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इन 4 वजहों से BJP ने हरिवंश सिंह को उप-सभापति के लिए चुना था

राज्यसभा में सबसे ज़्यादा सांसदों वाली पार्टी बीजेपी ने क्यों नीतीश कुमार की पार्टी के नेता को उम्मीदवार बनाया!

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राज्यसभा में हरिवंश नारायण सिंह
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विशाल
10 अगस्त 2018 (Updated: 10 अगस्त 2018, 09:41 AM IST) कॉमेंट्स
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9 अगस्त को राज्यसभा के उप-सभापति का चुनाव हुआ. NDA से JDU के हरिवंश नारायण सिंह और UPA से कांग्रेस के बीके हरिप्रसाद कैंडिडेट थे. वैसे ये लकीरी बातें हैं. चुनाव कुल-मिलाकर बीजेपी बनाम कांग्रेस का था, जिसमें BJD और TRS जैसे विपक्षी दलों ने हरिवंश नारायण के पक्ष में वोट किया. 125 वोट पाकर हरिवंश जीत गए और बीके हरिप्रसाद को 105 वोट मिले.

ये तो हुआ अंकगणित. लेकिन, बीजेपी का जेडीयू के हरिवंश को कैंडिडेट बनाना और फिर उन्हें जिताने के लिए विपक्षी पार्टियों से जोड़तोड़ करने का एक सियासी गणित भी है.


विपक्ष के कैंडिडेट बीके हरिप्रसाद, जिन्हें 105 वोट मिले.
विपक्ष के कैंडिडेट बीके हरिप्रसाद, जिन्हें 105 वोट मिले.

हरिवंश नारायण ने तीन दशक तक पत्रकारिता की. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के सूचना सलाहकार रहे. 2014 में नीतीश कुमार ने इन्हें राज्यसभा सांसद बनाया, जिसकी सांसद निधि इन्होंने बड़े सूझबूझ से इस्तेमाल की. उम्मीदवारी और चुनाव जीतने के लिहाज़ से वो सटीक व्यक्ति नज़र आते हैं. लेकिन उम्मीदवार के तौर पर इनके चयन और फिर जीत के पीछे चार मज़बूत वजहें हैं. आइए जानते हैं:

#1. जाति नहीं जाती

वो फंदा, जिससे गुज़रे बिना भारत की सियासत पूरी नहीं होती. मुज़फ्फरपुर के बालिका गृह में रेप का मामला सामने आने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार OBC पॉलिटिक्स में व्यस्त हैं. उन्हें डर है कि मंजू वर्मा और दूसरे नामों के चलते कहीं ये वोटबैंक छिटक न जाए. लेकिन डर ये भी है कि कहीं OBC साधने के चक्कर में सवर्ण बिरादरी दूर न हो जाए. तो ठाकुर बिरादरी के हरिवंश नारायण सिंह को आगे किया गया.


मुज़फ्फरपुर केस पर प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान नीतीश कुमार
मुज़फ्फरपुर केस पर प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान नीतीश कुमार

वहीं बीजेपी भी SC/ST ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने के बाद सवर्णों का रंज झेल रही है. पार्टी के नेता प्रकट तौर पर मानें या न मानें, लेकिन इस फैसले पर लोगों का मूड समझने के लिए सोशल मीडिया काफी है. ऐसे में नीतीश कुमार और हरिवंश नारायण की आड़ में बीजेपी की सियासत भी सध गई.

#2. वफादारी का इनाम!

हरिवंश नारायण की चहुंओर तारीफ हो रही है. उनके साथ काम कर चुके पत्रकार यादें साझा कर रहे हैं कि वो कितने बेहतरीन संपादक साबित हुए. प्रभात खबर अखबार, जिसके वो संपादक थे, उसमें RTI बीट की पत्रकारिता इन्होंने शुरू कराई. लेकिन विरोधी एक आरोप मज़बूती से लगा रहे हैं कि पत्रकारीय करियर के आखिरी दो बरसों में उन्होंने नीतीश कुमार के हक में खूब खबरें चलाईं. अखबार के ज़रिए उनका खूब पक्ष लिया. नीतीश का पहले उन्हें राज्यसभा सांसद बनाना और अब उप-सभापति के लिए आगे करना इसी का नतीजा है.


उप-सभापति का चुनाव जीतने के बाद कुर्सी पर हरिवंश सिंह
उप-सभापति का चुनाव जीतने के बाद कुर्सी पर हरिवंश सिंह

#3. नंबर गेम

मौजूदा वक्त में राज्यसभा में बीजेपी के 73 सांसद हैं. अभी 245 सीटों की राज्यसभा में चुनाव जीतने के लिए कैंडिडेट को 123 वोटों की ज़रूरत थी. बीजेपी के लिए दिक्कत ये थी कि वो अपना कैंडिडेट खड़ा करके 123 वोटों का आंकड़ा पार नहीं कर सकती थी. कांग्रेस के पास भले 50 सांसद हैं, लेकिन वो बाकी विपक्षी दलों को एक छतरी के नीचे ला सकती थी. ऐसे में बीजेपी ने अपनी पार्टी के बजाय सहयोगी दल का कैंडिडेट खड़ा किया. और चुना भी जेडीयू के हरिवंश नारायण को. ऐसे में BJD और TRS को मनाने की ज़िम्मेदारी आ गई नीतीश कुमार पर, जो उन्होंने बखूबी निभाई. इन्हीं पार्टियों के बूते हरिवंश 125 के आंकड़े तक पहुंच गए.


हरिवंश सिंह के चुनाव से बीजेपी और जेडीयू के बीच हालात सुधरते दिख रहे हैं.
हरिवंश सिंह के चुनाव से बीजेपी और जेडीयू के बीच हालात सुधरते दिख रहे हैं.

#4. बीजेपी का सहयोगी दलों को संदेश

उप-सभापति के चुनाव के लिए बीजेपी की पहली पसंद शिरोमणि अकाली दल के नरेश गुजराल थे. हालांकि, बीजेपी इससे इनकार भी कर सकती है, क्योंकि गुजराल के नाम की आधिकारिक घोषणा नहीं हुई थी. लेकिन ये सच है कि हरिवंश के नाम सहमति बनाने के लिए बीजेपी नेताओं को प्रकाश सिंह बादल से लंबी बातचीत करनी पड़ी थी. चुनाव के बाद एक कार्यक्रम में गुजराल ने कहा भी कि 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन बनाकर जीतने के लिए बीजेपी को पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बर्ताव की ज़रूरत है.


राज्यसभा में नरेश गुजराल
राज्यसभा में नरेश गुजराल

कैंडिडेट न बनाए जाने को लेकर गुजराल की नाराज़गी समझी जा सकती है, लेकिन बीजेपी अपने मकसद में कामयाब हो गई. एक सहयोगी दल के नेता को उप-सभापति का उम्मीदवार बनाना और फिर उसे जिताने के लिए प्रयास करना... इस कदम से बीजेपी अपने सहयोगी दलों को ये संदेश देने में सफल रही कि भविष्य में उनकी राजनीतिक अभिलाषाओं को समायोजित कर लिया जाएगा. 2019 लोकसभा चुनाव को देखते हुए ये सहयोगियों से ज़्यादा बीजेपी के लिए ज़रूरी था.




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