इस आर्टिकल में हम महिलाओं से जुड़े उन चारों मामलों पर बात करेंगे जिन पर कोर्ट में सुनवाई होनी है.
सबरीमाला में महिलाओं की एंट्री: सबरीमाला स्थित अयप्पा मंदिर में 10 से 50 साल की लड़कियों और औरतों का प्रवेश वर्जित था. इसके खिलाफ याचिका डाली गई. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 4:1 की मेजॉरिटी से महिलाओं की एंट्री पर लगा ये बैन हटाने का फैसला सुनाया. सितंबर, 2018 में. इसके बाद भी मंदिर में महिलाएं जा नहीं पाईं. जिन्होंने जाने की कोशिश की, उन्हें भीड़ का सामना करना पड़ा. आधे रास्ते में ही उन्हें रोका गया. सबरीमाला के रास्ते पर प्रदर्शन हुए, हिंसा हुई. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में हिंसा के खिलाफ कई याचिकाएं डाली गईं. इसके बाद पांच जजों की बेंच ने मामले को बड़ी बेंच को रेफर कर दिया. रेफ़र करते हुए बेंच ने कहा था कि धार्मिक प्रथाओं/रिवाजों (जैसे किसी पूजास्थल/मस्जिद में महिलाओं की एंट्री पर बैन) की संवैधानिक वैधता सिर्फ सबरीमाला केस तक सीमित नहीं है.

मस्जिद में मुस्लिम महिलाओं की एंट्री: यास्मीन जुबैर अहमद पीरजादा ने सुप्रीम कोर्ट में PIL डाली. 2019 में. मुस्लिम महिलाओं के मस्जिद में अन्दर जाने की मांग को लेकर. इस पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट को जवाब लिखा है, उन्होंने कहा है कि मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिए महिलाओं की एंट्री पर कोई रोक नहीं है. वो पूरी तरह से स्वतंत्र हैं अन्दर जाने के लिए. वो इस आज़ादी का उपयोग करती हैं या नहीं, ये उन पर निर्भर करता है. AIMPLB के सेक्रेटरी मोहम्मद फज़लुर्रहीम ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एफिडेविट में यही कहा. ये भी कहा गया कि AIMPLB इस मामले से जुड़े किसी भी दूसरे धार्मिक मत पर कोई टिप्पणी नहीं करेगा. एफिडेविट में यह भी लिखा गया कि जुम्मे की सामूहिक नमाज़ में शामिल होने को लेकर महिलाओं पर कोई पाबंदी नहीं है. पुरुषों के ऊपर है. महिलाएं चाहे घर पर नमाज़ पढ़ें या मस्जिद में, उन्हें बराबर का सवाब (पुण्य) मिलता है.

दाउदी बोहरा समुदाय में महिलाओं का ख़तना: 2017 में सुप्रीम कोर्ट में PIL दाखिल हुई. करने वाली वकील थीं सुनीता तिवारी. इस PIL में महिलाओं के ख़तने पर रोक लगाने की मांग की गई थी. दाऊदी बोहरा समुदाय में खफ्ज़ प्रथा होती है. इसमें बच्चियों के जन्म के बाद उनकी क्लिटोरिस का ऊपरी हिस्सा काट दिया जाता है. इस पेटीशन के समर्थन में कहा गया कि इस प्रथा के चलते बच्चों के अधिकारों का हनन होता है, और बराबरी का अधिकार भी बच्चियों से छिन जाता है. इस पेटीशन के विरोध में कहा गया कि खफ्ज़ की प्रथा समुदाय के धार्मिक रीति-रिवाजों से जुड़ी है. और अपने धर्म से जुड़े रिवाज निभाने की आज़ादी संविधान के 25वें और 26वें अनुच्छेद ने दे रखी है. 2018 में भारत के एटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि इस मामले में वो निर्देश जारी करें. कहा कि वर्तमान कानून के तहत फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन अपराध है. सितंबर, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे पांच जजों की बेंच के हवाले किया. और अब नौ जजों की बेंच इस पर सुनवाई कर रही है.

गैर-पारसी पुरुषों से शादी करने वाली पारसी महिलाओं की अगियारी (फायर टेम्पल) में एंट्री: 2010 में गुलरुख गुप्ता ने केस किया. अहमदाबाद हाई कोर्ट में. कि उनके पेरेंट्स की मृत्यु के बाद उन्हें उनके अंतिम संस्कार के रिवाजों के लिए फायर टेम्पल (पारसियों का पूजास्थल जिसे दर-ए-मेहर या अगियारी भी कहा जाता है) और टावर ऑफ साइलेंस (जहां पारसी लोग अपने मृत लोगों को मरने के बाद छोड़कर आते हैं) में जाने की इजाज़त दी जाए. गुलरुख एक पारसी महिला हैं जिन्होंने एक गैर पारसी व्यक्ति से स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी की. 1991 में. ताकि शादी के बाद भी वो अपने पारसी धर्म को निभाती रहें, और उन्हें अपना धर्म ना बदलना पड़े. लेकिन उन पारसी महिलाओं को जिन्होंने गैर पारसियों से शादी की, उन्हें अगियारी में आने की इजाज़त नहीं होती है. गुलरुख गुप्ता ने इसी के खिलाफ अपील करते हुए केस दायर किया. इसमें 2012 में गुजरात हाई कोर्ट ने गुलरुख गुप्ता के खिलाफ फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में अंतरिम ऑर्डर पास करते हुए कहा कि परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु के बाद गुलरुख गुप्ता और उनकी बहन को पारसी धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने की अनुमति दी जाए. अब इस मामले में सुनवाई चल रही है.

इन सभी मामलों में सुप्रीम कोर्ट में आने वाले चंद दिनों में सुनवाई होगी.
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