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मूवी रिव्यू - छतरीवाली

ऐसी ही थीम पर पिछले साल भी एक फिल्म आई थी, 'जनहित में जारी'. जानिए दोनों में क्या फर्क है?

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'छत्रीवाली' मेनस्ट्रीम में बनने वाली सोशल मैसेजिंग फिल्मों से अलग नहीं खड़ी हो पाती.
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यमन
20 जनवरी 2023 (Updated: 20 जनवरी 2023, 11:42 AM IST)
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Sex. Sex…. Sex.

Now that we have your attention. ऐसे पोस्ट इंस्टाग्राम या फेसबुक पर देखे होंगे. सेक्स ऐसा टॉपिक है जिस पर नज़र हम सब डालते हैं, बस दूसरों से नज़र बचाकर. स्कूली किताब से बाहर हर जगह उसके बारे में जानने, खंगालने की कोशिश करते हैं. इसी बात को हाइलाइट करते हुए एक फिल्म आई है, ज़ी 5 पर. फिल्म का नाम है ‘छतरीवाली’. रकुल प्रीत सिंह, सुमित व्यास, राजेश तैलंग, डॉली आहलूवालिया और सतीश कौशिक जैसे एक्टर्स ने इस फिल्म में काम किया है. 

कहानी घटती है हरियाणा के करनाल शहर में. उस दौर में जहां केमिस्ट से कंडोम खरीदने से पहले हर किस्म का टूथपेस्ट, पाउडर मांग लेते हैं. जहां बायोलॉजी का रीप्रोडक्शन चैप्टर पढ़ाने से पहले टीचर लड़के और लड़कियों को अलग-अलग सेक्शन में भेज देते हैं. डायजेस्टिव सिस्टम पढ़ाते हैं, क्योंकि उससे एग्ज़ाम में 10 नंबर का सवाल आएगा. लेकिन डायजेस्टिव सिस्टम से नीचे आने वाला रीप्रोडक्टिव सिस्टम ज़रूरी नहीं समझते, क्योंकि उससे तो सिर्फ दो नंबर का ही सवाल आएगा. जब मैंने 2012 में दसवीं पास की थी, ये बातें उस दौर की लगती हैं. लेकिन बात ऐसी नहीं. ये आज ही की कहानी है. ‘छतरीवाली’ की कहानी पुरानी नहीं, क्योंकि आप सुमित व्यास के किरदार को अपनी दुकान में जाते हुए देखते हैं. दुकान में घुसने से पहले हाथ सैनिटाइज़ करता है. उसी दुकान के दरवाज़े पर QR कोड चिपका हुए देखते हैं. 

rakul preet singh
रकुल ने एक केमिस्ट्री ग्रैजूएट का किरदार निभाया.  

कहानी आज की है, बस हमारे मसले वही थके हुए हैं. रकुल के कैरेक्टर सान्या ने केमिस्ट्री से अपनी पढ़ाई पूरी की, मगर नौकरी नहीं मिल रही. एक कंडोम बनाने वाली कंपनी के मालिक से रास्ता टकराता है. मन मारकर ही सही, लेकिन सान्या उनकी कंपनी में काम करना शुरू कर देती है. सान्या कंडोम की क्वालिटी की जांच करती है. काम करने में शर्म आती है, लेकिन पैसा अच्छा है तो कोई दिक्कत नहीं. जिस नौकरी से उसे खुद शर्म आती है, उसका बम जब बाहर फटेगा तो क्या होगा. साथ ही वो अपनी नौकरी की अहमियत समझ पाती है या नहीं, ये फिल्म का मेन प्लॉट है. 

2022 में ज़ी5 पर एक फिल्म आई थी, ‘जनहित में जारी’. फिल्म में नुसरत भरूचा का किरदार कंडोम सेल्सपर्सन होता है. कंडोम बेचने का काम करती है. उसके इर्द-गिर्द बनी शर्म को खत्म करने का काम करती है. जागरूकता जगाने की कोशिश करती है. ऐसी कहानियों का एक टेम्पलेट सा बन गया है. एक किरदार के हिस्से ज़िम्मेदारी आती है. उसे अपनाने के लिए वो खुद तैयार नहीं. फिर किसी घटना से उसका रास्ता अपनी ज़िम्मेदारी की तरफ मुड़ता है. फिर विपरीत विचारधारा को दर्शाता इंसान उसके सामने आता है. उसे समझाने की कोशिश करता है, और यूं अचानक से सब ठीक हो जाता है. कहानी समाप्त. एक पॉइंट बताना रह गया, कि ऐसी फिल्मों का फर्स्ट हाफ ह्यूमर से हेवी रहता है. सेकंड हाफ में सब सीरियस. ‘जनहित में जारी’ और ‘छतरीवाली’ दोनों फिल्में इसी टेम्पलेट पर चलती हैं. 

rakul preet
फिल्म सेंसिबल है लेकिन अपने क्लाइमैक्स को संभाल नहीं पाती. 

फिर भी दोनों में एक मूल फर्क है. ‘जनहित में जारी’ को देखकर लगता है कि सोशल मैसेजिंग के नाम पर माहौल भुनाने की कोशिश की गई है. जबकि ‘छतरीवाली’ थोपी हुई कहानी नहीं लगती. मेल गेज़ या कहें तो पुरुषों की नज़र को फिल्म में अहम जगह दी गई है. हमारे मोहल्ले, हमारे घर और उसके अंदर छिपा बिस्तर, सबके नियम पुरुषों के हिसाब से बने हैं. ऐसे में कोई अहं को चोट करे तो तकलीफ देता है. जैसे सान्या पुरुषों से भरी कंडोम फैक्ट्री में काम करने लगती है, तो कुछ पुरुषों की हंसी के निशाने पर रहती है, तो कुछ के लिए जलन का कारण बनती है. सान्या को सिर्फ कंडोम की जागरूकता लोगों तक नहीं पहुंचानी. बल्कि उस मानसिकता पर हमला करना है जो महिलाओं को एक सीमित क्षेत्र में खेलने देती है, उनके शरीर पर अपना अधिकार समझती है, और गर्व से कहती है कि देखो हम महिला-पुरुष में भेदभाव नहीं करते. यही संकुचित सोच निर्धारित करती है कि किन विषयों पर हम खुलकर बात कर सकते हैं और किन पर नहीं. 

‘छतरीवाली’ की एक अच्छी बात ये है कि ये किसी को अच्छे या बुरे के रंग में नहीं रंगती. सब बस लोग हैं, कुछ सही कर रहे हैं तो कुछ गलत. और गलत करने वाले हमेशा गलत लोग नहीं. सही शिक्षा के नाम पर उन्हें बस ये गलती पढ़ाई जा रही है. फिल्म इन सब पहलुओं को छूती है. बस मसला ये है कि यही चीज़ उसका नेगेटिव पॉइंट बन जाता है. एक घंटे 50 मिनट के रनटाइम में आप इतना कुछ कवर करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में लगता है कि सब कुछ भाग रहा है. झट से किसी किरदार को एहसास हो जाता है कि अब उसे ये ज़िम्मेदारी निभानी है. फिर तुरंत से दूसरे को समझ आ जाता है कि वो अब तक गलत था. कुल मिलाकर जिन दिशाओं में कहानी बढ़ती है, उसे अंत में ठीक से समेट नहीं पाती. 

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सतीश कौशिक फिल्म में कॉमेडिक रीलीफ देने का काम करते हैं. 

एक्टिंग के स्तर पर यहां सही काम हुआ. फिर चाहे वो रकुल हों, सुमित व्यास या राजेश तैलंग, सब अपने कैरेक्टर के दायरे में रहते हैं. लेकिन इनके हिस्से ऐसा कोई सीन नहीं आता जो आपके ज़ेहन में बस जाए. ‘छतरीवाली’ सेंसिबल फिल्म है. एक हद तक अपनी कहानी में आपको इंवेस्टेड रखने की कोशिश भी करती है. लेकिन सब कुछ जल्दी में समेटना ही फिल्म को भारी पड़ता है.     

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