सीन खुलता है. साल 1993. ‘खलनायक’ फ़िल्म का नायक. उसका नाम जुड़ता है 1993बॉम्बे सीरियल ब्लास्ट से. टाडा लगता है. उसे अरेस्ट किया जाता है. करियर तबाह.
सीन बदलता है. कट टू सिक्स इयर्स लेटर. फिल्मफेयर का स्टेज. शाहरुख़ और जूही बेस्ट ऐक्टर का अवॉर्ड अनाउंस करने को हैं. वक़्त थमा हुआ है. फिंगर्स क्रॉस्ड हैं. नाम पुकारा जाता है. ऑडियंस झूम उठती है. लोग गले लगकर बधाईयां देते हैं. उन बधाईयों को चीरता हुआ एक शख़्स स्टेज पर आता है. फिल्मफेयर रिसीव करता है और कहता है:
बीस साल बाद, मिला तो सही.
अवॉर्ड के लिए उसकी रेस थी मनोज बाजपेयी,आमिर खान,सलमान खान और अजय देवगन से. इस चौकड़ी में पांचवां आदमी दरवाज़ा तोड़कर घुस आया था. उसने फ़िल्मफेयर की दीवार भी तोड़ दी थी.
मुंबई पर राज करता हूं राज. पकड़ने की बात छोड़, अपुन को कोई टच भी नहीं कर सकता.
उस पांचवे शख़्स का नाम है, संजय दत्त. और जिस फ़िल्म के लिए फिल्मफेयर मिला, वो थी ‘वास्तव’ (Vaastav). संजय दत्त की13फ्लॉप फ़िल्मों के बाद एक बड़ी हिट फ़िल्म. करियर को नया बूम.
आज इसी रील लाइफ फ़िल्म के कुछ रियल किस्से आपको सुनाएंगे.
# संजय की मां को महंगी पड़ी पावर नैप

चूंकि हम ठहरे बैक बेंचर्स.इसलिए शुरू से नहीं आखिर से शुरू करेंगे. क्लाइमैक्स सीन से. ऐसा सीन, जिसने रीमा लागू को शिखर पर पहुंचा दिया. इस सीन में रीमा की ऐक्टिंग ने महफ़िल लूट ली. संजय दत्त से ज़्यादा उनकी चर्चा हुई. संजय से सिर्फ़ एक साल बड़ी रीमा ने फ़िल्म में उनकी मां का रोल किया था. उन्होंने दो पेटी की बंदूक से गोली चलाई. संजय दत्त खल्लास. इस सीन ने और यहां के डायलॉग ने रीमा को हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में अमर कर दिया.
मैंने मारा नहीं उसको. मैंने मुक्ति दी है अपने बेटे को. वो तो कब का मर गया था, आज जान निकल गई.
तो किस्सा ये है कि सीन शूट होने में अभी कुछ समय था. रीमा ने सोचा एक पावर नैप ले ली जाए. मेकअप लगाकर वो सो गयीं. सीन लग गया. फ़िल्म के डायरेक्टर महेश मांजरेकर एक्शन बोलने को बेताब. रीमा को बुलाया गया. अपनी सोई हुई आंखों में वो मांजरेकर के सामने आईं. मांजरेकर आग बबूला. इतने इम्पोर्टेन्ट सीन से पहले रीमा सो कैसे गयीं. वो सबके सामने उन पर बिफर पड़े. रीमा चुप रहीं. मेकअप किया और क्लाइमैक्स शूट हुआ. रीमा ने उस सीन में बेजोड़ काम किया. सिर्फ़ दो टेक और सीन फाइनल. मांजरेकर शर्मिंदा थे. सीन के बाद उन्होंने रीमा से माफ़ी मांगी. फिर सार्वजनिक तौर पर भी अपनी ग़लती कुबूल की.
# 30 मिनट में 20 सीन

किसी नॉन लीनियर नरेटिव फ़िल्म की तरह ‘वास्तव’ के सेट से सीधे जम्प करते हैं साल 1995 में. ‘डीडीएलजे’ हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में तहलका मचा रही थी. ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी ज़िंदगी’ कल्ट बनने के करीब था. ठीक उसी समय मराठी इंडस्ट्री में महेश मांजरेकर की फ़िल्म ‘आई’ ने गदर काट रखा था. इसी फ़िल्म के चलते उन्हें उनकी पहली फ़िल्म मिली ‘निदान’. जिसे वो बना रहे थे संजय दत्त के फैन पर. इसी फ़िल्म के सिलिसिले में एक कॉमन फ्रैंड के जरिए उनका मिलना संजय से हुआ. ‘निदान’ की डबिंग चल रही थी. महेश ने उनसे एक स्क्रिप्ट सुनाने की इच्छा जताई. संजय ने बुला लिया. अब यहां था एक लोचा. महेश को नहीं पता था कि तुरंत बुला लिया जाएगा. स्क्रिप्ट रेडी नहीं थी. होटल में बैठे महेश ने पेन पेपर मंगाया और लिखना शुरू किया. 30 मिनट में 20 सीन खींच डाले. कागज लिया और संजय के पास पहुंच गये. आधे घंटे मे लिखी गई स्क्रिप्ट दत्त ने 15 मिनट में फाइनल कर दी. ‘निदान’ के बाद शुरू हुई ‘वास्तव’ पहले रिलीज हो गई और संजय के डूबते करियर की नैया को महेश नामक मांझी ने किनारे लगा दिया.
# अंडरवर्ल्ड की कहानी, अंडरवर्ल्ड का पैसा

कहते हैं अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम के कई हाथ थे. लगभग सबने दाऊद को धोखा दिया. पर एक शख्स जो हमेशा उसके साथ खड़ा रहा, वो था छोटा राजन. ‘वास्तव’ को उसी की ज़िंदगी से प्रेरित माना जाता है. उस दिन महेश ने जिस स्क्रिप्ट के 20 सीन आधे घंटे मे खींच दिए थे, दरअसल उनके दिमाग में छोटा राजन था. उसके कारनामे थे. उसकी ज़िंदगी, उसका परिवार था. कई सिने एक्सपर्ट तो इसे क्वीन के गाने बोहेमियन रैप्सडी से भी इंस्पायर मानते हैं.
एक ज़माना था जब बॉलीवुड में अंडरवर्ल्ड की तूती बोलती थी. उनका काला पैसा बॉलीवुड में सफ़ेद हुआ करता था. कहते हैं ‘वास्तव’ ऐसी ही एक फ़िल्म थी. कहते हैं इस फ़िल्म में पैसा भी छोटा राजन का ही लगा था. उसी की ज़िंदगी पर फ़िल्म. उसी का पैसा. चूंकि संजय दत्त और महेश मांजरेकर का नाम समय- समय पर अंडरवर्ल्ड से जुड़ता रहा है, तो ऐसा होने की संभावना को सिनेप्रेमी पूरी तरह खारिज भी नहीं करते.
# मराठी मंडली ने तहलका मचा दिया

वास्तव ने संजय दत्त के करियर का धज तो बदला ही, साथ-साथ कुछ मराठी कलाकारों के भाग्य को भी बदल दिया. मराठी फिल्मों से आए मांजरेकर ने इस फ़िल्म में पूरी मराठी मंडली उतार दी. और सबने एक से बढ़कर एक परफ़ॉर्मेंस दी. डेढ़ फुटिया को कौन भूल सकता है! उसी रोल के चलते संजय नार्वेकर आज बड़े नाम हैं. उनकी कास्टिंग का किस्सा भी मज़ेदार है. वास्तव का पहला शूट शेड्यूल शुरू हो चुका था. डेढ़ फुटिया के रोल में किसी को फाइनल नहीं किया गया था. शूटिंग के दौरान महेश को नार्वेकर का नाम चमका और उन्होंने बुलावा भेज दिया. नार्वेकर मढ आईलैंड पहुंचे. जहां फ़िल्म शूट हो रही थी. ऑडिशन दिया. सेलेक्शन हुआ. दूसरे दिन शूट पर आ गये. जब संजय दत्त शूट पर पहुंचे तो क्या देखते हैं, नार्वेकर सीढ़ियों पर बैठे हैं. उन्हें किसी ने कुर्सी तक नहीं दी. दत्त उनसे मिले. उनकी ऑडिशन परफ़ॉर्मेंस को सराहा. और अपने मैनेजर से कहा, आगे कभी ऐसा न हो कि नार्वेकर को कुर्सी न मिले.
रीमा लागू को इस फ़िल्म ने हिन्दी सिनेमा में अमर कर दिया. शिवाजी साटम, नम्रता शिरोडकर ने भी बढ़िया काम किया. वो सोनिया के रोल के लिए पहली पसंद नहीं थीं. उनसे पहले उर्मिला मातोंडकर को इस रोल के लिए अप्रोच किया गया था. किसी कारण से उन्होंने रोल रिजेक्ट किया और नम्रता ने लपक लिया. महेश ने ऐक्टिंग में तो मराठी मंडली उतारी ही, संगीत में भी मराठी फ़नकारों पर भरोसा दिखाया. जतिन-ललित के साथ राहुल रानडे का संगीत. अतुल काले, रवींद्र साठे की आवाज़. फ़िल्म के लिए रिकॉर्ड की गयी आरती का आज महाराष्ट्र में जलवा है. हालांकि म्यूज़िक बहुत नहीं चला. पर सोनू निगम और कविता कृष्णमूर्ति का गाया गाना, ‘मेरी दुनिया है तुझमें कहीं’ हिट साबित हुआ.
#पचास तोला की यात्रा बहुत लंबी है
संजय दत्त ने फ़िल्म में जैसी डायलॉग डिलीवरी की, उसका आज भी कोई सानी नहीं है. शायद दत्त ने ऐसी डायलॉग डिलीवरी मुन्नाभाई सीरीज़ में भी नहीं की. उनका एक डायलॉग तो ऐसा चला कि आज तक चलता चला आ रहा है. उस डायलॉग में कुछ नहीं है. बस ‘पचास तोला’ बोला गया है.
ये देख रेली है. असली है असली. पचास तोला, पचास तोला, कितना!. पचास तोला.
इस डायलॉग में कुछ नहीं है. सबकुछ है डायलॉग डिलीवरी में. पच्चास तोला बोलने के बाद संजय दत्त जिस तरह से हंसते हैं, वो अद्भुत है. बस यही कारण है कि इस डायलॉग की यात्रा बहुत लंबी है. इसे बहुत दूर तक जाना है.
# पावभाजी=अंडा भुरजी
एक और मज़ेदार किस्सा सुनिए. कहते हैं पावभाजी वाला सीन रियल लाइफ गैंगस्टर से इंस्पायर्ड है. जैसे पावभाजी के स्टाल पर आकर फ्रैक्चर बंड्या के भाई और उसके आदमी डेढ़ फुटिया को पीटते हैं. ठीक वैसा ही इन्सीडेंट मुंबई में हुआ था. बस वहां पावभाजी का ठेला न होकर अंडा भुरजी का ठेला था. वहां भी कोई डेढ़ फुटिया पीटा गया. वहां भी फ्रैक्चर बंड्या और उसका भाई मारा गया. और परिस्थितियों ने वहां भी किसी रघु को अन्डरवर्ल्ड पहुंचा दिया.
#अल पचीनो की फ़िल्म से इंस्पायर रघु

संजय दत्त ने अल पचीनो की एक फ़िल्म देखी और उनके दिमाग़ में अटक गयी. फ़िल्म थी 1983 में आई ‘स्कारफेस’. उस समय अल पचीनो को इसके लिए ऑस्कर नॉमिनेशन न मिलने पर बहुत बवाल हुआ था. बाद में उन्हें इसके लिए फैन्स ने फेक ऑस्कर दिया. संजय दत्त ने जब से ‘स्कारफेस’ देखी थी, वो ऐसी स्क्रिप्ट का इंतज़ार कर रहे थे जिसमें वो अल पचीनो जैसा किरदार निभा सकें. ‘वास्तव’ ने उन्हें ‘रघु’ के रूप में मौक़ा दिया. उन्होंने लपका और बख़ूबी लपका. हालांकि अल पचीनो तो मेथड ऐक्टिंग के बाप हैं. उनको मैच करना तो किसी के बस का नहीं. पर संजय दत्त ने कोशिश भरसक की कि वैसा ही वायलेंस पर्दे पर दिखा सकें और वो कुछ-कुछ सफल भी हुए.
महेश मांजरेकर एक इंटरव्यू में कहते हैं:
स्क्रीन पर ख़ून नहीं है. पर यह मेन्टली वायलेंट फ़िल्म है.
तो ये थे कुछ मेंटली वायलेंट फ़िल्म के किस्से. अलविदा.