जिसके हाथ में बंध जाए उसे 'अपराधी' बना देने वाली हथकड़ी आई कहां से, किसने बनाया इसे?
दिल्ली पुलिस ने निर्देश जारी किया है कि हथकड़ियों का प्रयोग अब केवल गंभीर अपराध में होगा. 18 से 21 साल के लड़कों को कोर्ट की अनुमति के बिना हथकड़ी नहीं लगाई जाएगी.
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बॉलीवुड की पिक्चरों को याद कीजिए. पुलिस वालों की कमर में खोंसी हुई बंदूक के अलावा उनके पास एक हथकड़ी भी होती थी. जब वो किसी अपराधी को पकड़ने जाते थे तो अपने हाथ को थोड़ा ऊपर उठाकर हथकड़ी को उसके सामने ऐसे करते, जैसे वह हथकड़ी न हो बल्कि फांसी का फंदा हो. ठीक इसी समय डायरेक्टर कैमरे को ऐसे घुमाता कि हथकड़ी के सर्किल से अपराधी या विलेन का चेहरा दिखता था. मतलब होता था कि अब गिरफ्तारी हो गई. अब वह ‘कानून के फंदे’ से बचकर नहीं भाग सकता.
लेकिन क्या आपको पता है, हर अपराधी के हाथ में पुलिस हथकड़ी नहीं लगा सकती? गंभीर अपराधी न हों, आतंकवादी न हों, कई बार कस्टडी से भागने का इतिहास न हो तो सामान्य आरोपियों को हथकड़ी लगाकर जेल नहीं ले जाया जा सकता. दिल्ली पुलिस ने भी हाल ही में निर्देश जारी किया है कि किसी को भी हथकड़ी लगाने से पहले संदिग्ध का पूरा रेकॉर्ड खंगाला जाएगा. उसका बैकग्राउंड, व्यवहार, उम्र, मेंटल हेल्थ, फिजिकल हेल्थ सब कुछ जानना होगा. इसके बाद ही हथकड़ी लगाने को लेकर फैसला लिया जाएगा. 18 से 21 साल के लड़कों को तो कोर्ट के ऑर्डर के बिना हथकड़ी लगाई ही नहीं जाएगी.
मानवीय गरिमा के लिहाज से हथकड़ियों को बहुत सही नहीं माना जाता. मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि अगर कोई गंभीर खतरा न हो तो आरोपियों या दोषियों के हाथ बांधकर उन्हें सार्वजनिक तौर पर अपमानित नहीं किया जाना चाहिए.
ये 21वीं सदी की बहस है. लेकिन पुराने जमाने में तो संदिग्धों को ऐसी हथकड़ियां लगाई जाती थीं कि कैदी जरा ‘टस-मस’ हो तो हाथ की हड्डी टूट जाए. यह एकदम शुरुआत की बात है. तब से लेकर आज तक हथकड़ियों में बहुत सुधार हुआ है. उनसे होने वाले जोखिम भी कम हुए हैं और अब तो इनके इस्तेमाल में 'कतरब्योंत' का सिलसिला भी तेज हो गया है.
हथकड़ी को लेकर कभी आपने सोचा है कि ये किसके दिमाग की उपज होगी? किसने सोचा होगा कि कलाई पर लोहे, स्टील या किसी अन्य धातु की बनी हथकड़ी लगाकर अपराधियों को थाने या कोर्ट ले जाया जाए? चलिए आज यही पता लगाने की कोशिश करते हैं कि हथकड़ी का इतिहास कहां तक जाता है? कबसे यह दबंग अपराधियों की अराजकता पर अंकुश की तरह इस्तेमाल किया जाता है?

आरोपियों, संदिग्धों या शत्रुओं को पकड़ने के लिए 'प्राचीन काल' से ही जंजीरों का इस्तेमाल होता आ रहा है. इनका इतिहास देखें तो भारत के पौराणिक साहित्य में भी इसके चिह्न मिलते हैं. लंका की अशोक वाटिका तहस-नहस करने वाले ‘बेकाबू’ हनुमान को मेघनाद ने 'पाश' में बांध लिया था. इसके बाद ही उन्हें पकड़ना आसान हो पाया. इसके अलावा, महाभारत में गंधर्वों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले दुर्योधन को भी बंदी बनाने का प्रसंग है. लेकिन ये बंधन जंजीरों से जकड़ने के सिलसिले में माने जा सकते हैं.
हथकड़ियों का विचार सबसे पहले यूनानी पौराणिक कथाओं में सामने आता है.
'देवता को भी काबू में करती हथकड़ी'
कनाडा की लॉ इन्फोर्समेंट मैगजीन ब्लू लाइन के मुताबिक, ग्रीक कथाओं में समुद्र का एक बूढ़ा देवता प्रोटियस था. उसके पास भविष्य बताने की शक्ति थी, लेकिन वह लोगों को बताता नहीं था. अगर कोई ज़बरदस्ती कोशिश करता, तो वह अपनी शक्ल बदल लेता. कभी आग बन जाता. कभी पानी की बूंद. इस तरह लोगों की पकड़ से बच निकलता. लेकिन एक चीज थी जिससे वह भी नहीं बच सकता था और यह बात अरिस्टियस को पता थी.
अरिस्टियस, प्रोटियस से मिलने समुद्र के किनारे पहुंचा. प्रोटियस वहां समुद्री जीवों के साथ धूप सेक रहा था. अरिस्टियस ने झट से उस पर हथकड़ी डाल दी. इसके बाद प्रोटियस चाहे जितना भेष बदलने की कोशिश करता, कुछ काम नहीं आया और इस तरह से हथकड़ियों ने ‘देवता को भी काबू’ में कर लिया था.
कहां से आया 'हैंडकफ' शब्द?
17वीं-18वीं सदी में अपराधियों को पकड़ने के लिए हथकड़ियां चलन में आ चुकी थीं. 1894 में स्कॉटलैंड यार्ड के इंस्पेक्टर मौरिस मोजर ने एक लेख लिखा था. इसका नाम था- Handcuffs. वो अपने जमाने में हथकड़ियों के बड़े जानकार थे. अपने लेख में वह बताते हैं कि उनके जमाने में भी ‘कॉप’ शब्द पुलिसवालों के लिए इस्तेमाल होता था. ‘कॉप’ एक पुराना ऐंग्लो-सैक्सन शब्द है, जिसका मतलब है- पकड़ना. इसी से पुलिसवालों के लिए ‘हैंडकॉप’ शब्द बना. यानी वह चीज जो हाथों को पकड़ ले. कहते हैं कि यहीं से आज का ‘हथकड़ी’ यानी Handcuffs शब्द निकला.
साल 1850 तक इंग्लैंड में 2 तरह की हथकड़ियां प्रचलित थीं. एक जो हाथ में बिल्कुल टाइट फिट हो जाती थी और कैदी को हिलने-डुलने नहीं देती थी. दूसरी थोड़ी ‘फ्लेक्सिबल’ थी, जिससे कैदी खाना खा पाता और दूसरे काम कर पाता था. लेकिन ये भारी भी होती थी और हर कैदी की कलाई के हिसाब से अलग आकार की रखनी पड़ती थी, जिससे दिक्कत होती थी.
आज वाली हथकड़ी कब बनी?
18वीं सदी में हथकड़ियों का डिजाइन कुछ वैसा बनने लगा जैसा आज हम जानते हैं. खासतौर पर यूरोप में. उस समय लोहे की हथकड़ियां ज्यादा इस्तेमाल होने लगी थीं. इनमें साधारण ताले लगे होते थे. भारी और सख्त होने की वजह से इन्हें पहनने वाले को काफी तकलीफ होती थी.
19वीं सदी में एडजस्ट होने वाली हथकड़ियां बननी शुरू हो गईं. 1862 में WV एडम्स ने पहली बार एडजस्ट होने वाली रैचेट हथकड़ी का पेटेंट करवाया. इसकी मदद से हथकड़ी को अलग-अलग कलाई के आकार के हिसाब से ढीला या कस कर पहना जा सकता था. यह कैदियों को ले जाने के लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ.
इस वक्त ऐसी हथकड़ियां बनने लगी थीं जो एक ही डिजाइन में सबके लिए फिट हो जाएं. इनमें ‘स्नैप’, ‘निपर्स’ और ‘ट्विस्टर’ जैसी हथकड़ियां थीं. ‘स्नैप’ में एक बड़ा और एक छोटा लूप होता था. पुलिस वाला बड़े लूप को पकड़ता और छोटा लूप कैदी की कलाई पर ‘स्नैप’ होकर बंद हो जाता.

‘ट्विस्टर’ में चैन और दो हैंडल होते थे, जिससे कलाई को घेर कर पकड़ा जाता था. अगर कैदी छटपटाता तो उसे दर्द होता था और हड्डी भी टूट सकती थी. खतरा यह था कि इससे कैदी या पुलिसवाला किसी का भी हाथ टूट सकता था.
एडजस्ट होने वाली हथकड़ी
अमेरिकियों ने इस परेशानी को हल करने की कोशिश की. डब्ल्यूवी एडम्स ने रैचेट सिस्टम वाली एडजस्ट होने वाली हथकड़ी बनाई तो 1866 में ऑर्सन सी फेल्प्स ने इसका और मजबूत और सेफ वर्जन तैयार किया. 1865 में जॉन जे. टॉवर ने ‘डबल लॉक’ सिस्टम ईजाद किया जिससे हथकड़ी आसानी से खोली न जा सके. इसमें चाबी को एक तरफ घुमाने से लॉक लग जाता था और दूसरी तरफ घुमाने से खुलता था. ये हथकड़ियां बहुत मजबूत और भारी थीं.
बाद में 1887 में टॉवर ने हल्की हथकड़ियाँ भी बनाईं जो सस्ती थीं, लेकिन उनकी सुरक्षा कम थी.
अब आते हैं 1914 में. इस साल पीयरलेस हैंडकफ कंपनी बनी. जॉर्ज कार्नी नाम के व्यक्ति ने ‘स्विंग थ्रू’ डिजाइन बनाया, जिसमें एक हाथ से भी हथकड़ी लगाई जा सकती थी. यह हल्की थी और तेजी से लगाई जा सकती थी. यह डिजाइन इतना सफल रहा कि बाद में लगभग सभी कंपनियों ने इसे अपनाया.
भारत में 'हथकड़ी'
भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में ही हथकड़ियों का इस्तेमाल होने लगा था. माना जाता है कि 1912 से इसका इस्तेमाल हो रहा है. ब्रिटिश राज में क्रांतिकारियों को हथकड़ी और पैरों में बेड़ियां पहनाई जाती थीं ताकि वे भाग न पाएं या पुलिस पर हमला न कर सकें.
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