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डंकीः राजू हीरानी का प्रोवोकेटिव पॉटी ह्यूमर और शाहरुख़ का अभिनय संघर्ष (फ़िल्म रिव्यू)

Shah Rukh Khan ने संभवतः एक समय में Rajkumar Hirani की डेब्यू फ़िल्म "मुन्नाभाई एमबीबीएस" में चाव नहीं दिखाया था. जो लोग समझते हैं कि ये एक missed opportunity थी, उनके लिए Dunki एक मस्ट वॉच है. देखें और जानें कि इन दोनों का साथ आना कैसा रहा. साथ ही पढ़ें हमारा विस्तृत Review.

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Shahrukh khan in Rajkumar Hirani movie Dunki - this is the review of Dunki
"वॉट अ लवली वेदर टुडे" - लाल्टु पंजाब में आइलेट्स की कोचिंग में टीचर (बोमन ईरानी) के हाथों अपमानित किए जाने के बाद जब मन्नू (तापसी पन्नू) उसके रेस्क्यू को आती है और उसकी तारीफ के पुल बांधते हुए टीचर को सुना देती है तो हार्डी (शाहरुख़) तकता ही रह जाता है.
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गजेंद्र
21 दिसंबर 2023 (Published: 24:32 IST)
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 Rating: 2.5 Stars 

"डंकी" के डायरेक्टर और राइटर राजकुमार हीरानी भारत में ऋषिकेश मुखर्जी की धारा के फिल्ममेकर हैं. स्वस्थ, मनोरंजक और अच्छे मैसेज वाली फ़िल्में बनाने वाले. "आनंद" जैसी परमानंद फ़िल्म बनाने वाले ऋषिकेश मुखर्जी ने एक बार कहा था - "एक फ़िल्म को बनाने की वजह होती है - कम्युनिकेट करना. क्या कम्युनिकेट करना? ऐसा कुछ भी जिसका मुझ पर असर हो. अगर मुझे हंसने का मन हो तो मैं ये अपने दर्शकों के साथ बांटना चाहूंगा. इसलिए मैंने गोलमाल और चुपके चुपके जैसी कॉमेडीज़ बनाईं. जब कोई बात मुझे गुस्सा दिलाती है तो मैंने उन क्षणों के लिए सत्यकाम जैसी फ़िल्म बनाई, जो करप्शन के बारे में थी."

उनके अनुगामी हीरानी "डंकी" के साथ क्या कम्युनिकेट करना चाहते थे? उन्हें अप्रवासन (immigration) की कहानी कहनी थी. पंजाब के छोटे से गांव लाल्टू में रहने वाली मन्नू, बुग्गू, बल्ली अपनी ग़रीबी और परेशानियां दूर करने इंग्लैंड जाना चाहते हैं. लेकिन वीज़ा नहीं है. वीज़ा नहीं है क्योंकि इंग्लिश नहीं आती, मिलियन डॉलर लगा सकें इतने बड़े इनवेस्टर नहीं हैं और न ही ब्रिटेन उनका ससुराल है. ऐसे में उनकी मदद करता है एक अजनबी हार्डी, जो सैनिक रह चुका है. वो "डंकी" रूट से उन्हें लंडन ले जाने की यात्रा पर निकलता है. राजू ये कहानी कहने निकलते हैं. कुछ चीजें सफल होती हैं, कुछ नहीं.  

वैसे इस फ़िल्म का उपयुक्त नाम "डंकी" नहीं है, इसे "4 इडियट्स" कहना चाहिए था. क्यों? क्योंकि ये उसी थीम की लगती है और बहुत जगहों पर "3 ईडियट्स" की स्टोरीलाइन्स/फॉर्मूला इस्तेमाल करती है. जैसे - 
1. दोनों में एक-एक सुसाइड है. 
2. दुस्साहसी बॉडी ह्यूमर है. 
3. अमरदीप झा और बोमन ईरानी जैसे एक्टर कॉमन हैं. 
4. एक लाश के अराउंड कॉमेडी सीन है - याद करें "3 ईडियट्स" का अस्थि कलश वाला लौटा, जब नौकर कहता है - साबजी आप गल्त लोटा ले आए, बड़े साब तो इसमें हैं.
5. रैंचो और उसके दोस्तों जैसी स्टोरीलाइन "डंकी" में भी है. दोनों कहानियों में दोस्त उनकी एंट्री से पहले उनके संतवृत्त, मिथिकीय चरित्र की आभा बनाते हैं - रैंचो और हार्डी जो अपने दोस्तों की हेल्प करने के लिए सारी हदें पार कर जाते हैं वो भी निस्वार्थ. 
6. दोनों की मैसेजिंग भी समतुल्य है - रैंचो कहता है कि इंसान की काबिलियत देखो उसकी रैंक नहीं, हार्डी कहता है इंसान की नीयत-ज़रूरत देखो उसके वीज़ा-पासपोर्ट और रूल नहीं.  

अब थोड़ा सिलसिलेवार, फ़िल्म में प्रवेश करते हैं. उन क्षणों पर रुकते-ठहरते हैं जो वर्क करते हैं या नहीं करते हैं.

फ़िल्म शुरू होने के बाद काफी वक्त तक हंसी नहीं आती. हाथ में ग्लूकोज़ की बोतल थामे लंडन की मेट्रो में ट्रैवल करती मन्नू (तापसी पन्नू) और तिरछी आंखों से उसे देखते ब्रिटिश लोगों वाला दृश्य शायद फ़िल्म में थोड़ी प्रतिक्रिया जगा लेता है. 50-55 साल की मन्नू के चेहरे की अत्यधिक सलवटें 65-70 वय वाली लगती है. मेकअप आंखों में बाल की तरह चुभता है. विशेषकर तब जब "द व्हेल" और "गोल्डा" जैसी मेकअप और हेयरस्टायलिंग में उत्कृष्ट उपलब्धियों भरी हालिया फ़िल्मों ने एक मानक स्थित किया है.  

फिर एक ट्रेन सीन आता है. शाहरुख़ ख़ान की दूसरी बार पहली एंट्री होती है. वही फौजी लुक, वही चेहरा, वही बाल, वही यौवन, वही रेलगाड़ी, वही पंजाब, वही शाहरुख़. लगता है ये क्षण कितनी ही बार पहले देखा है - "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे", "वीर ज़ारा", "जब तक है जान". "डंकी" में उनके कैरेक्टर का नाम है हार्डी. "जब हैरी मेट सेजल" के हैरी के जुड़वा भाई जैसा. यह सीन शायद इस फ़िल्म के सबसे हास्योत्पाद क्षणों में से है, शायद मोस्ट फनी. वो ट्रेन से उतरता है. उसके हाथ से मिठाई के डिब्बे, रसगुल्लों के छोटे कैन गिर जाते हैं, हालांकि गिरते हैं तो खाली प्रॉप्स ही प्रतीत होते हैं. ख़ैर, ये फ़िल्म है और इसमें कुछ चीजें हमे इग्नोर करके आगे बढ़ना होता है, तो हम आगे बढ़ते हैं. जिस सरदार (गुरप्रीत घुग्गी. घुग्गी है तो उड़ के दिखा वाले एक्टर.) से टकराकर हार्डी की मिठाइयां गिर जाती है, वह उससे बातों में उलझ जाता है. तभी कुछ यूनीक होता है. पास की स्कूल में छोटे बच्चों की प्रेयर जैसी कुछ चलने लगती है. "जन गण मन अधिनायक जय, हे भारत भाग्य विधाता..." बजने लगता है. और एक पूर्व सैनिक हार्डी सावधान की मुद्रा में खड़ा हो जाता है, वह सरदार भी. दोनों बुदबुदाते हुए राष्ट्रगीत गाने लगते हैं. तभी ट्रेन के अंदर कोई दुष्ट यात्री कुछ कल्पनातीत करता है. वह उतरता है, कुछ सोचता है और मिठाई के डिब्बे उठाने लगता है. लगता है कि भला इंसान है, मदद कर रहा है. लेकिन वह मिठाइयां चुरा रहा है. हार्डी और उस सरदार के होश फाख़्ता हो जाते हैं. वो सरदार "जन गण मन" गाते हुए नज़रों ही नज़रों में हार्डी को सॉरी बोलता है, कि भई मेरी ही वजह से सब हो रहा है. यहां हमारे गुड बैक्टीरिया और गुड कॉलेस्ट्रॉल माफिक गुड ह्यूमर के तंतु अपने चरम पर होते हैं. आनंद आ जाता है.

"3 ईडियट्स" में खुजली वाली रोटी का जोक हो या चमत्कार-बलात्कार वाला मोनोलॉग, राजू हीरानी कभी उत्तेजित (provocation) करने से परहेज नहीं करते लेकिन "डंकी" में शायद सबसे ज्यादा पॉटी-सूसू-गोबर जोक्स हैं. स्पोकन इंग्लिश सीख रहा एक लड़का पेशाब करने नहीं जा पाता तो पानी पीने की बॉटल में, क्लास में ही कर लेता है, फिर हंसते हुए गाना गाता है - I don't want to go to lavatory. एक टेस्ट में भोले मानुस बुग्गू (विक्रम कोचर) को पूछा जाता है किडनी किधर है तो वो अपने जननांग पकड़ लेता है, और सबकी हंसी छूट जाती है. गांभीर्य इस पर कुढ़े उससे पहले ही विक्रम और डायरेक्टर सीन संभाल लेते हैं और फिनिशिंग ठीक हो जाती है.

बुग्गू की अधेड़ मां की टाइट पेंट को लेकर एक जोक है, जब ये जोक आता है तो पहली बार फ़िल्म लुभाने लगती है. एक वाइल्ड-वाइल्ड राजू हीरानी मार्का जोक, जो कोई सोच नहीं सकता. थोड़ा दुस्साहसी सा. और ये जोक फ़िल्म के अंत में एक बार फिर आता है, उस क्षण में लगता है कि सिनेमा वाकई में मैजिक की चीज है. क्योंकि वो असर करता है.

"डंकी" मारने, यानी इमिग्रेंट्स की मसले के अलावा फ़िल्म में सबसे इंगेजिंग ट्रैक - इंग्लिश लर्निंग वाला होना था. इस ट्रैक का आकार भी बड़ा है. फर्स्ट हाफ में वही सबसे प्रॉमिसिंग चीज है सिवा कैरेक्टर इंट्रो और किरदारों की शुरुआती दोस्ती के. और फ़िल्म के ख़िलाफ ये बात जाती है कि इंग्लिश सीखते हुए पैदा होने वाली कॉमेडी सबसे कम कारगर होती है. जैसे - "3 ईडियट्स" में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते हुए कितने सारे जोक वर्क करते हैं. थोड़े प्रकाश मेहरा की "नमक हलाल" (1982) माफिक सीन हैं, जिसमें अर्जुन सिंह (अमिताभ बच्चन) का पात्र कहता है - "आई कैन टाक इंगलिस, आई कैन वाक इंगलिस, बिकाज इंगलिस इज अ वैरी फन्नी लैंगवेज." लेकिन "डंकी" के ये पात्र अर्जुन सिंह से 40 साल बाद के दौर में हैं. ये स्टाइल वर्क नहीं करता. हाल के दौर में ग़लत इंग्लिश बोलकर हंसाने वाले जो दो सीन सर्वाधिक कारगर रहे हैं वो थे - "फंस गए रे ओबामा" का इंग्लिश क्लास वाला सीन जिसमें खुद इंग्लिश न जानने वाला टीचर डांटकर कहता है - You... English speaking is like rice plate eating? दूसरा, "तनु वेड्स मन्नू रिटर्न्स" में "यू आर ए गुड कोश्चन, बट योर कोश्चन हर्ट मी" वाला सीन. "डंकी" इस दिशा में नहीं जाती.

नेक इरादे और सब श्रेष्ठ नियम फॉलो करने के बाद भी "डंकी" आपको दीवाना क्यों नहीं बना पाती है? दर्शक पूरी कहानी के साथ चिपका रहे इसकी अनिवार्य शर्त यह थी कि शाहरुख के पात्र की पसंदगी शुरू में स्थित ज़रूर हो जाए. अंततः ये फ़िल्म अपने केंद्रीय पात्र पर ही खड़ी है. वह शर्त पूरी नहीं हो पाती क्योंकि राजू, अभिजात जोशी, कनिका ढिल्लों के डायलॉग्स और स्क्रीनप्ले इस कथावस्तु में मैजिक नहीं रच पाते और उसमें दर्शक को बांध नहीं पाते. राइटिंग कहीं ओल्ड स्कूल भी है. कनेक्ट नहीं करती. फिल्म के लॉजिक कनेक्ट नहीं करते. जैसे "3 ईडियट्स" का लॉजिक कनेक्ट करता है कि "काबिलियत पैदा करो कामयाबी झक मारकर पीछे आएगी", या फिर "आल इज़ वेल". वे कार्य करते हैं. "डंकी" में ऐसा कोई संवाद नहीं जो सिर चढ़ता हो. न कोई गीत ऐसा है. इसलिए आप उसे घर लेकर नहीं आ पाते हो.

दूसरी कमज़ोरी रहती है शाहरुख़ का हार्डी के किरदार को कुछ नया स्वरूप न दे पाना. कुछ नवोन्मेषी करना तो दूर है, वे बेसिक्स का भी पालन नहीं कर पाते. उनकी पंजाबी निरंतर एक जैसी और प्रॉपर नहीं है कि उनके ओरिजन्स पंजाबी लगें. दूसरा, यह बात वे अपने कंसिस्टेंट उच्चारण से सिद्ध नहीं कर पाते कि उनके पात्र को इंग्लिश नहीं आती. यह उस प्रकार का ब्रीफ और बिंदु है जहां कई प्रमुख एक्टर फंसते हैं. चूंकि वे असल ज़िंदगी में इंग्लिश बहुत ही अच्छी बोलते हैं तो वो उनकी मसल मैमोरी बन चुकी होती है. फिर जब उनका पात्र देहाती होता है जिसे इंग्लिश नहीं आती है तो अपनी उस मसल मैमोरी को गच्चा देकर नए ढंग से टूटी-फूटी इंग्लिश बोलना बहुत कलाकारी का काम होता है. यहां शाहरुख अपनी इंग्लिश को अनलर्न नहीं कर पाते. अनुभूत नहीं कर पाते कि कोई अंग्रेजी में हाथ तंग व्यक्ति भला कैसे बोलेगा - वो भी प्रतिदिन कैसे और 25 वर्ष बाद कैसे.

हीरानी की फ़िल्मों में एक्टिंग मैथड सरीखी हो या अति-वास्तविक हो, ऐसा कोई आग्रह नहीं रहता है. लेकिन वो अच्छी प्रतिक्रियात्मक एक्टिंग ज़रूर होती है. अगर उतना भी नहीं होता तो सब ख़राब होता है. लीड कैरेक्टर्स में तापसी की एक्टिंग भी डांवाडोल होती है. इंटरवल से पहले एक व्यक्ति सुसाइड करता है, ख़ुद को आग के हवाले कर देता है, कुल जमा तीन चार लोग ही वहां होते हैं जो साक्षी होते हैं. एक हार्डी होता है जो जाकर उसे बचाने की कोशिश करता है. वहां शाहरुख़ अपनी इंटेंसिटी से प्रभावित करते हैं, रियल लगते हैं. जरा सी दूर मन्नू यानी तापसी होती हैं, वे बहुत अपर्याप्त प्रतिक्रिया देती हैं. सीन की गहराई जितनी भारी है, उस तुलना में उनकी प्रतिक्रिया या इमोशन नहीं होता. ऐसा ही अगले सीन में होता है जहां उसी पात्र की चिता जल रही होती है और हार्डी कहता है - "हम डंकी मारेंगे यानी डंकी के रास्ते जाएंगे. और वो मन्नू और बुग्गू को गले लगा लेता है. वहां तापसी अनभिज्ञ होती हैं उन्हें नहीं पता होता कि क्या करना है. विकी कौशल कुछ दृश्यों में ठीक हैं लेकिन वे कुल मिलाकर लाउड एक्टिंग करते हैं. बोमन ईरानी "3 ईडियट्स" के वीरू सहस्त्रबुद्धि जैसे आविष्कारशील तो बिल्कुल नहीं हैं, और अन्यथा भी अपना जादू नहीं रच पाते.

विक्रम कोचर इस फ़िल्म की हाइलाइट हैं. बुग्गू के रोल में वे हर सीन में इफेक्टिव सिद्ध होते हैं. ख़राब लिखे सीन में और फीके सह-अभिनेताओं के साथ भी विक्रम असर छोड़ते हैं. कई सीन हैं. दादी का मरने वाला सीन. किडनी कहां है बताओ - वाला सीन. जब "डंकी" मारने जा रहे होते हैं और गाइड बताता है कि पाकिस्तान से होते हुए अफगानिस्तान, फिर वहां से ईरान जाएंगे तो उनका भोला पात्र बुग्गू कहता है - "पाजी, चीन होकर भी जाएंगे क्या, बड़ा मन है घूमने का". और हंसी फूट पड़ती है. लंडन पहुंचते ही अपने दोस्त को कहता है - "ओए बबली भीख मांग के घर खरीद लिया तूने और हंसी छूट पड़ती है". ऐसे कम से कम पांच-छह सीन और होंगे.

उनके बाद बल्ली के रोल में अनिल ग्रोवर अच्छे हैं. एक सीन होता है जहां ट्रैवल एजेंट पैसे ले लेता है कि एक गोरी लड़की है उससे शादी करवा दूंगा और इंग्लैंड का वीज़ा मिल जाएगा. वो दूल्हा बनकर पहुंचता है और वहां शादी कार्यालय में कई दूल्हे खड़े होते हैं उसी लड़की की फोटो लिए. और बल्ली - "ओए कांड हो गया ओए" - कहता हुआ ज्यों भागता है वो हास्यास्पद होता है. महीन काम.

हर फिल्म या पीस ऑफ आर्ट, उसके रचयिता की उस समय की स्टेट ऑफ माइंड को दर्शाता है. इस समय हीरानी अपनी सिनेमाई जर्नी में कहां, क्या महसूस कर रहे हैं, वो इस फिल्म की सख्त तहों में खोजा जा सकता है. एक सीन होता है जहां दादी मर चुकी है. उसकी अर्थी यात्रा के बीच से बुग्गू और दूसरे पात्र कहीं भाग जाते हैं, अर्थी का एक पैर किसी भोले राहगीर को पकड़ाकर ("मुन्नाभाई एमबीबीएस" का स्वामी (खुर्शीद लॉयर) जो मुन्ना का रूममेट होता है और कहता रहता है - Excuse me, what is the procedure to change the room please?). ऐसे सीन इंडिकेट करते है कि ये एक कैरिकेचरिश, कार्टूनिश, कॉमिक स्पेस वाली कहानी है और पात्रों की बातों को गंभीरता से न लिया जाए, सिर्फ उनकी कॉमेडी को ही गंभीरता से लें. वहां हम अपने लॉजिक लगाने वाले चित्त को नीचे रख देते हैं. लेकिन फिर विकी कौशल वाला हार्ड ट्रैक आता है, दहेज के मसले पर गंभीर करने वाले डायलॉग आते हैं, अंत में इमिग्रेंट्स को लेकर लंबी चौड़ी प्रीचिंग आती है, वहां हमें अपना भेजा वापस सही सॉकेट में रखना पड़ता है ताकि उसे गंभीरता से लें. लेकिन कुछ एक्शन सीन, ढिशुम ढिशुम, गोलीबारी ये सब हीरानी वाले कॉमिक-लाइट-हार्टेड स्पेस से बाहर के तत्व हैं जो राजू हीरानी के सिनेमा में संभवतः पहली बार आए लगते हैं.

इंटरवल से पहले फ़िल्म में एक डेथ होती है, सेकेंड हाफ के अंत में दूसरी डेथ होती है. न जाने ऐसा आग्रह क्यों रहा? क्योंकि अंत में जो डेथ होती है वह सीन तो ऑर्गेनिकली प्ले भी नहीं हो पाता. एक पल में कोई इंसान पूरे बॉडी मूवमेंट्स, ह्यूमर, एनर्जी, खुशी के साथ बात कर रहा है और दूसरा पात्र पीठ करके कुछ बोल रहा है, वो मुड़ता है कि पीछे बैठा पात्र मर चुका होता है. जबकि उस पात्र को कोई हार्ट जैसी बीमारी नहीं होती, उसे ब्रेन ट्यूमर होता है. यूं झटके से उसका चले जाना शॉक वैल्यू ज़रूर क्रिएट करता है लेकिन कहानी में तर्कशीलता से भरोसा घटाता है. आप इससे मुतमइन नहीं होते.

"रेफ्यूजी" फ़िल्म में एक सुंदर गीत होता है - "पंछी नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके". कुछ इसी प्रकार का दर्शन "डंकी" का है यूरोप के हाल के वर्षों के शरणार्थी संकट और आम प्रवासियों को लेकर. फ़िल्म भावुक तर्क देती है कि जिसे भी ज़रूरत है उन सबको वीज़ा दे दो. जब एक इंग्लिश जज कहता है कि सबको वीज़ा देंगे तो स्थानीय लोग ऐतराज करेंगे, उनका रोजगार खतरे में होगा. इस पर हार्डी कहता है - "रूस से हज़ारों पंछी आते हैं हमारे पंजाब में, लेकिन हमारे स्थानीय पंछी तो कभी नहीं कहते कि उन्हें नुकसान हो जाएगा. वो समझते हैं कि रूस में जानलेवा बर्फ जम गई है तो इन पंछियों की पंजाब में सुरक्षा रहेगी. ये बात इंसान क्यों नहीं समझता". एक आदर्श परिकल्पना है, लेकिन बेजां प्रैक्टिकल दर्शक क्या इतना सॉफ्ट और सेंटी रह गया है कि वो ये स्वीकार ले. एंड क्रेडिट्स में शरणार्थी संकट की असल तस्वीरें दिखती हैं, कि "डंकी" रूट से लोग कैसे जान हथेली पर लेकर आते हैं. लेकिन चूंकि फ़िल्म अपनी कथावस्तु, संवादों, एक्टिंग परफॉर्मेंसेज़, मनोरंजन से हमें दीवाना नहीं कर गई होती है इसलिए वह अंत में शरणार्थियों की इन विचलित करने वाली तस्वीरों की उस वेदना से हमें जोड़ नहीं पाती.  

हिंदी सिनेमा में अभी उथल पुथल का दौर है, यह एक वॉरलाइक कालखंड है. "डंकी" उस संदर्भ में एक पीसटाइम की फ़िल्म है. वो कालखंड - जब ज्यादा संवेदना होती है, मनोरंजन का नमक कम चाहिए होता है, पैरासिटामोल की कम डोज़ से भी बुख़ार उतरा करता है.

ये बात यहीं तक.

अस्तु!

Film: Dunki । Director: Rajkumar Hirani । Cast: Shah Rukh Khan, Taapsee Pannu, Vikram Kochchar, Anil Grover, Vicky Kaushal, Boman Irani, Deven Bhojani, Arun Bali, Amardeep Jha and others । Run Time: 2h 40m

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