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चंद्रयान-3 मिशन की एक-एक बात जानिए, जो अगर सफल हुआ तो चांद पर बस सकते हैं इंसान

ISRO का ये मिशन इस साल जून में लॉन्च हो सकता है.

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इसी साल लॉन्च हो सकता है चंद्रयान-3 मिशन. (इमेज क्रेडिट: ISRO)

एक चंद्रयान गया, दूजा चंद्रयान गया, अब तीसरे की बारी है. 2-4 टेस्ट वगैरह हुए, सब सही निकला. भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान केंद्र (ISRO) ने 19 फरवरी 2023 को अपनी वेबसाइट पर बताया. अब जल्दी वो दिन आएगा, जिस रॉकेट में कसकर इस चंद्रयान (Chandrayan) को उड़ा दिया जाएगा. चांद पर पहुंचकर अपना काम-वाम करेगा. भारत का 600 करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट, फिर से आसमान में, फिर से चंद्रमा की ओर, फिर से कुछ-कुछ की तलाश करता हुआ.

चंद्रयान कैसा दिखता है? कितनी कीमत है? आगे बताएंगे.
क्या है ये टेस्ट? आगे बताएंगे
क्या काम करेगा? ये भी आगे बताएंगे.

क्या है चंद्रयान 3?

बताया जा रहा है कि चंद्रयान-3 के मिशन में 600 करोड़ से ज़्यादा की लागत आएगी.  

चंद्रयान 3 के तीन प्रमुख हिस्से हैं, अंग्रेजी और तकनीकी भाषा बोलने वाले इस हिस्से को मॉड्यूल भी कहते हैं. ये 3 हिस्से हैं -

1 - उड़ाने वाला हिस्सा  - प्रोपल्शन मॉड्यूल
2 - उतारने वाला हिस्सा - लैंडर मॉड्यूल
3 - घूमने-घुमाने और जानकारी जुटाने वाला हिस्सा - रोवर

चंद्रयान -2 में एक हिस्सा और था. ऑर्बिटर. वो इस बार नहीं है.

चंद्रयान-3 के मॉड्यूल (इमेज क्रेडिट: ISRO)

प्रोपल्शन चंद्रयान को पूरी शक्ति से उड़ाकर धरती से अंतरिक्ष में पहुंचाएगा, और चांद तक का सफर कराएगा. चांद पर पहुंचने पर इस वाली यूनिट का काम बंद हो जाएगा.

फिर काम करेगा लैंडर. उस पूरे सेटअप को चंद्रमा की जमीन पर उतारने का काम. और अपने साथ लेकर उतरेगा रोवर को.

रोवर में 4 चक्के लगे होंगे. रोबोट है. घूमेगा, फोटो खींचेगा, वीडियो बनाएगा, छोटे में कहें तो बैटरी रहने तक जानकारी जुटाएगा.

क्या हैं ये टेस्ट? क्या पता चलेगा इनसे?

ये टेस्ट 31 जनवरी और 2 फरवरी के बीच बेंगलुरु के यूआर राव सैटेलाइट सेंटर में किए गए थे.

इलेक्ट्रोमैग्नेटिक इंटरफेरेंस और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक कम्पैटिबिलिटी टेस्ट सैटेलाइट लॉन्च से पहले किए जाते हैं. इन टेस्ट्स का मकसद ये सुनिश्चित करना होता है कि आगे जाकर सैटेलाइट के इलेक्ट्रॉनिक्स और बाकी पुर्ज़े अंतरिक्ष के मुश्किल माहौल  में भी ठीक से काम कर सकें.

टेस्ट के दौरान चंद्रयान-3 लैंडर (इमेज क्रेडिट: ISRO)

क्या ये आपको समझने में मुश्किल लग रहा है? तो मान लीजिए कि आप भरे बाजार में अपने दोस्त से कुछ बात करना चाह रहे हैं. पीछे गाड़ियों का शोर और बाकी लोगों की चिल्लम-चिल्ली ही इतनी है कि आपके दोस्त को आपकी बात सुनाई ही नहीं दे रही है. इसी चिल्लम-चिल्ली को साइंस की भाषा में ‘नॉइज़’ बोल दिया जाता है. जब बात इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की आती है, तो ऐसे ही किसी बाहरी ‘नॉइज़’ से सर्किट में हो रहे अनचाहे हस्तक्षेप को इलेक्ट्रोमैग्नेटिक इंटरफेरेंस कहते हैं. और इसी समस्या से निपटने के लिए इलेक्ट्रोमैग्नेटिक कम्पैटिबिलिटी टेस्ट करने पड़ते हैं.  

आपने गौर किया होगा, जब आपके मोबाईल पर कॉल आने वाला होता है तब कैसे पास रखे मैग्नेटिक स्पीकर पर बीप-बीप-बीप की आवाज़ आने लगती है. या किचिर-किच्च-किच्च जैसी आवाज. ये भी एक तरह का इलेक्ट्रोमैग्नेटिक इंटरफेरेंस ही है. अंतरिक्ष में इस तरह की ‘नॉइज़’ कई वजह से पैदा हो सकती है. इनमें से एक वजह है सोलर फ्लेर्स. 

अब ये क्या बला है? होता क्या है कि हमारे सूरज की सतह पर कई तरह की गतिविधियां या यूं कहें कि तूफानी गतिविधि होते रहना आम है. इस वजह से कई बार भारी ऊर्जा की कुछ लपटें हमारी धरती की और भी आ जाती हैं. इन्हें ‘सोलर फ्लेर्स’ कहा जाता है, जो कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के सुर ढीले करने में सक्षम है. इतना ही नहीं, सूर्य के साथ ब्रह्माण्ड की बाकी जगहों से आने वाली रेडिएशन (किरणें), जिसे ‘कॉस्मिक रेडिएशन’ भी कहते हैं और अल्ट्रवॉयलेट रेडिएशन (UV किरणें) आदि भी उपग्रह के सिस्टम के काम में छेड़छाड़ कर रूकावट डाल सकते हैं, जिससे मिशन गड़बड़ा सकता है.  उदाहरण के लिए, कॉस्मिक रेडिएशन बड़ी आसानी से किसी अंतरिक्ष यान के सर्किट में घुसकर उसे ख़राब कर सकती है. इसीलिए इंजीनियर्स EMI और EMC टेस्ट करते हैं, ताकि इन की रोकथाम की जा सके.

क्या होता है इन टेस्ट्स में?

जैसा कि आपको बताया, चंद्रयान-3 के तीन प्रमुख मॉड्यूल हैं. इसमें ऑर्बिटर नहीं होगा, जैसा कि चंद्रयान-2 में था. चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर पहले से ही चंद्रमा के चक्कर काट रहा है और चंद्रयान-3 उसी का इस्तेमाल करके हमसे संपर्क साधेगा. जानकारी के लिए बता दें कि ऑर्बिटर वो यान होता हो जो किसी ग्रह या उपग्रह का चक्कर काटता है. 

तीनों मॉड्यूल्स के एक-दूसरे से बात करने, यानि कम्यूनिकेट करने के लिए, एक विशेष रेडियो काम में आता है. जैसे हमारे घर वाला रेडियो अलग-अलग फ्रीक्वेंसी पर अलग-अलग चैनल चलाता है, वैसे ही इन मॉड्यूल्स को भी अपने रेडिओ-फ्रीक्वेंसी (RF) पर ऑर्बिटर का चैनल लगाना पड़ता है. बस यूं समझ लीजिये कि ये टेस्ट कर ISRO ने यही सुनिश्चित किया है कि लॉन्चर और सभी RF सिस्टम एक दूसरे से अभी कम्यूनिकेट कर रहे हैं, और चंद्रमा की सतह पर उतरने के बाद भी आपस में कम्यूनिकेट करते रहेंगे.

क्या है चंद्रयान मिशन?

चंद्रयान-1: इस मिशन में चंद्रमा की तरफ कूच करने की पहली कड़ी चंद्रयान-1 था. इसे 22 अक्टूबर 2008 को सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया था. वैसे तो इस मिशन की मियादी दो साल की थी, लेकिन अगस्त 2009 में संपर्क टूट जाने के कारण इसे बंद कर दिया गया.

चंद्रयान-1 से ISRO को मोटे-मोटे तीन काम करवाने थे. पहला, चांद का एक हाई-क्वालिटी नक्शा तैयार करना; दूसरा, चांद पर हीलियम जैसे रासायनिक तत्त्वों का पता लगाना; तीसरा और सबसे ज़रूरी, चांद पर पानी ढूंढ निकालना. हमारे लिए गर्व की बात है कि चंद्रयान-1 ने अपने सभी प्रमुख उद्देश्यों को सफलतापूर्वक पूरा किया. इस मिशन का सबसे बड़ा हासिल चांद के दक्षिणी ध्रुव पर पानी की खोज करना रहा.

चंद्रयान-2: चंद्रयान-1 की सफलता से ISRO का हौंसला बुलंद हुआ और चंद्रयान-2 की नींव रखी गयी. ध्यान देने की बात है कि चंद्रयान-1 ने केवल चंद्रमा की परिक्रमा की थी, लेकिन चंद्रयान-2 में चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंडर और रोवर उतारने की भी योजना थी.  

चंद्रयान-2 को 22 जुलाई, 2019 को लॉन्च किया गया था. चंद्रयान-2 के तीन हिस्से थे: 

1. ऑर्बिटर

2. विक्रम साराभाई के नाम से प्रेरित, एक लैंडर ‘विक्रम’, 

3. और ‘प्रज्ञान’ नामक रोवर.  

चंद्रयान-2 का मुख्य उद्देश्य चंद्रमा की सतह पर लैंडर की एक सॉफ्ट लैंडिंग कराना था. सॉफ्ट लैंडिंग में किसी अंतरिक्ष यान को बिना नुकसान पहुंचाए सतह पर लैंड कराने की कोशिश की जाती है. ऑर्बिटर के चांद की कक्षा में स्थापित होने के बाद अंतिम पलों में तकनीकी खराबी के चलते लैंडर विक्रम ने 7 सितंबर 2019 को हार्ड-लैंडिंग की और वो चंद्रमा की सतह पर क्रैश हो गया.

ISRO ने लैंडिंग के बाद रोवर के द्वारा चंद्रमा पर पानी तलाशने और उसकी सतह की सरंचना जांचने की उम्मीद की थी. लेकिन लैंडर के क्रैश होने से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव को अपने पहले प्रयास में सफलतापूर्वक छूने का भारत का सपना टूट गया. अगर सब कुछ योजना के मुताबिक होता तो चंद्रमा  की सतह के दक्षिण ध्रुव के क़रीब एक यान उतारने वाला भारत दुनिया का पहला देश बनता. इससे पहले अमेरिका, रूस और चीन को चांद की सतह पर सॉफ्ट लैन्डिंग में सफलता मिली थी, लेकिन वे भी कभी दक्षिणी ध्रुव पर लैंडिंग नहीं करवा पाए.

चंद्रयान-3: अब चंद्रयान-2 के बाद अगला नंबर चंद्रयान-3 का है. ये भी फिर से चंद्रमा की सतह पर एक सॉफ्ट लैंडिंग का प्रयास करेगा. चंद्रयान-3 के प्रमुख उद्देश्य चंद्रमा की सतह पर एक लैंडर और रोवर उतारना है, जिससे रोवर चंद्रमा की सतह पर घूम कर वहां परीक्षण कर पाए. इससे हमें चंद्रमा की सतह को बेहतर समझने में मदद मिलेगी.  

हालांकि, चंद्रयान-3 के लॉन्च की तारीख अभी तय नहीं हुई है, लेकिन संभावना है कि इसे साल 2023 के जून में लॉन्च किया जाएगा. मिशन को भारत के सबसे भारी रॉकेट लॉन्च व्हीकल GSLV Mark-3 (LVM3) द्वारा अंजाम दिया जाएगा. वैसे तो इसे 2022 में लॉन्च किया जाना था, लेकिन कोविड-19 और प्रमुख टेस्ट्स के चलते इस मिशन में देरी हुई. अब इसपर तेजी से काम हो रहा है.

ऐसा क्या है दक्षिणी ध्रुव पर?

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के कई बड़े हिस्सों पर मौजूद क्रेटर (गड्ढे) अरबों वर्षों से सूर्य की रोशनी से अछूते हैं. कह लीजिये कि वहां एक किस्म का “परमानेंट शैडो (स्थायी छाया)” है. इस वजह से वहां का तापमान काफी कम है और वहां बर्फ मिलने की संभावना है. कई देशों के ऑर्बिटर्स ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की छानबीन की है. इनमें अमरीका के लूनर प्रॉस्पेक्टर (1998), LRO (2009), LCROSS (2009), चीन का चैंग’ई 4 (2018) और भारत का चंद्रयान -1 (2008) प्रमुख हैं.  

दक्षिणी ध्रुव के क्रेटर्स की रचना अपने में अनूठी है और वहां हमारे सौर मंडल के जन्म से सम्बंधित प्रमाण मिल सकते हैं. सिर्फ यही नहीं, इन विशेषताओं के चलते, यह जगह चंद्रमा पर मानव बस्ती बसाने की क्षमता रखती है. अमरीका का नासा भी अपने आर्टेमिस III कार्यक्रम के ज़रिये चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर 2025 में मानव अभियान भेजने की जुगत में है. और भी कई अन्य अंतरिक्ष एजेंसियां ​​​​और निजी कंपनियां चंद्रमा के इस क्षेत्र का पता लगाने के लिए मिशन की योजना बना रही हैं.

अब ऐसी उम्मीद है कि चंद्रयान-3 के ज़रिए भारत इस लक्ष्य को जल्द ही प्राप्त कर लेगा. 

वीडियो: साइंसकारी: चांद की मिट्टी पर पौधा उगाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े?

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