भैया जी सुपरहिट. होंगे कि नहीं, ये कंफर्म नहीं था इसलिए फिल्म का नाम ही ‘भैयाजी सुपरहिट’ रख दिया गया. ‘यमला पगला दीवाना 3’ और ‘मोहल्ला अस्सी’ के बाद 2018 में रिलीज़ होने ये वाली ये सनी देओल की तीसरी फिल्म है. लेटेस्ट वाली फिल्म हमने देखी है और बता रहे हैं कि कैसा रहा इसे देखने का एक्सपीरियंस.
सीधे पॉइंट पे आओ ना, बेसिक कहानी बताओ ना
बेसिक प्लॉट इस फिल्म का ये है कि यूपी का एक डॉन है, जो बनारस में रहता है. नाम है 3डी (दीन दयाल दुबे) भैयाजी. मार्केट में इनका अच्छा-खासा भौकाल है. इनकी पत्नी है शक्की मिज़ाज की. हर दूसरी बात पर पति पर शक कर लेती हैं कि ये किसी और के साथ रोमैंटिकली इंवॉल्व हो रहे हैं. जब ये शक गहरा जाता है, तो घर और भैयाजी को छोड़कर चली जाती हैं. अब ये डॉन अपनी पत्नी को वापस लाने के लिए कई तरह की चीज़ें करता है, जिससे ये फिल्म आगे बढ़ती है.

दुनिया में रहना है, तो काम कर प्यारे…
इसीलिए फिल्म में ढेर सारे लोगों ने काम किया है. फिल्म में इतने सारे किरदार नज़र आते हैं कि आप एक पर कॉन्सेंट्रेट ही नहीं कर पाते. ऊपर से दो-दो सनी देओल भी नज़र आते हैं. अगर एक्टिंग वाले लेवल पर देखें, तो सनी देओल के अलावा फिल्म में सबकुछ ठीक है. फिल्म के तीनों लीड एक्टर्स सनी देओल, प्रीति ज़िंटा और अमीषा पटेल कहीं भी इतने प्रॉमिसिंग नहीं लगते कि फिल्म में आपको अटका के रख सकें. वो तो भला हो अरशद वारसी, श्रेयस तलपड़े, संजय मिश्रा और जयदीप अहलावत का, जिनकी वजह से आपके भीतर फिल्म को देखते रहने की शक्ति आती है.
अरशद वारसी की तासीर ही ऐसी है कि उनके सीन में होने भर से स्क्रीन पर फन आ जाता है. वो इस फिल्म को जितना बचा सकते थे, बचाया है. दूसरी ओर हैं जयदीप अहलावत. ये उन कायदे के एक्टर्स में से हैं, जिनका दुरुपयोग बहुत किया जाता है. पिछली बार ये ‘राज़ी’ और ‘विश्वरूपम 2’ में दिखाई दिए थे. लेकिन ‘राज़ी’ को अगर जाने भी दिया जाए, तो ‘विश्वरूपम 2’ में तो इन्होंने अपनी रेड ही पिटवा ली थी. कुछ वैसा ही हाल इनका इस फिल्म में भी हुआ है. जयदीप का रोल एक मजबूत विलेन का हो सकता था. लेकिन यहां अपने हीरो को इतना बड़ा दिखाना है कि बाकियों को कुछ करने का मौका ही नहीं दिया गया. बात रही अमीषा पटेल की तो उनके होने या न होने से कुछ ज़्यादा फर्क पड़ा नहीं है. वो किरदार कोई भी एक्टर कर सकता था. फिल्म को अगर नुकसान होगा, तो इसमें कास्टिंग का बहुत बड़ा हाथ माना जाना चाहिए. जब आपके पास फिल्म में काम है नहीं करने को, तो आप नोटिस में ही नहीं आओगे. और जब नोटिस में ही नहीं आओगे, तो फिल्म में काम करने का ही क्या फायदा. अब सोचिए फिल्म में पंकज त्रिपाठी भी हैं और सिर्फ दो सीन में दिखते हैं, वो भी वहां, जहां उनकी कोई जरूरत ही नहीं थी. बेड़ा गर्क.

अच्छा लगता है…क्या?
इसका कॉमिक रिलीफ. ये जो एक्टर्स का झुंड आपको दिख रहा होता है, ये टुकड़ों में आपको कुछ न कुछ सर्व करता रहता है, जिससे आपका मन लगा रहता है. डायलॉग्स इसके मजेदार हैं. मतलब कुछ-कुछ तो बहुत फनी. जितनी मेहनत डायलॉग में की गई है, उसका आधा भी अगर कहानी में किया गया होता, तो ‘भैयाजी सुपरहिट’ एक कायदे की फिल्म बन सकती थी, जो ये बनते-बनते रह गई. मिसोजिनी जैसी कोई चीज़ नहीं है. जो जैसा है वैसा दिखाने की कोशिश की गई है. हीरोइन सिर्फ मुंह नहीं ताकती रहती, अपने पति को कायदे से गरियाती है. फोन करके डांटती है. मौका पड़ने पर गुंडों पर लात-मुक्के भी बरसाती है.

गंदी बात, गंदी-गंदी-गंदी-गंदी-गंदी बात
सबसे बुरी बात है फिल्म का एकदम हल्का कॉन्सेप्ट. जिस समय में ‘हल्का’ नाम की फिल्म भी अपने नाम के साथ सौ फीसदी न्याय करती हैं, वहां आप एक ऐसी चीज़ दिखा रहे हैं, जिसके बारे में हर दूसरा आदमी यही कहेगा कि बिन देयर, डन दैट. ऊपर से महाकाल और महादेव का नाम लेकर बारिश करवा देना, बनारस में रहने वाले एक आदमी का नाम चरस भैया रखकर शिव जी को खामखा परेशान करना. ये सब चीज़ें फिल्म की बुरी बातों की लिस्ट में शामिल होती हैं. बैकग्राउंड स्कोर. जब भैयाजी किसी सीन में आते हैं, तो उनके बैकग्राउंड में एक जयकारा जैसा कुछ चलता है, अपबीट ट्यून में. अरे आपने नाम बता दिया है, सब लोग सनी देओल को पहचानते हैं. फिर हर सीन में बताने की क्या जरूरत है कि भैयाजी आ गए हैं. गानों के बारे में बात करना बिलकुल ही गलत होगा क्योंकि ‘स्वीटी-स्वीटी अंखियां’ के अलावा आपको कुछ याद भी नहीं रहता.

चौंक गए?
एक साल में सनी देओल की तीसरी फिल्म होना, ये बहुत चौंकाने वाला फैक्टर है. वो भी तब जब पिछली दो फिल्मों को दर्शकों ने सिरे से नकार दिया है. सनी देओल ने फिल्म के एक सीन में एक्टिंग भी की है. वो एक रोमैंटिंक सीन है, जहां 3डी अपनी पत्नी से अपने प्रेम का इज़हार करता है. दो-दो सनी देओल का होना. यहां एक झेला नहीं जा रहा, तिस पर दूसरा भी आ गया. गुस्सा तो तब आता है, जब पता चलता है कि उसका नाम यो यो फनी सिंह है और अजीब मरी सी आवाज़ में बात करता. उस किरदार के आने से फिल्म में कोई अंतर नहीं आता. फिल्म जो थी वही बनी रहती है और टुकुर-टुकुर ताक रहे होते हैं.
देखते देखते…क्या एक्सपीरियंस हुआ?
ये फिल्म कहीं भी इतनी अझेल नहीं बनती है. ऐसा लगता है थोड़ा सा क्रैप हो रहा है लेकिन आटे में नमक जितनी गलतियां तो चलती हैं. इसमें उससे थोड़ी ज़्यादा हैं. बावजूद इन सब अच्छाइयों के सिनेमाप्रेमियों से ये कहना बेमानी होगा कि ये एक मस्ट वॉच है. इसमें ऐसा कुछ नया नहीं है, या ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जो आपने पहले नहीं देखी. सिर्फ रिफ्रेश होने के लिए जाना चाहते हैं, तो सपरिवार चले जाएं. बहुत अच्छी न लगे तो बुरी तो नहीं ही लगेगी.
वीडियो देखें: फिल्म रिव्यू: पीहू