अमन त्रिपाठी आजकल लखनऊ में हैं. ग्रेजुएशन कर रहे हैं. इनकी कहन ने इधर ध्यान को कुछ इस कदर खींचा है कि पारखियों को लगने लगा है कि अमन भविष्य में बहुत बेहतर लिखने जा रहे हैं. हमने उनसे उनकी एक कविता मांगी, उन्होंने हमें अपनी सबसे नई और अब तक अप्रकाशित कविता भेजी. हम इस अप्रकाशित को आज एक कविता रोज़ में प्रकाशित कर रहे हैं...
एक कविता रोज़: कैसा भी खालीपन आंखों को चुभता जरूर है
आज एक कविता रोज़ में पढ़िए युवा कवि अमन त्रिपाठी की एक कविता.
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फोटो - thelallantop
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कस्बे के सरकारी अस्पताल के बाहर
बिगड़ी टॉर्च बनाने वालों की एक पंक्ति बैठती है
बस स्टेशन के सामने कुछेक मोचियों की
और कस्बे के एकमात्र बैंक के सामने घड़ीसाजों की एक पंक्ति इन कारीगरों के बारे में कहने को बहुत सारी बातों के बीच एक बात यह है
कि खत्म हो रहीं कई सारी चीजों के बीच
ये शायद किसी भी तरह की अंतिम पंक्तियों में से हैं,
जो किसी भी शहर के किसी भी जगह पर सड़क के किनारे
किसी भी चीज को बनाने बैठे हैं मोचियों, घड़ीसाजों और टॉर्च बनाने वालों की ये पंक्तियां जो फैली हुई हैं कस्बों में
बाजार की गुजरती भीड़ के बीच स्थायी भाव से समय, यात्रा और रोशनी देने वाले ये कारिंदे यह जानना, देखना समझना और बैठे रहना बाजार के बीच
कि घड़ियों टॉर्चों और चप्पलों की क्या अहमियत बची है जो अपने बैठे रहने की भी अहमियत जानते हैं
और प्रयासरत हैं कि यह पंक्ति इनकी आखिरी पंक्ति हो हास्यास्पद जैसा ही है दिखाना यह और बार-बार बताना
कि ये चीजें आज हैं और कल नहीं रहेंगी लेकिन कैसा भी खालीपन आंखों को चुभता जरूर है और वह घड़ी जो कलाई पर बंधी सत्ताईस साल
और कितनी ही बार उसे देखकर कितनों को बताया गया
कि अब यह समय हो रहा है और इस समय क्या होना चाहिए और दसियों टांके लगी चप्पल जिसके तलवे पर तीन कीलें आज भी गड़ी हैं
कहती जरूर होगी कि कुछ मील यात्रा और शेष है उसके साथ और एक टॉर्च वह जो अंधेरे होते समय में आज भी एक हौसला है
कि जो देती रही रोशनी अनगिनत रातों में और रास्तों पर,
वह रखी है अंधेरा कितना भी हो अंतिम विकल्प की तरह शुक्रगुजार होंगे ये सब और कुछ कलाइयों, एड़ियों और हथेलियों को
जरूरत जरूर महसूस होगी इन पंक्तियों की
जो बैठे हुए हैं आज अस्पतालों, बस स्टेशनों और बैंकों के सामने
और कल नहीं रहने वाले हैं...
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