"मैं क़ैदी नम्बर 786 जेल की सलाख़ों से बाहर देखता हूं सपनों के गांव से उतरी एक नन्ही परी को देखता हूं कहती है ख़ुद को सामिया और मुझको वीर बुलाती है है बिल्कुल बेगानी पर अपनों सी ज़िद वो करती है उसकी सच्ची बातों से फिर जीने को मन करता है उसके क़समों वादों से कुछ करने को मन करता है."
कौन थीं वो दो लड़कियां जिनकी बदौलत आज लड़कियां भी वकील बनती हैं?
भारत मे 1923 से पहले कोई भी महिला वक़ील नहीं बन सकती थी.

उस वक्त कै प्रैक्टिशनर्स ऐक्ट के मुताबिक, कोई भी 'व्यक्ति' वकालत कर सकता था. लेकिन, उस वक्त के जो कानून के जानकार थे उन्होंने 'व्यक्ति' का मतलब निकाल लिया पुरुष.
वीर ज़ारा का ये वो पार्ट है, जहां फ़ाइनली 22 साल बिन सज़ा जुर्म काट रहा वीर, यानी शाहरुख़, अपनी लॉयर सामिया को शुक्रिया अदा कर रहे होते हैं. सामिया का किरदार निभाया था रानी मुखर्जी ने.
वीर जेल से निकलने की उम्मीद और इच्छा छोड़ चुका होता है, लेकिन सामिया उसे मनाती है, समझाती है. पाकिस्तान के सिस्टम से लोहा लेकर उसका केस लड़ती है और उसे आज़ाद करवाती है. छोटा सा लेकिन कितना पावरफुल किरदार था सामिया का. कितना इंस्पायरिंग. मैं छठी क्लास में थी जब मैंने वीर-ज़ारा देखी. मुझे वीर-ज़ारा की मोहब्बत तो कुछ खास समझ नहीं आई, लेकिन मैं सामिया जैसी बनने का सपना देखने लगी.
लेकिन तब मुझे ये नहीं पता था कि वकालत एक मेल-डॉमिनेटेड फील्ड मानी जाती है. इसका भी अंदाज़ा नहीं था कि एक लड़की का उस सिस्टम में दाख़िला लेना कितना मुश्किल हो सकता है. आज हम उन्हीं तमाम चैलेंजेज़ की बात करेंगे, जिससे भारत में लॉ पढ़ने और प्रैक्टिस करने वाली हर महिला दो-चार होती है.
साल था 1916. रेजिना गुहा के पिता खुद एक लॉयर थे. उनकी किताबें रेजिना ने पढ़नी शुरू कीं और वहां से उनको लॉ में इंटरेस्ट आया. उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से LLB की. जिसके बाद उन्होंने अलीपुर डिस्ट्रिक कोर्ट में अपील किया कि उन्हें वहां प्रैक्टिस करने दिया जाए. इस तरह की अपील करने वाली वो भारत की पहली महिला थीं. अब इससे कोर्ट और जजेज़ को हो गई दिक्कत!

1890 के दशक का कलकत्ता हाई कोर्ट
5 जज बेंच ने आपसी सहमति से फ़ैसला सुना दिया कि देखो भैय्या "मेन आर इंटाइटल्ड टू बी प्लीडर्स" यानी कोर्ट में अपील-वपील करने के काम पर केवल मर्दों का हक है, औरतों का नहीं.
दरअसल, उस वक्त जो लीगल प्रैक्टिशनर्स ऐक्ट देश में लागू था. उसके मुताबिक कोई भी 'व्यक्ति' वकालत कर सकता है, अदालतों में अपील कर सकता है. लेकिन, उस वक्त के जो कानून के जानकार थे उन्होंने 'व्यक्ति' का मतलब निकाल लिया पुरुष. इस वजह से औरतों के बतौर वकील अपील करने की बात पर सबको सांप सूंघ गया.
पांच साल बाद, यानी 1921 में आईं सुधांशूबाला हाज़रा. ठान लिया था कि करना तो लॉ ही है. कानून में बदलाव लाने के लिए वो कुछ भी करने को तैयार थीं. वो अपनी एक किताब 'अ वुमन ऐट लॉ' में कहती हैं,

कॉर्नेलिया सोराबजी
कोर्ट ने दो बातें कहीं -
1. 'लीगल प्रैक्टिशनर्स ऐक्ट' के मुताबिक, कोई भी महिला सिर्फ इसलिए कोर्ट में प्लीड नहीं कर सकती क्योंकि वो एक महिला है.
2. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कुछ वक्त पहले कॉर्नेलिया सोराबजी नाम की महिला को वकील बनाया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस कदम से लीगल प्रैक्टिशनर्स एक्ट में अमेंडमेंट के रास्ते खुलते हैं.
कोर्ट की ये टिप्पणी आई और देशभर में महिलाओं ने एक्ट में संशोधन के लिए कैम्पेन शुरू कर दिया. साल 1923 में द लीगल प्रैक्टिशनर्स (विमेन) ऐक्ट पास किया गया. इसमें एक लाइन जोड़ी गई, "no woman shall, by reason only of her sex, be disqualified from being admitted or enrolled as a a legal practitioner". मतलब ये कि किसी महिला को इस आधार पर वकालत करने से नहीं रोका जा सकता कि वो एक महिला है.
सुजाता मनोहर, भारत की दूसरी महिला जो हाईकोर्ट की जज से सुप्रीम कोर्ट की जज बनीं, उन्होंने एक प्रोग्राम (5th edition of difficult dialogues) में बताया कि जब उन्होंने बतौर वकील काम करना शुरू किया, उनके पुरूष कलीग्स उन्हें ताने देते थे कि कोर्ट क्या वो अपने लिए दूल्हा ढूंढने आती हैं?
मैंने लॉ से जुड़ी कुछ महिलाओं से बात की. लॉ की पढ़ाई कर रही एक छात्रा ने बताया,
'न्याय' जो शब्द है न, उसके ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी है कि कोर्ट रूम्स में हर लिंग, हर समुदाय का रिप्रेजेंटेशन बराबर दिखे. सिर्फ दिखे नहीं उनके विचारों को कोर्ट की वर्किंग में शामिल किया जाए. क्योंकि जितने डायवर्स विचार होंगे, न्याय की उम्मीद उतनी बनी रहेगी.
वीर जेल से निकलने की उम्मीद और इच्छा छोड़ चुका होता है, लेकिन सामिया उसे मनाती है, समझाती है. पाकिस्तान के सिस्टम से लोहा लेकर उसका केस लड़ती है और उसे आज़ाद करवाती है. छोटा सा लेकिन कितना पावरफुल किरदार था सामिया का. कितना इंस्पायरिंग. मैं छठी क्लास में थी जब मैंने वीर-ज़ारा देखी. मुझे वीर-ज़ारा की मोहब्बत तो कुछ खास समझ नहीं आई, लेकिन मैं सामिया जैसी बनने का सपना देखने लगी.
लेकिन तब मुझे ये नहीं पता था कि वकालत एक मेल-डॉमिनेटेड फील्ड मानी जाती है. इसका भी अंदाज़ा नहीं था कि एक लड़की का उस सिस्टम में दाख़िला लेना कितना मुश्किल हो सकता है. आज हम उन्हीं तमाम चैलेंजेज़ की बात करेंगे, जिससे भारत में लॉ पढ़ने और प्रैक्टिस करने वाली हर महिला दो-चार होती है.
तो शुरू से शुरू करते हैं?
क्या आपको पता है कि भारत मे 1923 से पहले कोई भी महिला वक़ील नहीं बन सकती थी? लॉ की दुनिया बुक्ड थी बस मर्दों के लिए. औरतें कानून पढ़ तो सकती थीं लेकिन वकालत कर नहीं सकती थी. जैसे वकालत कोई शादी के लिए ली जाने वाली डिग्री हो. पढ़ लो, अच्छा लड़का मिल जाएगा. लेकिन जब इस तरह से किसी को दबाया जाता है तो क्या होता है? एंट्री होती है हीरो की. पर ये तो औरतों का मसला था, तो एंट्री हुई दो हिरोइनों की. ये दो हिरोइनें थीं रेजिना गुहा और सुधांशुबाला हाज़रा. दोनों बंगाल से थीं. ऐसा क्या किया उन्होंने?साल था 1916. रेजिना गुहा के पिता खुद एक लॉयर थे. उनकी किताबें रेजिना ने पढ़नी शुरू कीं और वहां से उनको लॉ में इंटरेस्ट आया. उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से LLB की. जिसके बाद उन्होंने अलीपुर डिस्ट्रिक कोर्ट में अपील किया कि उन्हें वहां प्रैक्टिस करने दिया जाए. इस तरह की अपील करने वाली वो भारत की पहली महिला थीं. अब इससे कोर्ट और जजेज़ को हो गई दिक्कत!

1890 के दशक का कलकत्ता हाई कोर्ट
5 जज बेंच ने आपसी सहमति से फ़ैसला सुना दिया कि देखो भैय्या "मेन आर इंटाइटल्ड टू बी प्लीडर्स" यानी कोर्ट में अपील-वपील करने के काम पर केवल मर्दों का हक है, औरतों का नहीं.
दरअसल, उस वक्त जो लीगल प्रैक्टिशनर्स ऐक्ट देश में लागू था. उसके मुताबिक कोई भी 'व्यक्ति' वकालत कर सकता है, अदालतों में अपील कर सकता है. लेकिन, उस वक्त के जो कानून के जानकार थे उन्होंने 'व्यक्ति' का मतलब निकाल लिया पुरुष. इस वजह से औरतों के बतौर वकील अपील करने की बात पर सबको सांप सूंघ गया.
पांच साल बाद, यानी 1921 में आईं सुधांशूबाला हाज़रा. ठान लिया था कि करना तो लॉ ही है. कानून में बदलाव लाने के लिए वो कुछ भी करने को तैयार थीं. वो अपनी एक किताब 'अ वुमन ऐट लॉ' में कहती हैं,
"मैंने इतना कुछ सिर्फ़ इस एक उम्मीद के साथ किया कि शायद मेरे स्ट्रगल से आने वाली पीढ़ी की महिलाओं के लिए क़ानून जगत अपने द्वार खोल देगा."उन्होंने पटना डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में अपील की. कोर्ट का लॉयर्स असोसिएशन औरतों को वकालत करने देने के सख्त खिलाफ था. पर सपोर्ट करने वाली जनता भी कम नहीं थी. सुनवाई वाले दिन कोर्ट का माहौल देखने लायक था. कोर्ट में लोगों की भीड़ मौजूद थी, इनमें महिलाएं बड़ी संख्या में शामिल थीं.

कॉर्नेलिया सोराबजी
कोर्ट ने दो बातें कहीं -
1. 'लीगल प्रैक्टिशनर्स ऐक्ट' के मुताबिक, कोई भी महिला सिर्फ इसलिए कोर्ट में प्लीड नहीं कर सकती क्योंकि वो एक महिला है.
2. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कुछ वक्त पहले कॉर्नेलिया सोराबजी नाम की महिला को वकील बनाया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस कदम से लीगल प्रैक्टिशनर्स एक्ट में अमेंडमेंट के रास्ते खुलते हैं.
कोर्ट की ये टिप्पणी आई और देशभर में महिलाओं ने एक्ट में संशोधन के लिए कैम्पेन शुरू कर दिया. साल 1923 में द लीगल प्रैक्टिशनर्स (विमेन) ऐक्ट पास किया गया. इसमें एक लाइन जोड़ी गई, "no woman shall, by reason only of her sex, be disqualified from being admitted or enrolled as a a legal practitioner". मतलब ये कि किसी महिला को इस आधार पर वकालत करने से नहीं रोका जा सकता कि वो एक महिला है.
अब हाल का कुछ जान लीजिए -
ये तो हो गई इतिहास की बातें. हम अब की बात करते हैं. मेरे पापा के एक कलीग थे. वो प्रोफेसर हैं. कई लोगों के गुरु. जब मेरे पापा ने उनको बताया कि उनकी बेटी को यानी मुझे कानून में दिलचस्पी है. तो उन अंकल ने कहा,"बेटी को लॉ मत करवाइए. शादी कौन करेगा उससे? समाज को वकालत कर रही लड़की घर तुड़वाने वाली लड़की लगती है. परेशानी हो जाएगी आपको."ये सोच केवल उन अंकल की नहीं है. कई लोग ऐसे मिल जाएंगे जो इसी तरह की सोच रखते हैं. इस तरह की सोच की के चलते वक़ालत पढ़ने या प्रैक्टिस करने वाली महिलाओं को हज़ारों तानों से रोज़ गुज़रना पड़ता है.
सुजाता मनोहर, भारत की दूसरी महिला जो हाईकोर्ट की जज से सुप्रीम कोर्ट की जज बनीं, उन्होंने एक प्रोग्राम (5th edition of difficult dialogues) में बताया कि जब उन्होंने बतौर वकील काम करना शुरू किया, उनके पुरूष कलीग्स उन्हें ताने देते थे कि कोर्ट क्या वो अपने लिए दूल्हा ढूंढने आती हैं?
मैंने लॉ से जुड़ी कुछ महिलाओं से बात की. लॉ की पढ़ाई कर रही एक छात्रा ने बताया,
"हमारी फर्स्ट ईयर की पहली क्लास में लॉ के एक बहुत नामी प्रोफेसर ने लड़कियों से पूछा कि आप लोग लॉ पढ़ कर क्या करेंगे? आप लोगों को आख़िरश तो चाय ही बनानी है. वह कहना यह चाहते थे कि आप लोग 1 डिग्री में एनरोल्ड हैं. फिर आपके डिग्री खत्म हो जाएगी और आप की शादी हो जाएगी. शादी के बाद आपको किचन ही संभालना है. पहली ही क्लास में विषय को लेकर इतना डिमोटिवेशन, असहनीय था."खुद एक रिटायर्ड जज ने कैसी भद्दी टिप्पणी की. जज के परिवार से एक लड़की ने बताया,
"हमारे एक रिश्तेदार हैं जो रिटायर डिस्ट्रिक्ट जज हैं. उन्होंने हमारे घर में एक शादी इस बात पर तुड़वा दी कि लड़की की मां ने कभी कोर्ट में गवाही दी थी. जब उस लड़की की मां ऐसी है तो लड़की कैसी होगी!"आखिर में, कोर्ट का हाल बयां कर रहीं एक लॉयर और LLM की स्टूडेंट की बात पर ज़रा ग़ौर फरमाएं.
"जो जेंडर गैप है इस फील्ड में, वह लॉ स्कूल की क्लास में ही शुरू हो जाता है. मेरी ग्रेजुएशन की क्लास में 60 में केवल 13 लड़कियां थी और यह गैप कोर्ट रूम में और बढ़ जाता है. कोर्ट रूम में, मेरे हिसाब से, लड़के और लड़कियों का रेशियो 1:9 होगा. तरह तरह के पूर्वाग्रह हैं. मेरे घर में मेरे पिताजी को बोला जाता है कि आपने अपनी बेटी को लोग क्यों कराया? कोई शादी नहीं करेगा. वकालत करने वाली लड़कियां घर तुड़वाती हैं."भारत में कदम कदम पर फेमिनिज़्म को गाली देने वाले लोग मिल जाएंगे और इस डिबेट में उलझने का अभी कोई इरादा भी नहीं है. पर एक ध्यान खींचने वाली बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट के 34 जजेज़ में से सिर्फ़ तीन महिला हैं. और भारत के आज़ादी के 75 साल बाद भी भारत को अब तक एक भी महिला चीफ़ जस्टिस नसीब नहीं हुई. अब मेरिट की बात मत करना दोस्त, पहले औरतों को सामाजिक अड़ंगों से घेरना छोड़ दो, उसके बाद मेरिट की बात करना.
'न्याय' जो शब्द है न, उसके ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी है कि कोर्ट रूम्स में हर लिंग, हर समुदाय का रिप्रेजेंटेशन बराबर दिखे. सिर्फ दिखे नहीं उनके विचारों को कोर्ट की वर्किंग में शामिल किया जाए. क्योंकि जितने डायवर्स विचार होंगे, न्याय की उम्मीद उतनी बनी रहेगी.