जब रास्ते में लपका कांग्रेस ने
ज्वाला से अपनी जीत का सर्टिफिकेट लेकर रमेश धवाला घर पहुंचे. शाम को समर्थकों से मिले. अगले दिन शिमला के लिए निकले. भाजपा वालों को भरोसा था कि पुराने संबंध, संघ और विचारधारा का हवाला देकर धवाला को अपनी तरफ खींच लेंगे. वह शिमला में उनका इंतजार कर रहे थे. मगर वीरभद्र ने यूं ही 12 साल सूबा नहीं संभाला था. उन्होंने रास्ते में ही फील्डिंग सेट कर दी. धवाला कांग्रेस के नेताओं से शिमला पहुंचने से पहले ही मिल लिए और फिर सीधे पहुंचे वीरभद्र सिंह के पास. उनके समर्थन वाले कागज पर दस्तखत कर दिए. तब तक हिमाचल विकास कांग्रेस के आका पंडित सुखराम ने अपने पत्ते नहीं खोले थे.
पहले मौका वीरभद्र को मिला पर सरकार बनाने में बाजी धूमल ने मारी.
अब सबकी निगाहें राज्यपाल वीएस रमादेवी पर थीं. उनके सामने दो नजीर थीं. सबसे बड़ी पार्टी, या सबसे बड़ा गठबंधन. उन्होंने 32 विधायकों का समर्थन पाए वीरभद्र को न्योता दिया. उन्होंने शपथ ली, मगर तय समय में सपोर्ट नहीं जुटा पाए तो इस्तीफा दे दिया. अब सपोर्ट किसका नहीं जुटा पाए, ये तो जाहिर ही है. पंडित सुखराम का. वीरभद्र सुखराम की समर्थन की शर्तें पूरी नहीं कर पाए.
पुरानी खुन्नस पड़ी भारी
सुखराम को पुरानी खुन्नस भी थी. 1983 में जब राजीव गांधी के दखल के बाद ठाकुर राम लाल ने सीएम की कुर्सी छोड़ी तो सबसे तगड़ा दावा उनकी कैबिनेट के पीडब्लूडी मिनिस्टर सुखराम का ही था. मगर तब आलाकमान ने दिल्ली से केंद्रीय मंत्री वीरभद्र को मुख्यमंत्री बना भेज दिया. वीरभद्र ने सात साल राज किया. तीन साल बाद फिर सत्ता में लौटे. और इस तीसरे कार्यकाल में सुखराम को सिरे से किनारे लगा दिया. सुखराम पहले तो नरसिम्हा राव की छत्रछाया में बतौर संचार मंत्री खूब पनपे, मगर फिर घोटाले में रगड़ दिए गए. कांग्रेस ने बाय कहा तो उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बना ली. मंडी में उनका रसूख ज्यादा था. गृह जनपद वाला फैक्टर. ज्यादातर विधायक वहीं से जीते उनके. मगर एक दर्जन से ज्यादा सीटों पर उन्होंने वीरभद्र का खेल बिगाड़ दिया. राजनीतिक पंडित कहते हैं कि सुखराम ने डिप्टी सीएम की पोस्ट समेत सभी विधायकों के लिए मंत्री पद मांगा था. वीरभद्र को अंदाजा था कि इतने पर भी सरकार पांच साल नहीं खिंच पाएगी. वीरभद्र ने इस्तीफा दिया. राज्यपाल रमादेवी ने बुलाया प्रेम कुमार धूमल को. उनके पास सुखराम के समर्थन की चिट्ठी थी. एक चिट्ठी और थी. रमेश धवाला की. जी, वही रमेश धवाला जिनसे आप इस स्टोरी की शुरुआत में मिले. धवाला भी कांग्रेस का पाला छोड़कर वापस भाजपा में लौट आए थे. ये उन्हीं के समर्थन की चिट्ठी थी. ये ड्रामा नतीजे आने के बाद लगभग दो हफ्ते चला. और इसमें धवाला के खूब चर्चे रहे. धूमल ने पांच साल सरकार चलाई. उनसे शांता कुमार खेमे के कुछ विधायक नाराज भी रहे. कुछ मंत्रियों के इस्तीफे भी हुए. मगर नंबर्स के मामले में सरकार की सेहत बराबर दुरुस्त रही.ये भी पढ़ें:
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