सरकार 3 फ़िल्म रिव्यू
अमिताभ बच्चन, मनोज बाजपई, जैकी श्रॉफ, अमित साध और यामी गौतम.
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केतन बुकरैत
11 मई 2017 (Updated: 11 मई 2017, 04:31 AM IST)
सफ़ेद बाल, सरपंच के शब्दों में - बेतरतीबी से बिखरे हुए. बीच-बीच में कुछ ग्रे-एरिया. माथे पर तिलक. आंखों पर बिना फ्रेम का चेहरा. चेहरे पर फ्रेंच कट सी दाढ़ी. दाढ़ी का एक-एक बाल सफ़ेद. कड़ी आवाज़. लेकिन एक-एक बोल एकदम साफ़. कड़े शब्द. सोचे-समझे, नपे-तुले. हाथ में रुद्राक्ष की माला. काले कपड़े. पैरों में कोल्हापुरी. सरकार.
वो सरकार जिसे जो सही लगता है, वो करता है. वो चाहे भगवान के खिलाफ़ हो, समाज के खिलाफ़ हो, पुलिस, कानून या फिर पूरे सिस्टम के खिलाफ़ क्यूं न हो. उसके ये काम तरह-तरह के लोग अपने अपने नज़रिए से देखते हैं. और उसके बारे में अपनी एक राय बना लेते हैं. लेकिन वो इन सब पर ध्यान नहीं देता. वो बस सरकार है. साम-दाम-दंड-भेद वाला सरकार.
सरकार की ये तीसरी पीढ़ी है. तीसरी किस्त भी. नहीं होनी चाहिए थी. बात को गोल-गोल नहीं घुमाते हुए बम फोड़ रहा हूं. ये नहीं होना चाहिए था. सरकार एक सोच है. ये पूरी फ़िल्म में हावी था. असल में ये इस फ़िल्म की टैगलाइन है. टाइपो की वजह से मामला गड़बड़ हो गया है. सरकार, कभी जो सोच थी, अब शौच हो गई है.
काले कपड़े हैं. प्लेट में सुड़कते हुए चाय पीता सुभाष नागरे है. उसके ख़ास हैं. उसके दुश्मन हैं. उसके अपने हैं. उसको धोखा देते अपने हैं. उसके वफ़ादार पराये हैं. फ़िल्म में मज़ा नहीं है. सरकार की आत्मा मर गई है. उसी बन चुके सेटअप में कुछ भी नया भरा जा रहा है. स्लीपवेल की तकिया जब पुरानी हुई तो उसके खोल में लोकल दुकान से कितनी भी रुई भरवा लो लेकिन वो मज़ा नहीं मिलेगा. यही इस फ़िल्म में हुआ है.
अमिताभ बच्चन
महानायक कहा जाता है. आंखों में एक्टिंग की दुकान समेटे रहता है ये बुड्ढा. आवाज़ को अग्निपथ वाले मोड पर ले आया और भौकाल छांट दिया. आप अमिताभ बच्चन से 19 की अपेक्षा ही नहीं कर सकते हैं. वो 20 थे, 20 हैं और 20 ही रहेंगे. कोई भले ही साढ़े 19 हो जाए लेकिन 20 तो बस बड़के बच्चन के ही बस की है. 'त्रिशूल' का विजय कुमार हो चाहे 'अग्निपथ' का विजय दीनानाथ चौहान चाहे 'मोहब्बतें' का प्रिंसिपल हो चाहे 'कांटे' का मेजर हो चाहे 'पीकू' का बंगाली बुड्ढा हो चाहे सरकार हों. अमिताभ बच्चन ने कबसे खूंटा गाड़ा हुआ है.

अमिताभ बच्चन ने सरकार को ज़िन्दा किया है. जब वो विष्णु को उसी वक़्त घर से निकल जाने को कहता है तो मालूम चलता है कि वो किस कदर वजनी एक्टर है. जब वो राशिद से कहता है कि उसका काम वो नहीं करेगा और न उसे करने देगा तो मालूम चलता है कि उसकी कही बात अंतिम सत्य थी. और ये सब कुछ सिर्फ अमिताभ बच्चन नाम कर सकता था. और कोई नहीं. सरकार की तीसरी किस्त में अगर कुछ भी देखने लायक है तो वो सिर्फ़ अमिताभ बच्चन हैं. बस. पहली किस्त में अस्पताल से घर आया सुभाष नागरे जब गाड़ी से अपना हाथ निकालकर हिलाता है तो 'भौकाल' शब्द के असल मायने मालूम पड़ते हैं. उस हाथ के शॉट को इस फ़िल्म में भी इस्तेमाल किया गया है. भौकाल बरकरार रखने की भरपूर कोशिश की गई है. लेकिन कहानी और बाकी चीज़ों ने फ़िल्म को नीचे घसीट लिया.
अमित साध
विष्णु का बेटा. सरकार का पोता. विष्णु को शंकर ने मार दिया था. नाम - शिवाजी. बचपन का चीकू.

इंजीनियरिंग की है मैंने. और हमारी जमात में दो तरह के लोग आते हैं. एक वो जो फर्स्ट इयर से कॉलेज में आते हैं. और दूसरे वो जो सेकंड इयर से आते हैं. सेकंड इयर से आने वाले लोग असल में डिप्लोमा-धारी होते हैं. इन लोगों की 'प्योर इंजिनियर्स' अगले तीन सालों में छीछालेदर कर देते हैं. अमित साध को देखकर उसी डिप्लोमा-धारी की याद आ जाती है. जो सीधे सेकंड इयर में आ गया है. अमिताभ बच्चन के सामने अमित को देखना पेट खराब कर देता है. आपका सर घूमने लगता है, आपको उबकाई आने लगती है, आप सोचते हैं कि क्या इस फ़िल्म को कैमरे में डालने के बाद और स्क्रीन पर लाने के बीच किसी ने देखी ही नहीँ क्या? क्यूंकि अगर देखी होती तो शायद अमित साध इस तरह से स्क्रीन पर नहीं दिखते.
न गुस्सा है न बदले की भावना जैसी भावना. बस रटे हुए डायलॉग्स हैं. अंधेरा है. लाउड म्यूज़िक है. और उसके बीच किसी तरह से विष्णु का बेटा, शंकर का भतीजा और सरकार का पोता शिवाजी है.
मनोज बाजपई

गोविन्द देशपांडे. ये आदमी एक्टिंग की खान है. मनोज को खुरचो तो नाखूनों में एक्टिंग चिपकी मिलेगी. सुभाष नागरे के खिलाफ़ ज़हर उगलता छोटा सा नेता है गोविन्द देशपांडे. आप इसे स्क्रीन पर देखते रहना चाहते हैं. सरकार का तमाशा आज तक किसी ने बनाने की हिम्मत नहीं की थी. आज गोविन्द देशपांडे ऐसा ही करता है. वो खुल्ला खेल खेलता दिखता है. सिर्फ अपने बोलने और हाव-भाव से वो सरकार के खेमे में हाय-तौबा मचाता रहता है. आप फ़िल्म में पूरे वक़्त सोचते हैं कि मनोज का रोल बड़ा होना चाहिए था.
रोनित रॉय

डार्क, शांत, मिस्ट्री से भरे कैरेक्टर इस आदमी पर जंचते हैं. गोकुल साटम. सरकार का ख़ास. सरकार का सब कुछ. उड़ान का दरुअल बाप यहां ज़िम्मेदार बन गया है. ज़्यादा कुछ कहा गया तो स्पॉइलर हो जायेगा.
यामी गौतम

कैमरे के इस्तेमाल से यामी गौतम को एक बड़ा कैरेक्टर बनाया गया है. बस ये घूर के शिवाजी को देखती रहती हैं. सवाल पूछा जाए तो जवाब दे देती हैं. कहीं से ये नहीं लगता कि ये सरकार से अपने बाप के खून का बदला लेना चाहती हैं.
जैकी श्रॉफ

ये कैरेक्टर अपने आप में एक बहुत बड़ा मज़ाक है. राम गोपाल वर्मा अंट-शंट भूतिया फ़िल्में बनाते हैं. उसमें कुछ भी हो जाता है. ये कैरेक्टर यकीनन उन्होंने उस भूतिया फ़िल्म के लिए सोचा होगा. ये आदमी कुछ भी कहता है. कुछ भी करता है. रैंडम शब्दों को ऑर्डर समझ लिया जाता है, चमकीले चश्मे को विलेन की निशानी मान पहना दिया गया है. कुछ भी हो रहा है.
फ़िल्म बस सरकार की पहली किस्त के दम पर भुनाए जाने की कोशिश है. वही अंधेरे से भरे शॉट्स. कैमरा कहीं भी लगा दिया जाता है. टांगों के बीच से कोई दिखाया जा रहा होता है तो कोई कहीं से दिखाया जा रहा होता है. बीच में एक मेटल का कुत्ता आ जाता है जिसपर सबसे ज़्यादा फ़ोकस रखा जाता है. ऐसा नहीं है कि ये सब बेकार है. सरकार की आधी जान इसी में बसती है. लेकिन ऐसा लगता है कि इन डिज़ाइनों पर ज़्यादा ध्यान दे दिया गया है और कहानी-वहानी कहीं किसी झउव्वे तले ढांप दी गई है.
बैकग्राउंड में गोविंदा-गोविंदा चलता रहता है जो बताता है कि ये वही वाली सरकार की आगे वाली नस्ल है. ठीक वैसे जैसे रोहन गावस्कर के नाम में गावस्कर होना ही एकमात्र सूचक था कि वो सुनील गावस्कर के बेटे हैं. उनकी बैटिंग में कुछ मसाला नहीं था.
सरकार 3 सबक है. हम सभी के लिए. एक अच्छा काम किया तो उसी की मशाल न जलाए रहो. उसे किनारे रखो. हो सके तो भूल जाओ. कुछ नया ट्राई करो. कोई नई बकवास भूतिया फ़िल्म बनाओ जो लोग कॉमेडी की तरह देखें लेकिन सरकार की तीसरी किस्त मत बनाओ. प्लीज़.
https://www.youtube.com/watch?v=B27zvZRfeSo
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