशी को वोट देना है. उस वक्त किसी की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह विरोध कर सके. अगर कोई खिलाफ बोलने की हिम्मत करता था तो उसकी लाठियों से पिटाई होती थी. फरमान जारी करने का दूसरा तरीका किसी ऊंचे पहाड़ पर चढ़कर लाउडस्पीकर से बोलना होता था. इसके अलावा शाम के वक्त प्रत्याशी दूरदराज के गांवों में छोटी-छोटी जनसभाएं करने जाते थे, जहां उनके साथ आस-पास के नामी डकैत रहते थे. चौथे तरीके में हर गांव में डुगडुगी पिटवाकर ऐलान होता था कि वोट किसे देना है. डकैतों का ही असर था कि 80 के दशक से शुरू हुआ यह खेल 90 के दशक के आखिर तक पूरे रंग में आ गया.
2007 तक ज्यादा रहा सियासी रसूख

ददुआ के भाई बाल कुमार पटेल सपा के टिकट पर मिर्जापुर से सांसद रह चुके हैं.
2007 तक यूपी के बांदा-चित्रकूट, महोबा, फतेहपुर, कौशांबी, इलाहाबाद के अलावा मध्य प्रदेश के कई जिलों में पंचायत, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कार्यकर्ताओं ने नहीं, डकैतों ने जीत का रास्ता बनाया. ददुआ के अलावा सीताराम, अंगद, हनुमान और राधे ने भी कुछ हद तक चुनावी राजनीति का रुख अपने हिसाब से मोड़ा. इटावा-औरैया के बीहड़ों में डकैत बोलते थे और निरीह आम लोग सिर्फ सुनते थे. 80 के दशक में यहां श्रीराम-लालाराम नाम के निर्दयी डकैतों का आतंक था. बीहड़ में श्रीराम-लालाराम के अलावा अरविंद गुर्जर, निर्भय गुर्जर, रामवीर, सलीम पहलवान, जगजीवन परिहार, चंदन यादव, रामआसरे उर्फ फक्कड़, कुसुमा नाइन और रेनू यादव के फरमान खूब चले. 90 के दशक से 2005 तक पचनद के बीहड़ से झांसी तक निर्भय गुर्जर का खौफ पसरा था. चुनाव में डकैतों के समर्थन के पीछे पैसे के अलावा ये भी आश्वासन मिलता था कि सरकार आने पर दिक्कत नहीं होगी. कमोबेश ऐसी स्थिति अब भी कायम है.
वीडियो में देखें बबली की दहशत:
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