प्रिय पाठको, आज एक कविता रोज़ में बातें सरहपा की होंगी. आठवीं सदी के दौरान हुए सरहपा को हिंदी का पहला कवि माना जाता है. उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था. ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ और ‘पद्मवज्र’ नामों से भी उन्हें पुकारा जाता रहा. सरहपा कहां पैदा हुए, इस पर अब तक बहस जारी है. एक तिब्बती लोक-कहावत को सुनें तो उनका जन्म-स्थान उड़ीसा मान सकते हैं. एक दूसरी लोक-कहावत सरहपा को सहरसा जिले के पंचगछिया गांव का भी बताती है. वहीं महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है. उन्होंने 'दोहाकोश' में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्र्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है. अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है. सरहपा का चौरासी सिद्धों की फेमस लिस्ट में छठा स्थान है. वह पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे. उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक और आदि सिद्ध भी माना जाता है. नालंदा में पढ़ाई पूरी करके सरहपा वहीं प्रोफेसर नियुक्त हो गए थे. उनकी सबसे खास बात यह थी कि वह ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी थे और गैर बराबरी की जगह बराबरी पर आधारित मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे. प्रोफेसरी से रिटायर होने के बाद श्रीपर्वत, गुंटूर (आंध्र प्रदेश) को उन्होंने अपनी कर्म-भूमि बनाया. तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 किताबें संगृहीत हैं. इनमें से 16 अपभ्रंश या पुरानी वाली हिंदी में हैं, जिनके अनुवाद भोट भाषा में मिलते हैं. ‘दोहाकोश’ सरहपा की सबसे ज्यादा चर्चित किताबों में से एक है. ‘बुद्धकपालसाधन’, ‘बुद्धकपालमंडलविधि’, ‘त्रैलोक्यवशंकरलोकेश्वरसाधन’ और ‘त्रैलोक्यवशंकरावलोकितेश्वरसाधन’ उनकी संस्कृत रचनाएं हैं. राहुल सांकृत्यायन इन्हें सरहपा की प्रारंभिक रचनाएं मानते हैं. आधुनिक हिंदी कवि कुंवर नारायण ने सरहपा पर एक कविता लिखी है. उससे पता चलता है कि सरहपा बहुत अकेले भी थे. राज्ञी से श्रीपर्वत तक वह आजादी का मतलब खोजते हुए भटकते रहे.
अब पेश है राहुल सांकृत्यायन के अनुवाद में सरहपा की एक कविता.














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