मोनिका कुमार हिंदी की बहुत मकबूल लेकिन खामोश कवि और अनुवादक हैं. रचनाहीन शोर-शराबे को वह सतत खुद से दूर धकेलती रहती हैं. इस समय में जब हिंदी की लगभग सारी कवयित्रियां फेसबुक पर हैं, मोनिका वहां नहीं हैं. वह चंडीगढ़ में रहती हैं और अंग्रेजी की अध्यापिका हैं. मोनिका शीर्षकहीन कविताएं लिखती हैं. उनके संपादक अपनी सुविधा के लिए प्राय: उनकी कविताओं के शीर्षक गढ़ते आए हैं. कवयित्री ने स्वयं ऐसा अब तक नहीं किया है. विनोद कुमार शुक्ल या भवानी प्रसाद मिश्र आदि की तरह कविता की पहली पंक्ति को भी मोनिका ने कविता के शीर्षक के रूप में नहीं स्वीकारा है. इस तरह देखें तो मोनिका की कविता-यात्रा किसी सही शीर्षक की खोज में है. कुछ यात्राओं की सार्थकता खोज की अपूर्णता में निहित होती है. मोनिका की कविता-यात्रा कुछ ऐसी ही है. आज एक कविता रोज़ में मोनिका कुमार की एक कविता...
'वही क्षण है जब लगता है कवि अनाथ नहीं हैं'
आज पढ़िए मोनिका कुमार की कविता .
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फोटो - thelallantop
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कवि नहीं दिखते सबसे सुंदर मग्न मुद्राओं में
लिखते हुए सेल्फ पोट्रेट पर कविताएं स्टडी टेबलों पर बतियाते हुए प्रेमिका से गाते हुए शौर्यगीत करते हुए तानाशाहों पर तंज सोचते हुए फूलों पर कविताएं वे सबसे सुंदर दिखते हैं जब वे बात करते हैं अपने प्रिय कवियों के बारे में प्रिय कवियों की बात करते हुए उनके बारे में लिखते हुए दमक जाता हैं उनका चेहरा फूटता है चश्मा आंखों में हथेलियां घूमती हुईं उंगलियों को उम्मीद की तरह उठाए वही क्षण है जब लगता है कवि अनाथ नहीं हैंकुछ और कविताएं यहां पढ़िए:
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‘ठोकर दे कह युग – चलता चल, युग के सर चढ़ तू चलता चल’
‘जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख'
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