आगे बढ़ने से पहले बात कर लेते हैं भारत के मैटरनिटी लीव से जुड़े कानून पर # कामकाज़ी महिलाओं की जॉब सिक्योरिटी को ध्यान में रखते हुए 1961 में मैटरनिटी बेनिफिट ऐक्ट आया. इसमें महिलाओं को 12 हफ्तों की मैटरनिटी लीव का प्रावधान किया गया. # 2017 में इस ऐक्ट में कुछ बदलाव किए गए. 12 हफ्ते की मैटरनिटी लीव को बढ़ाकर 26 हफ्तों का किया गया. तीसरे बच्चे के लिए महिला को 12 हफ्तों की मैटरनिटी लीव ही दी जाएगी. # एडॉप्शन या सरोगेट के ज़रिए मां बनने पर 12 हफ्तों की मैटरनिटी लीव का प्रावधान इस ऐक्ट में किया गया है. # इस कानून में 26 हफ्तों का वक्त बीतने के बाद महिला के लिए वर्क फ्रॉम होम का ऑप्शन चुनने का भी प्रावधान है. हालांकि, ये इस पर निर्भर करता है कि महिला का काम कैसा है. # इसके साथ ही हर उस कंपनी में जहां 50 या उससे ज्यादा कर्मचारी हैं, वहां क्रेश फैसिलिटी को भी इस कानून के तहत अनिवार्य किया गया है. फीडिंग के लिए महिलाओं को दिन में चार बार क्रेश में जाने की अनुमति का भी प्रावधान इस ऐक्ट में किया गया है. # साल 2020 में इस ऐक्ट को सोशल सिक्योरिटी कोड में शामिल किया गया है. कानून तो बढ़िया है, पर क्या वाकई फायदा मिल रहा है? एक नज़र कुछ न्यूज़ रिपोर्ट्स पर डाल लेते हैं जो मैटरनिटी बेनिफिट और औरतों की जॉब को लेकर एक अलग ही कहानी हमारे सामने रखते हैं. जून, 2018. बिजनेस इंसाइडर ने टीम लीज़ की एक स्टडी के हवाले से लिखा,
“2018-19 में 11 से 18 लाख महिलाओं को नौकरी न मिलने की आशंका है, क्योंकि कंपनियों को मैटरनिटी लीव और बेनिफिट फीज़िबल नहीं लगते हैं. इसमें नौकरी से निकाली जाने वाली महिलाएं शामिल नहीं हैं.”इस रिपोर्ट में ये भी लिखा है कि 2017 में पास हुआ मैटरनिटी संशोधन कानून एक अच्छा कदम है, लेकिन इसके नतीजे महिलाओं के हित में नहीं हैं. मैटरनिटी लीव छोड़ने में कोई महानता नहीं है # कई महिलाएं इस हक के लिए जूझ रही हैं. क्योंकि छोटी कंपनियों और अनऑर्गनाइज़्ड सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं की प्रेग्नेंसी का पता चलते ही, वो नौकरी से निकाल दी जाती हैं. उनके लिए जॉब सिक्योरिटी जैसे शब्द एग्जिस्ट ही नहीं करते हैं. इसकी एक बानगी मेरी सहकर्मी प्रतीक्षा बताती हैं,
"हाल ही की बात है. लॉकडाउन खुला तो मेरे घर सफाई करने वाली दीदी प्रेगनेंट थीं. आस पड़ोस के जिन दो तीन घरों में वो काम करती थीं, उन्होंने उन्हें निकाल दिया. साथ ही एक तीसरे शख्स के ज़रिए मुझे कहलवाया कि वो तो प्रेग्नेंट है, दूसरी रख लो. कहो तो हम नंबर दे दें? कोई भी ऐसा नहीं था जो उन्हें डिलीवरी के बाद कुछ हफ्तों की पेड लीव देने को राज़ी होता."क्वार्ट्ज़ इंडिया में सितंंबर, 2019 में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में केवल एक प्रतिशत कामकाज़ी महिलाओं को मैटरनिटी लीव का लाभ मिलता है. # साल 2018 में लल्लनटॉप की ऑडनारी टीम की बात सुष्मिता मिश्रा से हुई थी. हमने डिटेल में उनका मसला उठाया भी था. मसला क्या था? जिस कॉलेज में वो पढ़ाती थीं, उसके मैनेजमेंट ने नोटिस जारी किया कि लोग भविष्य की लीव्स के बारे में बता दें. उन्होंने बताया कि आने वाले महीनों में उन्हें मैटरनिटी लीव की ज़रूरत पड़ेगी. हालांकि उन्होंने ये आश्वासन दिया कि लीव पर जाने के पहले वो सिलेबस ख़त्म करवा देंगी. लेकिन उनके मैनेजमेंट की तरफ से उन्हें टर्मिनेशन लेटर जारी कर दिया गया. वजह बताई गई कि स्टूडेंट्स उनसे खुश नहीं हैं. जब हमने स्टूडेंट्स से बात की. तो उन्होंने कहा कि उन्हें सुष्मिता मैम के लेक्चर्स से कोई भी दिक्कत नहीं है. # भारत में ज्यादातर संस्थानों में एक हफ्ते या 15 दिन की ही पैटरनिटी लीव मिलती है. ऐसे में बच्चे की ज़िम्मेदारी बाय डिफॉल्ट मां पर ही आ जाती है. ऐसे में अगर औरत वर्किंग है तो वो लगातार अच्छी मां बनने और अच्छी प्रोफेशनल बनी रहने के बीच जूझती है. दफ्तर में एक घंटा ओवरटाइम करने पर एक बुरी मां और एक घंटा जल्दी निकलने पर बुरी प्रोफेशनल होने का ठप्पा उस पर लग जाता है. # जून, 2019 में द गार्डियन में एक भारतीय महिला ने अपनी आपबीती लिखी. उसने कहा कि जब वो मैटरनिटी लीव के बाद काम पर लौटी तो उसके साथ गलत व्यवहार किया गया. उसे नौकरी छोड़ने पर मजबूर किया गया. उसने लिखा कि छुट्टी से लौटने के बाद ज़रूरी काम के लिए भी छुट्टी मांगने पर या पब्लिक हॉलिडे की छुट्टी मांगने पर भी नाराज़गी जताई जाती. ऐसा कई दफ्तरों में होता है. मैटरनिटी लीव से लौटने के बाद औरत बीमार हो जाए या कोई पर्सनल काम आ जाए तो सुनने को मिलता है- अभी तो छह महीने की छुट्टी से लौटी हो, मानो वो छुट्टी उसने शौक से ली हो. कंपनियों को लगता है कि वो 26 हफ्ते की सैलरी फ्री में दे रहे हैं. # पुरुष भी तो 15 दिन में काम पर लौट जाते हैं तो मैं क्यों नहीं? बच्चे की वजह से मैं अपने काम और करियर से क्यों कॉम्प्रोमाइज़ करूं? मैं छह महीने घर पर बैठूंगी तो बाकी लोग आगे बढ़ जाएंगे. बाकी लोगों का काम मेरी वजह से बढ़ जाएगा, सबको लगेगा कि मैं आराम कर रही हूं. ये कुछ बातें हैं जो नई-नई मां बनी औरतों के मन में आती हैं. लेकिन ऐसा सोचना खुद पर ज़ुल्म करना है. आपके पुरुष सहकर्मी बच्चा नहीं पैदा कर सकते, बच्चा पैदा होने पर उनके शरीर में कोई बदलाव नहीं आता, उनको रिकवरी के प्रोसेस से नहीं गुज़रना होता, उन्हें बच्चे को दूध नहीं पिलाना होता. पर आपको ये सब करना होता है. इसलिए बच्चे के लिए छह महीने की छुट्टी लेना आपका अधिकार है. अगर कोई संस्थान या बॉस या सहकर्मी इस बात के लिए आपको गिल्टी महसूस कराता है, आपका प्रमोशन रोकता है तो आप इसकी शिकायत कर सकती हैं. करनी चाहिए. # भारत में तो वैसे भी महान कहकर औरतों के सिर पर बोझ डालने की परंपरा है. मेरी मां कितनी महान है, वो तो कभी छुट्टी नहीं लेती और क्या बढ़िया खाना पकाती है. मेरी बीवी कितनी महान है वो ऑफिस भी जाती है, घर-बच्चों को भी संभालती है, मेरे लिए करवाचौथ का व्रत भी रखती है. पहले की औरतें कितनी महान थीं, बच्चा होने के हफ्तेभर बाद घर के काम में लग जाती थीं. कोई मैटरनिटी लीव नहीं. # सौम्या पांडे और जी. सृजना अफसर हैं, प्रिविलेज़्ड हैं. एग्जाम्पल सेट करने की पोज़िशन पर हैं. लेकिन मैटरनिटी लीव छोड़ने के उनके कदम को मिसाल कहना गलत है, क्योंकि ये उन हज़ारों लाखों महिलाओं के लिए डिसकरेजिंग है जो मैटरनिटी लीव की मूलभूत ज़रूरत के लिए लड़ रही हैं. जाते-जाते एक अच्छी मिसाल सुन लीजिए न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री हैं जेसिंडा आर्डर्न. अक्टूबर, 2017 में वो प्रधानमंत्री बनीं. तीन महीने बाद यानी जनवरी, 2018 में उन्होंने ऐलान किया कि वो गर्भवती हैं. इसके बाद उन्होंने छह हफ्तों (21 जून-2 अगस्त) की मैटरनिटी लीव ली. इसके लिए उन्होंने बाकायदा कार्यकारी प्रधानमंत्री भी नियुक्त किया था.













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