कई सारे छोटे-छोटे छेदों को देखकर डर लगता है? डॉक्टर से जानिए क्यों होता है ऐसा
छोटे-छोेटे छेदों के डर को ट्राइपोफ़ोबिया कहते हैं. ये एक बहुत ही आम तरह का फ़ोबिया है.

पहले ये तस्वीर देखिए.

क्या आपको ये तस्वीर देखकर बहुत असहज महसूस हो रहा है. घबराहट हो रही है. घिन आ रही. बेचैनी बढ़ रही है. अगर हां, तो मुमकिन है कि आपको ट्राइपोफ़ोबिया हो. छोटे-छोटे कई छेद एक साथ देखकर होने वाली इस बेचैनी, घबराहट और घिन को ट्राइपोफ़ोबिया (Trypophobia) कहते हैं. ये एक बहुत ही आम तरह का फ़ोबिया है. हमारे आसपास दो-चार लोग ऐसे होते ही हैं, जिन्हें ये फ़ोबिया होता है. मधुमक्खी के छत्ते या छेद वाले स्पंज को देखकर इनकी रूह कांप जाती है. जिस चीज़ में जितने ज़्यादा छेद, वो उतनी ही घिनौनी लगती है.
मगर, इस ट्राइपोफ़ोबिया से पार पाने का तरीका क्या है और ये होता क्यों है. चलिए, समझते हैं.
ट्राइपोफ़ोबिया क्या होता है?ये हमें बताया डॉक्टर आशीष कुमार मित्तल ने.

ट्राइपोफ़ोबिया यानी जब कई छोटे-छोटे छेदों या उभारों को देखकर व्यक्ति को बहुत ज़्यादा घबराहट, डर, या घिन महसूस हो. खाने की चीज़ों, फूलों या स्पॉन्ज में बने छोटे-छोटे छेदों को देखकर व्यक्ति को घबराहट हो सकती है. समुद्र में पाए जाने वाले कोरल और अनार के छेदों को देखकर व्यक्ति घबरा सकता है. कीड़ों की आंखें गोल होती हैं, अगर तीन-चार कीड़े एक साथ हों, तो उन्हें देखकर भी मरीज़ को घबराहट हो सकती है. सामान पैक करने के लिए इस्तेमाल होने वाले बबल रैप को देखकर भी कई लोगों को घबराहट होने लगती है. इसी को ट्राइपोफ़ोबिया कहा जाता है.
ट्राइपोफ़ोबिया होने का कारणट्राइपोफ़ोबिया की असली वजह अभी मालूम नहीं है. कुछ थ्योरीज़ के मुताबिक, जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ा है, वैसे-वैसे ये एक डिफेंस मैकेनिज़्म के रूप में विकसित हुआ है. डिफेंस मैकेनिज़्म यानी जब दिमाग हमें किसी भी चीज़ से बचाने की कोशिश करे. जिन चीज़ों को देखकर डर लगता है, हो सकता है कि पहले उनसे कोई बीमारी या एलर्जी होने का ख़तरा रहा हो. और, इन्हीं से बचाने के लिए ट्राइपोफ़ोबिया डिफेंस मैकेनिज़्म के रूप में दिमाग में विकसित हुआ.
ट्राइपोफ़ोबिया के लक्षण- बहुत ज़्यादा छेदों को देखकर घबराहट होना
- बेचैनी होना
- दिल की धड़कनें तेज़ हो जाना
- गला सूखना
- छेद वाली चीज़ों को देखना अवॉइड करना
- ऐसी जगहों पर जाने से बचना, जहां छेद वाली चीज़ें दिखने का चांस हो

ट्राइपोफ़ोबिया के इलाज में सबसे पहले मरीज़ की हिस्ट्री पूछी जाती है. अगर मरीज़ को छेद वाली चीज़ें देखकर घबराहट हो रही है. तब पूरी जांच करने के बाद उसे मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल के पास भेजा जाता है. मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल साइकेट्रिस्ट और साइकोलॉजिस्ट होते हैं. अगर मरीज़ की दिक्कत बहुत गंभीर है, तो साइकेट्रिस्ट उसे कुछ दवाइयां देते हैं. आमतौर पर, ट्राइपोफ़ोबिया में SSRIs (सेलेक्टिव सेरोटोनिन रीअपटेक इनहिबिटर्स) दवाएं दी जाती हैं.
अगर लक्षण हल्के हैं, तो सिर्फ साइकोलॉजिकल इलाज से काम चल जाता है. वहीं, अगर लक्षण गंभीर हैं तो दवा के साथ-साथ साइकोलॉजिकल ट्रीटमेंट ज़रूरी होता है. इस प्रक्रिया को एक्सपोज़र थेरेपी कहा जाता है. ये थेरेपी सिस्टेमेटिक डिसेंसिटाइजेशन के सिद्धांत पर काम करती है. यानी इसमें मरीज़ को धीरे-धीरे उन चीज़ों के पास लाया जाता है, जिनसे उसे डर या घबराहट होती है. समय के साथ, मरीज़ की घबराहट कम होने लगती है.
(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से ज़रूर पूछें. दी लल्लनटॉप आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)
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