8 मार्च 2021 (Updated: 28 जून 2021, 08:44 AM IST) कॉमेंट्स
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दुनियाभर में 8 मार्च को महिला दिवस मनाया जा रहा है. इस मौके पर स्त्री विमर्श और स्त्री सत्ता की संरचना को समझने के लिए हमने आपके लिए कुछ उपन्यासों को चुना है. अगर आपने इन उपन्यासों को नहीं पढ़ा है तो इस साल पढ़ लीजिए.
#1 मित्रो मरजानी | कृष्णा सोबती
‘मित्रो मरजानी’! हिन्दी का एक ऐसा उपन्यास है जो अपने अनूठे कथा-शिल्प के कारण चर्चा में आया. इस उपन्यास को जीवन्त बनाने में ‘मित्रो’ के मुंहजोर और सहजोर चरित्र ने विशिष्ट भूमिका निभाई है. ‘मित्रो मरजानी’ की केन्द्रीय पात्र ‘मित्रो’ अभूतपूर्व है. इसलिए भी कि वह बहुत सहज है. मित्रो की वास्तविकता को कृष्णा सोबती ने इतनी सम्मोहक शैली में चित्रित किया है, जिसकी मिसाल हिन्दी उपन्यासों में अन्यत्र देखने को नहीं मिलती और वास्तविकता पूरे उपन्यास में एक ऐसा तिलस्म रचती है जिससे यह अहसास जगता है कि मित्रो कोई असामान्य, मनोविश्लेषणात्मक पात्र नहीं है. हां यह सच है कि हिन्दी उपन्यासों में इससे पहले ‘मित्रो’ जैसा चरित्र नहीं रचा गया. जबकि हिन्दी समाज में मित्रो जैसा चरित्र अतीत में भी था और आज भी है. यह तो कृष्णा सोबती की क़लम और उनकी संवेदनशीलता का कमाल है कि ‘मित्रो मरजानी’ में ‘मित्रो’ के रूप में समाज की इस स्त्री को दमदार दस्तक देने का अवसर मिला.
#2 पीली आंधी | प्रभा खेतान
प्रभा खेतान ने अपने विशिष्ट लेखकीय साह के साथ स्त्री की सिर्फ बाहरी नहीं, उसकी निहायत निजी, आन्तरिक और गोपनीय परतों को भी अपनी रचनाओं में खोला है. उनके यहां पुरानी औरत खुद अपने हाथों से अपना सिर काटने वाली और फीनिक्स की तरह पुन:-पुन: अपनी ही आग से एक नए रूप में जन्म लेने वाली औरत होती है. पीली आंधी में तीन-तीन पीढ़ियों की औरतें हैं, जो कोई सौ-डेढ़ सौ साल की यात्रा करते हुए, अपनी-अपनी बात कहते हुए हमारे आज तक की हैं. शिक्षा, निरन्तर परिवर्तनशील परिवेश के दबाव और बंगाल की सामाजिक जागरूकता के बीच प्रभा खेतान अपने जीवन का चुनाव स्वयं अपनी तरह से करना चाहती है. इसके लिए वह स्वयं अपने आर्थिक स्रोतों की खोज करती है और इस प्रक्रिया में भयावह मानसिक-भावनात्मक रूपान्तरणों से दो-चार होती है. नई-नई चुनौतियों की रचना करने और उन्हें साहसपूर्वक झेलनेवाली इसी औरत की अक्कासी इस उपन्यास में है.
#3 तिरोहित | गीतांजलि श्री
जो कुछ मारके का है, जीवन को बदल देने वाला है, उपन्यास के फ्रेम के बाहर होता है. ललना और भतीजा के परस्पर टकराते स्मृति प्रवाह के सहारे उद्घाटित होते हैं. तिरोहित के पात्र उनकी मनोगत इच्छाएं, वासनाएं व जीवन से किए गए किन्तु रीते रह गए उनके दावे. अन्दर-बाहर की अदला-बदली को चरितार्थ करती यहां तिरती रहती है एक रहस्यमयी छत. मुहल्ले के तमाम घरों को जोड़ती यह विशाल खुली सार्वजनिक जगह बार-बार भर जाती है चच्चो और ललना के अन्तर्मन के घेरों से. इसी से बनता है कथानक का रूप. जो हमें दिखाता है चच्चो/बहनजी और ललना की इच्छाओं और उनके जीवन की परिस्थितियों के बीच की न पट सकने वाली दूरी. वैसी ही दूरी रहती है इन स्त्रियों के स्वयं भोगे यथार्थ और समाज द्वारा देखी गई उनकी असलियत में.
#4 ऐ लड़की | कृष्णा सोबती
तो मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बूढ़ी स्त्री है. अपनी समूची ज़िंदगी के आर-पार, मरने के पहले अपनी अचूक जिजीविषा से अपने जीवन के पलों को याद करती है. उसमें घटनाएं, बिंब, तस्वीरें और यादें अपने सारे ताप के साथ पुनरवतरित होते चलते हैं - नज़दीक आती मृत्यु का उसमें कोई भय नहीं है, बल्कि मानो फिर से घिरती-घुमड़ती सारी ज़िंदगी एक निर्भय न्योता है कि वह आए, उसके लिए पूरी तैयारी है. पर यह तैयारी अपने मोह और स्मृतियों, अपनी ज़िद और अनुभवों का पल्ला झाड़कर किसी वैरागी सादगी में नहीं है, बल्कि पिछले किये-धरे को एकबारगी अपने साथ लेकर मोह के बीचोबीच धंसते हुए प्रतीक्षा है - एक भयातुर समय में, जिसमें हम जीवन और मृत्यु, दोनों से लगातार डरते रहते हैं, उसमें सहज स्वीकार, उसकी विडंबना और उसकी ट्रैजीकॉमिक अवस्थिति का पूरा और तीखा अवसाद है. यह कथा अपनी स्मृति में पूरी तरह डूबी स्त्री का जगत को छोड़ते हुए अपनी बेटी को दिया निर्मोह का उपहार है.
#5 कृष्णकली | शिवानी
जब पाठक किसी पात्र से एकत्व स्थापित कर लेता है; जब उसका अपमान उसकी वेदना बन जाता है, तब ही लेखनी की सार्थकता को हम मान्यता दे पाते हैं. लेखिका शिवानी बताती हैं कि जब वे ‘कृष्णकली’ लिख रही थीं तब लेखनी को विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा. सब कुछ स्वयं ही सहज बनता चला गया था. जहां कलम हाथ में लेती, उस विस्तृत मोहक व्यक्तित्व को, स्मृति बड़े अधिकारपूर्ण लाड़-दुलार से खींच, सम्मुख लाकर खड़ा कर देती, जिसके विचित्र जीवन के रॉ-मटेरियल से मैंने वह भव्य प्रतिमा गढ़ी थी. ओरछा की मुनीरजान के ही ठसकेदार व्यक्तित्व को सामान्य उलट-पुलटकर मैंने पन्ना की काया गढ़ी थी. जब लिख रही थी तो बार-बार उनके मांसल मधुर कंठ की गूंज कानों में गूंज उठती. वही विस्तृत मधुर गूंज, उनके नवीन व्यक्तित्व के साथ, ‘कृष्णकली’ में उतर आई.
#6 पचपन खम्भे लाल दीवारें | उषा प्रियम्वदा
पचपन खम्भे लाल दीवारें उषा प्रियम्वदा का पहला उपन्यास है, जिसमें एक भारतीय नारी की सामाजिक-आर्थिक विवशताओं से जन्मी मानसिक यंत्राणा का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है. छात्रावास के पचपन खम्भे और लाल दीवारें उन परिस्थितियों के प्रतीक हैं जिनमें रहकर सुषमा को ऊब तथा घुटन का तीखा एहसास होता है, लेकिन फिर भी वह उनसे मुक्त नहीं हो पाती, शायद होना नहीं चाहती. उन परिस्थितियों के बीच जीना ही उसकी नियति है. आधुनिक जीवन की यह एक बड़ी विडंबना है कि जो हम नहीं चाहते, वही करने को विवश हैं. लेखिका ने इस स्थिति को बड़े ही कलात्मक ढंग से अपने उपन्यास में चित्रित किया है.
#7 उसके हिस्से की धूप | मृदुल गर्ग
परम्परागत भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के बीच मानवीय स्वतंत्रता, खास कर नारी-स्वातंत्र्य का सवाल सदा ही अनदेखा किया जाता रहा है.और मृदुला गर्ग का यह उपन्यास परम्परागत ही नहीं, बल्कि आधुनिकता के घिसे-पिटे वैचारिक चौखटे से भी बाहर निकलकर यह सवाल उठाता है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का आधार क्या है- प्रेम अथवा स्वतंत्रता? देखा जाए तो मृदुला गर्ग का यह बहुचर्चित उपन्यास एक त्रिकोणात्मक प्रेम-कथा है, लेकिन प्रेम इसकी समस्या नहीं है- समस्या है स्वतंत्रता, जो स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से मूल्यवान है. प्रेम अगर व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके वैयक्तिक विकास को बाधित करता है तो वह अस्वस्थ है.
#8 एक कस्बे के नोट्स | नीलेश रघुवंशी
नीलेश रघुवंशी की एक उपलब्धि यह है कि उन्होंने एक ऐसे कथानक को, जिसमें भावनिकता के भयावह अवसर थे, एक निर्मम ढंग से यथार्थवादी रखा है जिसमें हास-परिहास के लिए भी गुंजाइश है. परिवार में मां है, लेकिन वह हमेशा ममतामयी और पतिपरायणा नहीं है, उसमें छिपी विद्रोहिणी कभी-भी जागृत हो सकती है. इकलौता बेटा मुंहफट और दुर्विनीत है. अलग-अलग उम्रों, स्वभावों और नियतियों वाली बेटियां हैं, लेकिन उनमें एक बराबरी का बहनापा है. उनके अपने-अपने कुंवारे और ब्याहता सपने हैं. उनकी जिद्दोजहद, छोटी-बड़ी दुखान्तिकाएं और जीवन-परिवर्तक उपलब्धियां भी हैं. क्या भारत सरीखे जटिल समाज में ‘फेमिनिस्ट’ सरीखे सीमित और भ्रामक शब्द की जगह ‘एक कस्बे के नोट्स’ को हम ‘मातृवादी’ या ‘बेटीवादी’ या ‘बहनापावादी’ कह सकते हैं? और यदि पिता को लेकर इतनी समझदारी और स्नेह है तो ‘पितावादी’ भी क्यों नहीं? शायद यह हिन्दी का पहला उपन्यास है जिसमें किसी लेखिका ने एक निम्न-मध्यवर्गीय कस्बाई पारिवारिक जीवन को इतनी अन्तरंगता और असलियत से जीवन्त किया हो.
#9 सहेला रे | मृणाल पांडे
भारतीय संगीत का एक दौर रहा है जब संगीत के प्रस्तोता नहीं, साधक हुआ करते थे. वे अपने लिए गाते थे और सुननेवाले उनके स्वरों को प्रसाद की तरह ग्रहण करते थे. ऐसा नहीं कि आज के गायकों-कलाकारों की तरह वे सेलेब्रिटी नहीं थे, वे शायद उससे भी ज़्यादा कुछ थे, लेकिन कुरुचि के आक्रमणों से वे इतनी दूर हुआ करते थे जैसे पापाचारी देहधारियों से दूर कहीं देवता रहें. बाज़ार के इशारों पर न उनके अपने पैमाने झुकते थे, न उनकी वह स्वर-शुचिता जिसे वे अपने लिए तय करते थे. उनका बाज़ार भी गलियों-कूचों में फैला आज-सा सीमाहीन बाज़ार नहीं था, वह सुरुचि का एक क़िला था जिसमें अच्छे कानवाले ही प्रवेश पा सकते थे. मृणाल पाण्डे का यह उपन्यास टुकड़ों-टुकड़ों में उसी दुनिया का एक पूरा चित्र खींचता है. केन्द्र में हैं पहाड़ पर अंग्रेज बाप से जन्मी अंजलिबाई और उसकी मां हीरा. दोनों अपने-अपने वक़्त की बड़ी और मशहूर गानेवालियां. न सिर्फ़ गानेवालियां बल्कि ख़ूबसूरती और सभ्याचार में अपनी मिसाल आप. पहाड़ की बेटी हीरा एक अंग्रेज अफ़सर एडवर्ड के. हिवेट की नज़र को भायी तो उसने उस समय के अंग्रेज अफ़सरों की अपनी ताक़त का इस्तेमाल करते हुए उसे अपने घर बिठा लिया और एक बेटी को जन्म दिया, नाम रखा विक्टोरिया मसीह. हिवेट की लाश एक दिन जंगलों में पाई गई और नाज़-नखरों में पल रही विक्टोरिया अनाथ हो गई. शरण मिली बनारस में, जो संगीत का और संगीत के पारखियों का गढ़ था. लेकिन यह कहानी उपन्यासकार को कहीं लिखी हुई नहीं मिली, इसे उसने अपने उद्यम से, यात्राएं करके, लोगों से मिलकर, बातें करके, यहां-वहां बिखरी लिखित-मौखिक जानकारियों को इकट्ठा करके पूरा किया है. इस तरह पत्र-शैली में लिखा गया यह उपन्यास कुछ-कुछ जासूसी उपन्यास जैसा सुख भी देता है.
#10 अल्मा कबूतरी | मैत्रयी पुष्पा
कभी-कभी सड़कों, गलियों में घूमते या अखबारों की अपराध-सुर्खियों में दिखाई देनेवाले कंजर, सांझी, नट, मदारी, संपेरे, पारदी, हाबूड़े, बनजारे, बावरिया, कबूतरे- न जाने कितनी जन-जातियां हैं जो सभ्य समाज के हाशियों पर डेरा लगाए सदियां गुज़ार देती हैं- हमारा उनसे चौकन्ना सम्बन्ध सिर्फ कामचलाऊ ही बना रहता है. उनके लिए हम हैं कज्जा और ‘दिकू’- यानी सभ्य-सम्भ्रान्त, ‘परदेसी’, उनका इस्तेमाल करने वाले शोषक- उनके अपराधों से डरते हुए, मगर उन्हें अपराधी बनाए रखने के आग्रही. हमारे लिए वे ऐसे छापामार गोरिल्ले हैं जो हमारी असावधानियों की दरारों से झपट्टा मारकर वापस अपनी दुनिया में जा छिपते हैं. कबूतरा पुरुष या तो जंगल में रहता है या जेल में...स्त्रियां शराब की भट्टियों पर या हमारे बिस्तरों पर... इन्हीं ‘अपरिचित’ लोगों की कहानी उठाई है कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने ‘अल्मा कबूतरी’ में. यह ‘बुन्देलखंड की विलुप्त होती जनजाति का सामाजिक-वैज्ञानिक अध्ययन’ बिल्कुल नहीं है, हालांकि कबूतरा समाज का लगभग सम्पूर्ण ताना-बाना यहां मौजूद है. यहां के लोग-लुगाइयां, उनके प्रेम-प्यार, झगड़े, शौर्य इस क्षेत्र को गुंजान किए हुए हैं.
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